जिनकी जवानी देख, हम जवान हुए, उन पर अब बुढापा आ गया है और सूर्य को देख उन्होनें एक-एक कर अपने कपड़े उतार कर उनके सामने बइठकी शुरू कर दिया है, अपने-अपने पद के अनुसार सब बैठ गए हैं- त सुर्ती बनो!
का जाने जी, अब जाड़ा ढेर पड़ऽता, कि उमिरिया ढेर हो गयिल, कुछ बुझाते नयिखे। पर्यावरणों खराब हो गयिल बा, ना त हमनिके जमाना में आतना जाड़ काहाँ परल करे, दुअरा के ओसारा में पुअरा के पहल डाल के एगो दरी बिछा के आ एगो भेंड़ के ऊनी कम्मर में चद्दर सटा के ओढि लीहला पर बिछौना में जइसे आगि फूँका गयिल होखे, एतना गरम हो जाव, होत बिहाने चार काठा ऊखि कोड़ लीहला पर जाड़ नपाता हो जाव, तीषी के कसार, सोंठ के कसार, तिल के लड्डू, ऊ गरमी बान्ह देव जाड़ा में कि ठंढा का ह पत्ते ना चले।
अब त जरसी ह, त ई ईनर ह, त ई जाकिट ह कूल्ही पहिर ल तबो जाड़ जाते नयिखे। कउड़ा, बोरसी त अब लउकते नयिखे, ना त इहे जाड़ा के राति ह, ओ लमहर राति में बाबू जी के नीन तनि अनुगताहे टूट गयिल एकबेर, उहाँ का पानी पीयनी, सुरती बनवनीं आ, आ के कउड़ा किहाँ बइठ गयिनीं, बड़ी राति बीतलो पर जब केनियों कौनो सुनगुन ना मिलल त उहाँ का बुझि गयिनीं कि अभी रात ढेर बे, तले काकाजी आ गयिनीं-
सुप्रभातम् बंधुवर!
ब्राह्मणों की जिस यज्ञशाला से कभी ब्रह्ममुहुर्त की बेला में वैदिक मंत्रों के साथ अगर, धूप, चन्दनादि की धूम्र निकलती थी, आज उसी यज्ञशाला से होकर जब मैं हेमन्त के इस पावन बेला में पाराशर महर्षि निर्मित कोहरे के रस विलास में विभोर होता हुआ, सरोवर की ओर शौचादि से निवृत हो, किसी कामिनीकाय कान्तार में रमण कर, पुनः एक नवीन कृष्ण द्वैपायन व्यास के प्राकट्य हेतु अभिसार का प्रयोजन करूंगा तो इधर आपकी कुटिया में देखता क्या हूँ कि बुझे हुए अग्निकुंड के पास जैसे कोई वाममार्गी पतित तारादेवी की तंत्र साधना में तल्लीन किसी सम्मोहिनी साधना में भस्मराग लपेटे विराजमान है। किंतु यहाँ आपको पाकर मैं हतबुद्धि हो गया, हे धर्मराज? कुल बांधव ज्येष्ठ?? श्रेष्ठ??? अब ब्राह्मणों की तपश्चर्या में वह शक्ति कहाँ जो फिर कोई देवराज उस कामातुराभृषा
मेनका को पुरुषकील भंग हेतु पठाए? पुनश्चः इस रात्रि जागरण का हेतु क्या है? वैद्यराज धनवन्तरि, सुषेण की कृपा तो है न?
- हाहाहाहाहा........ शुभं भो तात् तवागमनम्! वाचस्पति तहार सुरती ओरा गयिल बा का? आव बइठऽ।
- अग्रज चुटिकाप्रसादाभिलाषी हूँ देव।
- हाहाहाहा...... कादम्बरी पढि के आवताड़ऽ का?
काका जी कउड़ा किहाँ बयिठ गयिनीं आ एगो लकड़ी से आगी के उटकरेनीं, आहि हो दादा....... जयिसे बाचस्पति जी अगिया के खोरनीं की ना, हऊ एगो करिक्का कुकुरा याद बा कि ना हो टीपुआ..... आरे जवन बाबा के परवाही बलिया ले गयिल रहे...... उहे ओ कउड़वा में सुतल रहे, अब जइसे काकाजी खोरलन बस उनकरा ऊपरे कूदि के चलल भाग। काका जी त भर मुहें माटी ले लीहलन। हाथ गोड़ झारि के मय संस्कीरित भुला गयिलन आ लगलन पढे - दुर ससुरा एकरी माइ के कुकुर साला छू दीहलस, अब खिचड़ी से पहिले ही एगो स्नान लेबे के परी, आरे राम जी राम जी घाम करऽ सुगवा सलाम करी, कउवा असनान करी।
भाई हो जाड़ा के आपन एगो अलगे लीला ह-
रूई, कि धुँई कि दुई। आरे इहे जाड़ नु ह जी जब सर्वेश तिवारी श्रीमुख भोरे - भोरे धोबिन के लादी में लुकाइल रहलीं!
- लुकाइल रहनीं की धराइल रहनीं?
- बे ई कुल ना कहल जाला...... उ त फिल्मी गाना बा नू..... मन ले गयी रे धोबिनिया रामा कइसा जादू डार के......
- बे ऊ धोबिनिया ना जोगिनिया नु ह, आपके श्रवणेंद्रिय में सुरुवे से पराबलम बा।
- परा बलम?
- चुप चुप चुप....... बशिष्ठ जी के जेठका एनिये आवता...
- तब बूझीं सभे जे अश्वस्थामा बोललस.......
मैं बोला- गोड़ लागिलें सभका के!
आव आव बयिठऽ- कहऽ कुल हाल चाल?