थर्ड डिवीजन की भी योग्यता न रखने वाली फलाना कुमारी बिहार टॉपर बनने के बाद इतनी खुश नही हुई होगी जितने खुश आज अरविंद सिंह हैं। अंग अंग से खुशी इस तरह झलक रही है, जिस तरह किसी नेता के सफ़ेद कुर्ते से देशप्रेम झलकता है।पुरे डेढ़ सेकेण्ड तक बैठे बैठे मुस्कुराते हैं अरविंद, फिर खड़े हो कर हँसने लगते हैं। हँसते हँसते ऊबते हैं तो इधर उधर नजर फिरा कर सन्नी देओल स्टाइल में डांस भी कर लेते हैं और फिर बैठ कर मुस्कुराने लगते हैं। बाहर का आदमी यदि उनकी उठक बैठक देखे तो यही समझेगा कि उनका अंग प्रत्यंग पकहवा खजुअट की चपेट में है, पर उन्हें इस बात की जरा भी फ़िक्र नहीं।
वैसे आज अरविंद सिंह के पास खुश होने का इतना जब्बर कारण हैं कि वे धर्मेन्द्र की तरह भी डांस करें तो वह नाजायज नही होगा। फेसबुक की कृपा से दस पंद्रह दिन पहले पता चला कि मनोरमा भी इसी शहर में है। फोन से बात चली, बढ़ी और मिलने के वादे हुए। अरविंद ने बड़ी खूबसूरती से अपनी अर्धांगिनी को यह बताया कि मनोरमा उनके कॉलेज के दिनों की सहपाठी है। और आज अर्धांगिनी मनोरमा के बुलावे पर उसके घर गयी है।
घर में अकेले बैठे बैठे छरक रहे हैं अरविन्द सिंह। बार बार कॉलेज के दिनों की याद आ रही है। अरविंद को याद आता है, उन्हें फ़िल्म देखने का कभी शौक नही रहा। दोस्त बार बार कहते थे कि चलो फ़िल्म देखने, तो जनाब हर बार बहाना मार देते- मेरे घुटने में गैस हो गया है, मेरे दिमाग में हर्निया बढ़ गया है बहुत दुखा रहा है, तो कभी कहते- मेरे पेट में अर्थराइटिस हो गया है।
इसी बीच दोस्तों को भनक लग गयी कि अरविंद मन ही मन मनोरमा को चाहते हैं। दोस्तों से यह खबर दुश्मनों तक भी पहुची। फिर क्या था कम्बख्तों ने पता नही क्या कह के मनोरमा को मनाया कि एक दिन खुद उसने अरविंद को सिनेमा देखने चलने को कहा। मनोरमा ने बताया कि सूरदास टाकीज में बड़ी अच्छी फ़िल्म लगी है जिसका नाम है- मुर्दे की जान खतरे में। अब अरविंद के क्या पूछने, उन्हें तो लगा जैसे बिना बम फोड़े ही जन्नत मिल गयी और बहत्तर दुनी एक सौ चौवालीस हूरें उनके चरण दबा रही हैं। फट से तैयार हो गए, मनोरमा से कहा कि यह फ़िल्म बहुत जरूरी है, आखिर पता तो चले कि मुर्दे की जान कैसे खतरे में हो सकती है।
अगले ही दिन दोनों एक रिक्शे पर बैठ कर सिनेमा हॉल चल पड़े। अरविंद जैसे हवा में उड़ रहे थे, वे बार बार बात सुरु करने के लिए मनोरमा से पूछते कि तुम्हारा फेब्रेट हीरो कौन है? पर पता नही क्यों मनोरमा रुमाल से नाक और मुह दबा कर बैठी थी और किसी बात का जवाब ही नही देती थी।
लगभग एक किलोमीटर के बाद कुछ दूर का रास्ता सुनसान पड़ता था। अचानक उसी सुनसान में मनोरमा ने रिक्शे वाले से रुकने के लिए कहा। अभी रिक्शा रुका ही था कि पीछे से एक दूसरा रिक्सा आ कर रुका और मनोरमा झट से उसपर बैठ गयी और रिक्सा चल गया। अरविंद भौंचक हो कर सोच रहे थे, कि तबतक पता नही किधर से यमदूत की तरह आठ दस हट्ठे कट्ठे मुस्टंडों ने आ कर घेर लिया। अरविंद ने देखा तो पहचाना कि ये तो अपने ही कॉलेज के वे दुश्मन थे जो इनके मनोरमा प्रेम से जले हुए थे। फिर क्या था, अगले आधे घंटे तक वो धुलाई हुई जो सनसुइ के वासिंग मसीन में सर्फ़ एक्सल से भी नही होती है। अरविंद के साथ साथ रिक्शाचालक को भी लाल किया गया।
आधे घंटे बाद जब वे राक्षस चले गए तो जमीन पर पड़े अरविंद और रिक्शेवाले ने एक दूसरे को बड़ी मासूमियत से देखा और एकाएक भोँकर के रो पड़े, भोंssssssssssss
एक घंटे बाद अरविंद उसी रिक्शे से वापस हॉस्टल लौटे। चार कदम चलाने के बाद जब रिक्शेवाले का घाव दुखता तो अरविंद रिक्सा हांकते, और छः पेंडल के बाद इनके पैर की किडनी दुखती तो रिक्शेवाला हांकता। इस तरह एक किलोमीटर की यात्रा पुरे डेढ़ घंटे में तय कर जब अरविंद घर पहुचे तो अंग अंग के साथ दिल भी टूट गया था। वह टुटा दिल कैसे जुड़ा यह तो भगवान जाने पर अभी अरविंद अपनी अर्धांगिनी के लौट कर आने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी बजी तो अरविंद उछल पड़े, लगभग दौड़ते हुए पहुचे और गेट खोला। गेट खोलने पर उनकी नजर जैसे ही अर्धांगिनी पर पड़ी, उनकी कुल ख़ुशी सटक गयी। अर्धांगिनी का मुख वैसे ही लाल हुआ था जैसे केंद्र में मोदी की जीत पर सीताराम येचुरी का मुख लाल हो गया था। अरविंद उनकी यह मुद्रा पहले भी एक दो बार देख और भुगत चुके थे। उन्होंने डरते डरते पूछा- क..क..क..क्या हुआ?
अर्धांगिनी बिना कुछ बोले सीधे किचेन में घुस गयीं और गैस ऑन कर छोलनी का बेंट गर्म करने लगीं। अरविंद का कलेजा सुख गया, वे मिमियां कर बोले- बो बो बो बोलिये ना का हुआ? आपका मिजाज काहे गरम है??
-फेट.... बेसी बोलेगा तुम? प्रेम प्रसंग को दोस्ती बताता है और ऊपर से कांग्रेसी थेथरई बतियाते हैं। रुकिए आपका बोखार झाड़ते हैं।
-आरे बोलिए ना का हुआ? हमारा तो डर से ही पेट गोंय गोंय कर रहा है।
- अभी बोलने को कहते हैं? मन तो करता है कि आपको मुस नियर झंउंस कर जीतन राम माझी जैसे खा जाएँ। निर्लज आदमी, आपको खटमल के खून से ख़त लिखते शर्म नही आई?
-या अल्लाह, या निर्मल बाबा... कमबख्त ने ई कुल भी बता दिया?
- बताएगी नही, ऐसे निर्लज आदमी का क्या क्या नही बताएगी। रे गदहा, कहीं सिनेमा का नाम "मुर्दे की जान खतरे में" होता है? इतना भी बुद्धि नही और चले थे पेयार करने?? उतना थुराने के बाद भी आपका नशा नही उतरा??
- ए जी, पेयार तो हम बस आप से ही करते हैं, उ तो.....
-फेट... बोलेगा फुटुर फुटुर... हम आपका प्यार बुझते ही नही हैं?? चुपचाप खड़े रहिये...
अर्धांगिनी सीधे घर के किचेन में घुसीं और गैस पर लाल हो चुकी छोलनी उठा कर निकलीं........................................
उसके बाद क्या हुआ भगवान जाने, पर कुछ देर बाद पुरे मोहल्ले ने बुड़बक बिहारी के करुण चीत्कार का रसपान किया।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज