भोजपुरी कहानी : चौधरी साहब

Update: 2017-05-17 06:17 GMT
इलाके में चौधरी जी इकलौते जमींदार थे जिनकी नाक, लाठी और जूती, पैसठ की उमर में भी बराबर चमकती थी। लम्बी-चौड़ी खेती, बीस बरस की परधानी और संगठित व संयुक्त परिवार के दम पर दस बीस गांव में खूब रूतबा और दखल रखते थे चौधरी साहब। नील लगी धोती और चमचमाते कुर्ते, केवल कत्थे की मजाल थी कि कुछ छींटाकसी कर ले।
संयुक्त परिवार में सबसे बड़े चौधरी साहब जिनके सामने उनसे दो साल छोटा भाई भी कभी बड़ा न हो सका। जिरह केवल घर के भीतर ही चलती थी बाहर तो केवल हुक्म चलता था या लाठी।

अबकी परधानी चुनाव में फिर चौधरी साहेब के दुआर पर गांव वालों का जमावड़ा शुरू हो गया लेकिन अबकी बार चौधरी साहब के बड़े सुपुत्र राजनीति के दांव-पेंच  और गुणा-गणित से गांव के सभी नौजवानों को अपना मुरीद किये हुए थे। गांव के कुछ लड़के चाहते थे कि अबकी बार बड़का बाबू पर्चा भरें। लेकिन किसकी जुर्रत कि चौधरी साहब से उनका मुकुट मांगे। धीरे-धीरे यह बात चौधराईन तक  पंहुची। चौधराईन को भी यह बात ठीक लगी।

रात को सोते समय पैर दबाते हुए चौधराईन ने चौधरी से धीरे से कहा- अब आपकी भी बुढ़ौती आ रही है चौधरी साहब कुछ झमेले छोड़ कर शरीर को आराम दीजिए। अरे मैं तो कहती हूँ कि अबकी  परधानी के लिये बड़कू को उठाइये। जवान है, सब काम-धाम आपके सामने ही सीख लेगा और आप और उसमें फर्क भी क्या है।

चौधरी साहब आज तक अपने को बूढ़ा नहीं समझे थे लेकिन चौधराईन के मुख से पहली बार अपने लिये "बुढ़ौती" शब्द सुनना उनके लिये ऐसा था जैसे किसी राजा के लिये उसके अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा लापता होने की खबर। चौधरी आहत तो बहुत हुए लेकिन अपने को काबू रखकर बोले- चौधराईन " अगर खुराकी अच्छी हो तो बरध और मरद कभी बूढ़े नहीं होते लेकिन जब तूहीं बैलगाड़ी से छटका रही हो तो हम का कहें। हांलांकि चौधराईन बहुत पेंट-पालिस मारीं लेकिन चौधरी एक ही करवट पर पूरी रात काट गये।

चौधरी सुबह उठे लेकिन उनकी बैचनी भी उनके साथ उठी लेकिन एक पराजित योद्धा की तरह अपना मुकुट निकाल कर पंच बुलाया और पंच में यह फैसला सुनाया कि अबकी परधानी बड़कू चौधरी के हवाले।

नये उमर के लड़कों को नया सरदार मिला वे दुगने रफ्तार से चौकड़ी भरने लगे और फिर परधानी का मुकुट एक महीने के अन्दर जड़ से शाखा पर पहुँच गया। परधानी से शाखा फलदार हुई तो रस पसंद लोग फलों के इर्दगिर्द मंडराना शुरु कर दिये। सारे जमावड़े बड़कू के तखते पर लगने लगे। चौधरी साहब के पास वही पहुचते थे जिनके हाथ में केवल लाठी और गले में शब्द कम, खांसी ज्यादे टपकती थी। धीरे-धीरे गांव के नवधा और शक्तिशाली परधान के अंगुलियों में अंगुठी बन गये ...

शादी-विवाह के निमंत्रण में दस में से आठ निमंत्रण बड़कू चौधरी के नाम आने लगा। बड़कू की मेहरारू की एड़ी अपने आप दनकने लगी चाबी के गुच्छे में चार चाबी का इजाफ़ा एक महीने के भीतर हो गया।
चौधरी साहब को अब, बड़कू का जमावड़ा और परधाईन की तेज़ी, खटकने लगी थी। एक दो पिछलग्गुओं ने भी चौधरी साहब के कान भरने शुरु कर दिये। धीरे-धीरे एक अन्तर्विरोध पनपने लगा अब चौधरी, बड़कू के काम में भी कमी निकालने और दखल देने लगे लेकिन सत्ता तो सत्ता ही है, हनक तो वहीं ठहरेगी भले आप बड़का चौधरी रहे।

एक दिन चौधरी साहब ने अपने सिंहासन को डोलते खतरे से चिढ़ कर घर के टैक्टर की चाबी अपने कब्जे में कर ली और बड़कू से गल्ले और टैक्टर का हिसाब मांगा लेकिन बड़कू भी सरपंच हो चुके थे कुछ देर बर्दाश्त करने के बाद जिरह पर आ गये। यह बात चौधरी के लिये नाक और प्रतिष्ठा का बन गया। चौधरी साहब आपे से बाहर आकर परधान के प्रतिष्ठा से खेलने लगे। प्रतिष्ठा के खेल का अंत शाम तक ही दो दूल्हे में तब्दील हो गया। चौधराईन नहीं चाहती थीं कि घर में दो जगह परथन लगने लगे लेकिन करें भी क्या चालीस सालों की जमींदारी में दबी जुबान इस बार भी तकलीफ़ सह कर चुप्पी मार गई।

पहले तो एक ही चौपाल थी अब साफ-साफ दो चौपाल हो गयी बड़कू नये घेर में बैठका बनाये। चौधरी साहब के पास केवल अपनी जवानी के किस्से बचे थे और पटकने के लिये लाठी लेकिन परधान के पास लोक-लुभावन बहुत सी योजनाएँ .....चौधरी साहब एक भेली फोड़ते तो शाम तक आने वाले और मक्खियाँ दोनों मिलकर भी नहीं खत्म कर पाते और इधर पेड़ा, खुरमा और चाय के चुक्कड़ बराबर सजे रहते....
धीरे-धीरे चौधरी साहब को यह आभास होने लगा था कि हनक सत्ता से है न कि लाठी और मूछों से लेकिन करते भी क्या अब तो बछवा पगहा तूरा के भाग चुका था।
एक दिन रात को चौधरी अधीर होकर चौधराईन से पूछे- चौधराईन अब हम बूढ़ा गये ना? 
चौधराईन गंभीर मुद्रा में आ गयीँ सोचने लगीं क्या जबाब दें ऐसा न हो कि चौधरी अगाही खेल रहे हों। लेकिन  फिर भी कुछ देर खामोश रहकर बोलीं  चौधरी समय हर समय समान नहीं होता वृक्ष  विशाल तभी है जब उसकी डाल और टहनियां हैं केवल जड़ों के बल पर वृक्ष.....वृक्ष कहां रह जाता। 
ठूंठ बन जाता है चौधरी साहब ठूंठ...जिसके नीचे न तो कोई बैठना चाहता है और ही वह किसी को कुछ दे पाता। पूरे दिन अकेल धूप में जलता रहता है....खुद को कोसता रहता है।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर

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