अकेला पेड़ था मोहल्ले का जिसपर हर कोई झूला डालकर ऊंचाइयों को हासिल करके खुश होने आनंद प्राप्त कर सकता था। क्या लड़कियाँ, क्या लड़के मोहल्ले के सभी उस नीम के पेड़ पर नारियल के जूट की मोटी रस्सी से लकड़ी के पट्टे को सुबिस्ते से बांधकर आसमान की ऊंचाइयों को प्राप्त करने का मौका ढूंढ़ते।
'कुम्भना' हाँ यही वह नाम था जो झूले को थोड़ी ही देर में एक तरफ से दूसरी तरफ की ऊंचाइयों तक पहुँचाता था। झूले को दोनों तरफ से कुम्भने वाले की ताकत की जोर-आजमाइश देखने का अपना एक अलग ही मजा था। "
शोर-चिल्लाहट, डर, रोना-हँसना सब कुछ था उस झूले के पट्टे पर।"
जिसे आजमाना हो वो बैठ ले।
कितनी ही बार रस्सियाँ टूटीं पर झूलने वालियों की हिम्मत कभी नही टूटती। अपनी बारी के इन्तजार में खड़ी झुलनवालियों का धैर्य देखकर आश्चर्य होता। हो भी क्यों न आखिर और अन्य किसी खेल में वो मजा ही कहाँ था?
लकड़ी पटरे का झूला इतना बड़ा होता की एक बार में उसपर कम से कम 5 से 7 लोग तो बैठ ही सकते थे और उसको झुलाने वाले दो लोग अलग से। पेड़ की सबसे मोटी डाल पर हर साल रस्सी बांधकर उसे झूले को लगाने के लिये मोहल्ले के लड़कों की बड़ी भूमिका होती थी। बड़ी मेहनत का काम भी तो था, एक दो लोगों के बस की बात तो थी ही नहीं।
दोपहर बीतते ही मोहल्ले के लड़के-लड़कियाँ झूले के पास झुण्ड के झुण्ड पहुँचने लगते। कोई न रोकने वाला, न कोई टोकने वाला। थोड़ी ही देर झूला अपने हद की ऊंचाइयों को पर करने की कोशिश में लग जाता। वह नीम का पेड़ भी उसी सुर-ताल के संग झूमता जिस सुर-ताल में सखियाँ सावन महीने में, तीज के गीत गाया करती थी। उनके गीत के सुरों की लय, झूले और नीम के साथ मिलकर अद्भुत दृश्य बनाती। सबकुछ अलौकिक ही लगता।
बरसों बीत गए अब तो वह नीम का पेड़ भी नहीं रहा। समय के साथ बूढ़े होते नीम के पेड़ को आँधी-तूफानों ने उसकी इहलीला समाप्त कर दी। आज मोहल्ले में कई पेड़ हैं, पर उस नीम के पेड़ जैसे नहीं। अब कोई भी सावन का इंतजार नहीं करता। अब कोई झूलने की बात नहीं करता।
"अब कोई एक दूसरे से भी बात नहीं करता, सब कुछ शापित सा हो गया है, गाँव अब कस्बा बन गया है।"
कौशल शुक्ला