दुनिया भले बीएचयू को भारत का सबसे बड़ा शिक्षण संस्थान मानती हो पर रुद्र प्रताप सिंह आज भी उसे अपने प्रेम का कत्लगाह ही मानते हैं। पछुआ हवा के प्रत्येक झोंके के साथ उपट जाने वाले अपने पोर पोर के दर्द को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ रूद्र प्रताप तो बिश्वनाथ मंदिर के पीछे वाले उस बड़े पीपल को भूल कर भी नही भूलते जहां उनके एकत्र गत्र गत्र को यत्र तत्र बिखेर दिया था बिखेरने वालों ने, और ना ही उस अद्वितीय सुंदरी.............. खैर छोड़िये।
इंटर के प्रथम वर्ष में केजरीवाल की तरह प्रारम्भ होने वाला प्रेम ग्रेजुएसन में जाते जाते चौधरी अजीत सिंह कैसे हो जाता है इसपर कोई लेखक शोध कर के लिखे तो शायद उसे जवानी या अधेडावस्था में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाय।यह रूद्र प्रताप सिंह का दुर्भाग्य ही था जो उनका प्रेम भी इसी विवादित कालखंड में प्रारम्भ हुआ था। हाई स्कूल में संस्कृत वाले पंडीजी द्वारा रटाये गए "मातृवत् परदारेषु परद्रब्येसु लोष्ठवत" वाले श्लोक के अर्थ को ही सत्य समझने की उम्र की लक्ष्मण रेखा से बाहर निकल कर जिस रात उन्होंने सपने में रानी मुखर्जी को देखा था उसके अगले ही दिन उनकी आँखों ने विश्वनाथ मंदिर में घुसती स्नेहा चटर्जी को देख लिया।
देखा भी तो ऐसे देखा कि बिना कुछ देखे ही इतना देख लिया कि फिर कुछ देखने के काबिल ही नही रहे। हिन्दी कविता के जघन्य विद्वान रूद्र ने उस दिन होस्टल के अपने कमरे में बैठ कर पैंतालीस रूपये वाली अपनी लाल डायरी में जब स्नेहा के सौंदर्य का बर्णन लिखा तो लगा जैसे डायरी में आग लग जायेगी। लिखा कि उसकी आँखों को देख कर मैं बिहारी हो गया तो अधरों को देख कर जयदेव। गालों की लालिमा मुझे केशव बना गयी तो पता नही क्या देख कर मेरा मन कालिदास हो गया, और लगने लगा जैसे मैं भी जिस डाली पर बैठा हूँ उसी को काट रहा हूँ। उसके चरण देख कर मन तुलसीदास हो गया पर जाने क्यों उससे दूर होते हीं मेरे अंदर घनानंद की आत्मा घुस आई।
अगले दिन रूद्र बाबू ने उसके बारे में पता लगाया तो पता चला कि साइंस सेक्सन में बायलॉजी की स्टूडेंट है। कवि हृदय रूद्र ने ठान लिया कि दिल को एक सिम्पल बॉडी आर्गन समझने वाली इस रूपसी को अपने प्रेम में डुबो देना है। अब रूद्र का मिसन था कि किसी तरह स्नेहा का सामीप्य प्राप्त करना है। मित्रों ने बताया कि स्नेहा का सामीप्य तो तुम्हारे लिए अत्यंत सुलभ है, तुम कवि हो और वह कबिता प्रेमी, बस किसी बहाने एक दिन उसके ग्रुप में जा कर अपनी एक दो चकाचक कविताएँ सुनाओ और छा जाओ।
चार दिन तक लगातार प्रेम की कविताएँ लिखने के बाद जब रूद्र बाबू दोपहर में घास पर बैठी स्नेहा और बीस पचीस अन्य लड़कियों के ग्रुप में पंहुचे तो देखा कि कोई मोटा तगड़ा स्मार्ट सा लड़का कविता पढ़ रहा है। पता लगा पूछने पर कि साहित्य का विद्यार्थी और बहुत अच्छा कवि है, नाम है सर्वेश त्रिपाठी। रूद्र का दिल कांप गया। एक महीने बाद ही वेलेंटाइन डे आने वाला था और रूद्र की इक्षा थी कि परपोज डे के दिन परपोज कर ही देना है, पर अब तो यह रकीब खड़ा था। घर आ कर मित्रों से चर्चा किये और प्लान बना। चार दिन के बाद शाम छह बजे फोन कर के सर्वेश बाबू को कविता सुनाने के लिए बुलाया गया और और आते हीं पांच लोगों ने मिल कर उनकी मुश्कें कस दीं और दे दबादब।कुटाई की स्पीड यह थी कि डेढ़ मिनट के अंदर ही सर्वेश बाबू के मुह से राग भैरवी के सुर में शब्द निकलने लगे- अइ अइ अइ अइ यो...... अब कभी कविता नही पढ़ेंगा... हमको छोड़ दो.... हम केजरीवाल का किरिया खाता है... कबिता लिखेंगा भी नही..... छोर दो... छोर दो....
सर्वेश को स्नेहा से दूर रहने की हिदायत दे कर छोड़ देने के बाद रूद्र को लगा कि रास्ता साफ हो गया और इस बेलेंटाइन में काम बन जायेगा। अब वे हवाओँ में उड़ रहे थे। दो तिन दिन बाद उनके मोबाईल पर फोन आया कि फिल्ड के सबसे दक्षिण ओर आइए काब्य गोष्ठी है। रूद्र प्रपंच से अनजान लपक कर पहुचे तो देखा कि चार पांच लोगों के साथ खड़े सर्वेश उनकी कविता लाल करने के लिए खड़े हैं। उसके बाद क्या हुआ यह छोड़ दिया जाय जानने वाली बात यह है पौने तीन मिनट के बाद रूद्र बाबू राग मालकौंस के सुर में कोंहर रहे थे, छड्डो:..... छड़ो:..... अब सोनेहा की ओर जाबो ना.... अब कोबिता लिखबो ना.... पोरेम कोरबो ना....
उस रात तो रूद्र का तेल निकाल कर सर्वेश चले गए पर अगले दो चार दिनों में पुरे कैम्पस को पता चल गया कि इधर युद्ध से हालात हैं। म्युचुअल फ्रेंडों ने बीच का रास्ता निकाला तो तय हुआ कि दोनों कवि एक दिन साथ में कबिता सुनाएँ और जिसने स्नेहा का स्नेह पा लिया स्नेहा उसकी।
फिर क्या था, पांच दिन बाद एक दोपहर दोनों स्नेहा के सामने थे।
सबसे पहले रूद्र ने इरशाद किया–
खुद ही शेर पढ़ कर खुद ही वाह और दाद कर लेंगे,
तेरे क़दमों में ही अब जिंदगी आबाद कर लेंगे।
जवाब दिया सर्वेश ने–
ये तेवर रूमानी ये कसम ये फुरफुरी दिल की,
अरे जाओ मियां वरुणा के जल में मुह तो धो आओ।
रूद्र का क्रोध बढ़ा। कहा–
ककहरा इश्क का जिसको न अबतक याद हो पाया,
वे भी इस गलतफहमी में हैं कि दीवान लिख देंगे।
सर्वेश भी उंखड़े–
जिनके थोबड़े से जूतियों के दाग ना छूटे,
वे आशिक कौन मुह लेकर मियां सलीम बनते हैं।
रूद्र अब आग होने लगे–
गधे दम भर रहे हैं इश्क के अब हाय रे दुनिया,
यहां जीने से बेहतर है नदी में डूब मर जाएँ।
अब सर्वेश गरजे–
दुनिया किस कदर उल्टी है ग़ालिब
गधे लोगों को गदहा कह रहे हैं।
अब रूद्र की मुट्ठियाँ तन गयीं। एकाएक छरक कर सर्वेश का गिरेबान पकड़ लिया और दनादन घूंसे लगाने लगे। पर सर्वेश मोटे ताजे थे, अगले ही क्षण पासा पलटा और सर्वेश रूद्र की छाती पर थे। फिर तो द्वन्द युद्ध देखने लायक था। इधर दो योद्धा अद्भुत रण कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे और उधर स्नेहा हँस हँस के लोट पोट हो रही थी। अचानक एक रॉयल इन्फिल्ड बुलेट आ कर रुकी तो जैसे पहले से इंतजार कर रही स्नेहा उस पर जा कर बैठ गयी और ड्राइबर को कुछ इस अंदाज में पकड़ा की दोनों योद्धा रुक गए। नायिका उड़ गयी थी। उसकी सहेलियों ने बताया– यह स्नेहा का फ़ास्ट फ्रेंड है नाम है सिद्धार्थ।
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वो दिन है और आज का दिन है, दोनों को प्यार से नफरत है नफरत। हाँ इस धोखे के कारण उन दोनों में आपस में गहरी मित्रता हो गयी है, और वे एक दूसरे को धोखा भाई कहते हैं। अब जब कभी सर्वेश स्नेहा की याद में रोते हैं तो रूद्र चुप कराते हैं और रूद्र रोते हैं तो सर्वेश। दुनिया चल रही है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख