पापा मैं सोयी नहीं थी....

Update: 2017-06-17 16:39 GMT
"नेहा,  तुम्हारे पापा का फोन आया था। तुम्हें मिलने के लिए बुलाया हैं।"

"मुझे बुलाया है पापा ने !जरुर पापा की तबियत ठीक नहीं होगी। जरा फोन लगाइए तो पापा को!"
नेहा ने दुपट्टे से अपना मुंह पोछते हुए पति आनन्द से कहा

"प्रणाम पापा!"
"खुश रहो बेटा, कैसी हो?"(आवाज़ बेहद मद्धम सी थी)
"मैं तो ठीक हूँ लेकिन आप कैसे हैं पापा ?" नेहा के चेहरे पर पिता की चिन्ता स्पष्ट झलक रही थी।
"ठीक हूँ बेटा!" पापा ने अबकी थोड़ा जोर लगा कर बोला।
"पापा आप झूठ बोल रहें हैं। अगर आप ठीक होते तो मुझे अचानक बुलाते ही नहीं।"

"बस यूँ ही तेरी याद आ रही थी बेटा..सोचा कि तुझे देख लूँ।"
 "आप फिर झूठ बोल रहे हैं पापा।  इस दुनिया में मुझसे बेहतर कोई नहीं नहीं जानता आपको। मुझे पता है कि आप अपनी परेशानी का जिक्र किसी से कर ही नहीं सकते। खैर! शाम तक आती हूँ।" इतना कह कर नेहा  फोन काट दिया और बड़बड़ाने लगी- ' ये इनकी पुरानी आदत है कि अपनी किसी भी परेशानी को बता ही नहीं सकते। मुझे पता है कि पापा  बहुत बीमार होंगे तभी मुझे आने को कहेंगे नहीं तो वो खुद ही चले आते।'आनन्द चुपचाप नेहा की भावनाओं को महसूस कर रहे थे।
"सुनिए! दोपहर को जब बाबू स्कूल से आ जायेगा तो उसको खाना खिलाकर मैं पापा के पास जाऊंगी।"

"पर जाओगी कैसे ? और बाबू ?" आनन्द ने नेहा से प्रश्न किया।
"देखिए ! आपकी तो ड्यूटी है और बाबू का स्कूल... बाबू यहाँ दादी और आपके पास आराम से रह लेगा आप परेशान न होइए मैं बस से चली जाऊँगी। बस तो अब गांव के चौराहे तक जाती है।"
"ठीक है मैं तुम्हें बस अड्डे तक छोड़ दूंगा" कहकर आनन्द अपने आफिस निकल गये।

दोपहर में सब काम निपटाने के बाद नेहा बाबू को सुलाकर बस से अपने मायके निकल गयी..
बस से ससुराल से मायके का सफर महज तीन घंटे का ही था। नेहा पापा के ख्याल में ऐसी खोयी थी कि तीन घंटे कैसे बीत गया उसे पता नहीं चला।
घर पहुंचने पर एक बड़े से मकान के बाहरी कमरे में नेहा के पापा, श्रीकांत शास्त्री जी बिस्तर पर लेटे और पट्टीदारी के दो-तीन लोग उनके अगल-बगल बैठे हुए थे गांव का एक भतीजा उनका माथा दबा रहा था। 
नेहा ने सबके चरण छुए लेकिन दृष्टि पापा की तरफ थी।
"आ गई बेटा ?" शास्त्री जी ने थोड़ा बैठने का प्रयास किया।

"मैं कह रही थी न कि आप बीमार हैं लेकिन आपने बताया नहीं।"
"कोई बात नहीं बेटा मैं ठीक हूँ बिल्कुल।"
"पापा आप कितने दुबले हो गयें हैं चेहरा भी आपका एकदम से बीमार जैसा लग रहा है।" 

"पहले चाय-पानी तो ले ले तेरी डांट सुनने के लिये बैठा हूँ यहाँ।" शास्त्री जी ने निष्प्रभ मुस्कान के साथ उसकी बात काट दी।
नेहा को घर के भीतर एक- एक डिब्बे की जानकारी है। कहाँ क्या रखा है, क्या नया आया, बक्से में कौन सी चीज़ कहाँ रखी है सब उसे को खबर रहती। जब तक शादी नहीं हुई थी तो घर के भीतर की पूरी जिम्मेदारी उसी ने ओढ़ रखी थी और शादी के बाद ससुराल से सारी खबर रखती ही है।
शास्त्री जी के जीवन का केन्द्र बिन्दु नेहा ही तो है। वो लगभग दो वर्ष की थी तभी उसकी मां का देहांत हो गया और..पूरी गृहस्थी उजड़ने के बाद उसको पालने की जिम्मेदारी ने शास्त्री जी को कुछ सोचने का मौका ही नहीं दिया जबकि की अम्मा चाहतीं थीं कि श्रीकांत दूसरा विवाह कर लें किन्तु उन्होंने कभी अम्मा की बात कर कान ही न दिये। यद्यपि नौकरी में रहकर दो साल की बच्ची को पालना मामूली नहीं था। बिटिया को सुबह जगाना, नहलाना-धुलाना, स्कूल भेजना... और खुद भी ड्यूटी के लिये रेडी होना। आज उनकी 'सुधा' होती तो नेहा को उसके भरोसे टाल कर दुनिया-जहान की भी खबर रखते लेकिन जब पूरी दुनिया ही नेहा में सिमटी हो तो फिर किस दुनिया में जीयें श्रीकांत बाबू।

रात को शास्त्री जी को खाना खिलाने के बाद उनका  पैर दबाते समय ही बड़बड़ाना शुरू किया नेहा ने। "क्या पापा आप भी न...... लापरवाही की हद करते हैं मैने आपको दो डिब्बे च्यवनप्राश भिजवाये थे लेकिन आपने गिनकर भी पाँच चम्मच नहीं खाया होगा और आँवले का जूस तो आपने खोला भी नहीं।"

"अच्छा कुछ और भी बात करेगी कि केवल डाँटेगी ही" शास्त्री जी ने हंस कर फिर बात टालनी चाही... अच्छा बाबू कैसा है? शरारत उतनी ही है या स्कूल जाने से शैतानी कुछ थमीं भी है ?"
"पापा बाबू बहुत शैतान है"
तुझसे भी ज्यादा क्या? (शास्त्री जी ने ठिठोली की)
नेहा हँस पड़ी
"बाबू को लाना चाहिए था बेटा। वह आया होता तो पूरा घर भर जाता।"
"आपको तो स्कूलों झंझट पता ही है, दो दिन की भी छुट्टी में बच्चे पिछड़ जाते हैं और वो आता भी तो मुझे आपके पास एक भी मिनट बैठने नहीं देता।

पापा मैं आपसे कितनी बार कहा कि आप मेरे पास आ जाइये आनन्द भी हमेशा कहते हैं। लेकिन पता नहीं गांव के इस चार कमरे के मकान में क्या रखा है और न जाने कौन सा संकोच है जो आपके मेरे साथ रहने में आड़े आता है।"
"ऐसा नहीं है बेटा। अरे! जब तक हाथ पैर में जान है तब तक हूँ यहाँ...और यहाँ भी मेरा ख्याल करने वाले हैं ये बात अलग है कि यहाँ तेरे जैसे डांटने वाला कोई नहीं।" शास्त्री जी ने नेहा के सर पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए कहा।
"पापा आपको पता है  कि मुझे आपकी कितनी चिन्ता रहती है। आपने तो बाइस साल में मेरा ब्याह करके दायित्व से मुक्ति पा ली! मुझे एक नये परिवार का दायित्व सौंप दिया लेकिन आपका ख्याल रखना भी तो मेरा धर्म है।"
"रखती तो है मेरा ख्याल! अब कितनी फिक्र करेगी बेटा?"

"पापा मैं बस दो बरस की थी तभी अम्मा गुजर गयीं और आपने मेरी परवरिश में जाने कितनी परेशानी उठायी है।" इतना कहते ही नेहा के आँख से आँसू के दो बूंद झलक आये।
"अरे बेटा, जब मेरे प्राण तुझमें ही बसते है तो क्यों नहीं तेरा ख्याल रखता पगली!" और फिर पापा ने नेहा को अपने करीब कर लिया...

"पापा मुझे आपके बिना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, हमेशा आपकी चिंता लगी रहती है। देखिए न मेरी शादी के बाद से आपने अपना बिल्कुल ख्याल रखना छोड़ दिया, एकदम से कमजोर हो गये हैं ।" अब नेहा पापा का सर सहलाने लगी ।
"पापा आप समझते हैं कि मैं बिल्कुल नासमझ सी हूँ न! अभी भी तीन साल की छोटी बच्ची की तरह..। पहले तो शायद उतना न भी समझती थी लेकिन शादी के बाद मुझे पता चला की जिम्मेदारियों के बाद भी आपने जिस तरीके से मुझे पाला , उसको मैं बयाँ नहीं कर सकती। आप मेरी वजह से कितनी बार ड्यूटी पर लेट पहुंचते थे । आपको सुनना भी पड़ा होगा ! लेकिन आपने अपने व्यवहार से कभी जाहिर ही नहीं होने दिया की मैं आपको परेशान भी करती हूँ । वहीं आनन्द अगर पांच मिनट आफिस के लिये लेट होने लगे तो बिन नाश्ता किये निकल जाते हैं।
आप घंटों बैठकर मेरी बकवास सुनते थे और मैं एक ही सवाल बीस बार करती किन्तु हर बार आप मुझे बताते ... न कभी चिढ़ते और न ही झिड़कते ।
रात में मैं जिद करके रोने लगती तो आप मुझे अपने सीने से लगाकर घंटों दुलारते और मेरे सोने के बाद आप खुद भी रोने लगते । मैं आपकी उन सिसकियों और हिचकियों कम्पनो को अब भी महसूस करती हूँ तो आपके स्नेह की एक तरंग मेरे भीतर बिजली की दौड़ है और मैं खुद को निस्सहाय महसूस करने लगती हूँ। 
मुझे अभी भी याद  है , जब  गर्मी की छुट्टियों में मैं नानी के पास जाती थी तो आप वहाँ जाना नहीं चाहते थे।शायद अम्मा की गैरमौजूदगी आपको इजाज़त न देती रही हो! लेकिन आप हर हफ्ते गांव के चौराहे पर आकर मुझे मिलने के लिये बुलाते थे। मैं थोड़ा दौड़ना-कूदना चाहती थी किन्तु आप मुझे अपनी गोद में बिठाकर मुझसे बात करना चाहते थे । आप बार-बार मुझसे जानना चाहते थे कि कोई आप से भी ज्यादा तो मुझे स्नेह नहीं न करता ! आपकी प्रेम में मुझे जीतने की  प्रतिस्पर्धा बिल्कुल बच्चों जैसी थी और मुझसे मिलने के बाद आप तक तक खड़े होकर देखते रहते थे , जब तक मेरे होने या लौट आने की गुजांइश बची रहती थी ।" शास्त्री जी नेहा के प्रेम बादलों से घिरे , उसकी भावनाओं की बारिश में भीग रहे थे....बिल्कुल मौन.. कुछ पानी आँख के कोरों से पतली लकीर खींच बह रहा था ।

"पापा मुझे याद है ,जब मैं छोटी थी तो आप मुझे किसी रिश्तेदार के घर शादी में लेकर जाते तो बाहर आपका मन नहीं लगता । आप बार-बार घर के भीतर झांकते , मुझको खोजते..। मेरे खाने की चिंता,मेरे सोने की चिंता, मेरे शरारत की चिंता ...आपको बाहर बैठने नहीं देती थी। घर के भीतर बुआ और मौसी आपका मजाक बनाती कि 'जाइये भैया ! हम सब हैं न बहिनी के लिये' लेकिन आप यह नहीं स्वीकारते थे कि मैं बहुत प्यार करता हूँ अपनी बहिनी को। आप कहते कि 'बड़ी शरारती है । कहीं चोट न लगा ले..! आप कहते कि 'वो दूसरे के हाथ से खायेगी ही नहीं।' अगर बुआ मुझे अपने पास सुलाती तो आप समझाने चले आते थे कि 'रात में रजाई फेंक देती है ..देखना कहीं ठंड न लग जाये इसको..!' और मैं भी आधी रात को बुआ के पास से उठकर रोते हुई आपके पास चली आती थी..। आप मेरा इंतजार करते थे , क्योंकि आपको मालूम था मेरी नींद को बचपन से पिता की गंध और स्पर्श की उस नर्म बिस्तर से ज्यादा जरूरत थी । जिसके अवलम्ब पर पूरी रात निश्चिंत सोती थी मैं।"

"बेटा तुझको सब याद है । तूने तो मुझे पच्चीस साल पहले ले जाकर खड़ा कर दिया ! ऐसा लग रहा है कि आज फिर तू तीन साल की है और मुझसे लिपट कर सोयी हुई है। तेरे नन्हें से हाथ मुझे जोर से पकड़ने की कोशिश कर रहें हैं।"

"पापा , क्या मैं भूल सकती हूँ कि मेरे शादी का दिन निश्चित होने के बाद आप छुपछुप कर कितना रोते थे! आपकी आँखें हमेशा सुर्ख रहती थीं ! बिदाई मेरी होनी थी लेकिन मेरे हिस्से के आँसू भी आपने अपनी आँखों से गिराये और मैं हमेशा हिम्मत देती...। खुद नहीं रोती क्योंकि उस वक्त आप बच्चे की तरह हो गये थे। आप मौसी से , बुआ से , मामी से पूछते रहते कि कहीँ बक्से में कोई चीज घट न जाये और लोग इल्ज़ाम लगा दें कि बिन माँ की बिटिया है यह..! आपसे जो भी कुछ कहता आप बिना किसी सवाल-जबाब के पूरा करते... कितना कुछ किया है आपने मेरे लिए पापा...! मैं कैसे भूल जाऊं कि आज आप बीमार हैं और मैं आपसे दूर हूँ । मैं सोचती हूँ कि कहीँ ऐसा न हो कि मेरे पापा को कुछ हो जाये और मैं जान भी न पाऊँ....!" नेहा के गाल से आंसू पिता के सीने को तर कर रहे थे और पिता के आंसूं तकिये को।

नेहा भावनाओं के समुद्र में तैरते-तैरते थक गयी तो पापा के सीने पर ऐसे गाल रख दिया , जैसे लंबी तैराकी के बाद किनारे की रेत पर थक कर लेटा हुआ कोई शख्स । 
शास्त्री जी नेहा के बालों में उंगलियां फेरते हुए नेहा के आंसू पोछते हुए बोले- "बेटा, आदमी भी न बिल्कुल मिट्टी के खिलौने की तरह होता है। याद है न जब तुम छोटी थी तो अपने मिट्टी के खिलौने से कितना प्यार करती थी ! तुम नहीं चाहती थी कि तुम्हारा खिलौना कभी टूटे । एकदम सम्भाल के रखती थी । किसी को छूने तक नहीं देती थी। लेकिन जाकर अपने कमरे में देखो तुम्हारा एक भी मिट्टी का खिलौना बचा है क्या !? मुझे याद है कि तुम कभी-कभी अपने हाथ में खिलौना लेकर सो जाती थी और नींद में तुझे पता ही नहीं चलता था कि तेरे हाथ से कब खिलौना छूट कर टूट गया। पगली, सब टूटने हैं, बिखरने हैं और फिर इसी मिट्टी में मिल जाने हैं। कुछ दिन मिट्टी पर खिलौने का रंग भी दिखेगा और एक दिन वो भी मिट्टी के रंग का हो जायेगा।
बेटा ऐसा नहीं है कि तुम्हारा वो खिलौना टूट गया तो कोई और खिलौना नहीं आया ! तब से लेकर अब तक कितने खिलौने मिले, टूटे बिखरे... आज बाबू पूरे घर का खिलौना है , जिसे तुम सब सम्भाल कर रखते हो।
अब देख न ! मैं भी तेरे लिए एक खिलौना ही न हूँ ! तू मुझे सम्भाल और छुपा कर रखना चाहती है। कल तू भी बूढ़ी होगी और बाबू के लिये इक खिलौना बन जायेगी।"
"अच्छा तो आज मुझे आप बहका नहीं सकते । मुझे न तो अपना खिलौना अपने हाथ से छोड़ना है और न ही सोना..।"
"हा हा हा ! पगली जब तू छोटी थी, तब भी यही कहती थी लेकिन पलक झपकते ही मुझे पकड़ कर सो जाती थी और खिलौना छूट जाता था ।"
नेहा शास्त्री जी की बात से भयभीत होकर उनके पास दुबक कर धीरे से बोली "पापा मुझे सोना ही नहीं । अपने खिलौने को देखना है अपनी मुट्ठियों से कस कर पकड़े रहना है।"पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आश्वस्ति दी "पगली कहीं की!" 

आज बहुत सालों बाद नेहा फिर बच्ची बन गई थी । पिता की वो अपनी सी गन्ध, जिसके बिना नींद कहीं बिस्तर के कोने मे छिपी बैठी रहती थी । आज फिर नेहा तीन साल की हो गई थी .... भावनाओं का बहुत बड़ा बक्स खोलकर उलटने-पलटने में थकी नेहा नींद में कब बहने लगी कुछ पता न चला।
श्रीकांत जी के भीतर फिर से जीने की चाह लौट आयी। ऐसा लगा कि अभी दायित्व मुक्त नहीं हुये हैं । आज ऐसा महसूस हुआ कि नेहा अब भी तीन-चार वर्ष की है। श्रीकांत जी ने अपना ऐनक निकाला और नेहा को बराबर में सुलाकर उसके बालों को सहलाते हुए नींद में खो गये।

रात गहरी हो रही थी। नेहा यादों की नाव खेवते नींद की नदी में पतवार संभाले दूसरी ओर चली जा रही थी। पूरी नाव खिलौने से भरी... दो-तीन खिलौने उसकी गोद में चिपके से थे । नदी तेज बह रही थी ... चांद का मद्धिम प्रकाश लहरों की सिलवटों पर अठखेलियाँ कर रहा था.. नेहा अपनी दुनिया में खोई नाव के साथ बही जा रही थी। अचानक आकाश में बादल छाने लगे .... फिर तेज गरज के साथ बारिश होने लगी.... उसने पतवार तेजी से मारना शुरू किया .... तभी उफनती नदी में कोई भयावह दैत्याकार आकृति दृष्टिगोचर हुई ... जैसे कोई विशालकाय मगरमच्छ ! आकृति की आंखें सुर्ख लाल थीं.... जैसे मगरमच्छ के कटोरों में भेड़िये की आंखें फिट कर दी गयी हों ! उसे लगा कि वो भयावह आकृति उसके खिलौने निगल जाना चाहती हो ! उसने पतवार पर मजबूती से हाथ जमा दिए । 'कुछ भी हो जाये लेकिन वो अपना खिलौना इसके जबड़ों में जाने नही देगी!' उसने दृढ़ता से विचार किया और तेजी से किनारे की ओर पतवार चलानी शुरू की । लेकिन तेज बारिश में किनारे का छोर धुंधला पड़ रहा था.... सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं.... पतवार मन भर की भारी होने लगी... बाहें पस्त हो रही थीं ! 'हे भगवान!' आकृति का शरीर विकराल और जबड़ा उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है !! अचानक जबड़ा फैला और आकृति उसे नाव समेत निगलने को हुई.... वो आखिरी बार दम लगाकर चीख पड़ी - "पापा, मुझे बचाओ! मैं सोयी नहीं थी पापा मुझे तो केवल एक झपकी सी आयी थी । पापा उठिए !"
अन्तिम शब्द चीख जैसे कमरे की दीवारों से टकराये "पापा उठिए ...पापा उठिए. !"
श्रीकांत शास्त्री चौंक कर उठे और नेहा के कंधे को झकझोर कर बदहवास से बोल उठे- "क्या हुआ बेटा ?"
"पापा कोई मुझसे मेरा खिलौना छीन रहा था ...पापा बहुत डर लग रहा है!"
शास्त्री जी ने नेहा को सीने से लगाकर कहा-
"बेटा तेरा खिलौना तेरे हाथ में है । छूटा कहाँ है ?
पापा तेरे पास हैं बेटा!"

नेहा दुःस्वप्न से लौट चुकी थी । अपने खिलौने को अपने हाथ में लेकर सिसकियाँ भरते... अपने पापा के पास !

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर

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