मुर्गा.................. ऊंची कलगी वाला डेढ़ फुट का गबरु....

Update: 2017-06-26 02:27 GMT
आइए आपको एक किस्सा सुनाते हैं- मेरे एक चाचा हैं जो अपने जवानी के दिनों में एक मुर्गा पाले थे..... मुर्गा का पाले थे कहिए चूजा पाले थे, सौभाग्य से वह मुर्गा निकल गया... ये लम्बी और ऊंची कलगी वाला डेढ़ फुट का गबरु... चमकीले तीन रंगों से सजा.... पीली नोंकदार चोंच। हरदम चौकन्ना.. चकल्लस मूड में।
मुर्गा दिनभर मुहल्ले में चरता और बाँग देता चाचा के मुंडेर पर! उसकी इसी स्वामिभक्ति पर लोग कहते कि इ फलाने का मुर्गा है। वजन में भी पंख रहित दो किलो से तनिक ही कम ठहरता.... उसके वजन और सौन्दर्य पर,पर-पट्टीदार की नजर टिकी रहती.. गाहे-बगाहे कुछ मुर्गा प्रेमी चाचा के सामने नीलामी भी खोल देते लेकिन चाचा कभी टस से मस न हुए। खैर, मुर्गा अपनी जवानी में गोते लगा रहा था और उधर एक बिलारा उसके फिराक़ में महीनों से शिकार में लगा था। दो-तीन बार तो बिल्ले ने छलांग भी लगायी लेकिन मुर्गे की केजरीवाल जैसी कलाबाजी से धोखा खा गया लेकिन एक दिन बिल्ले ने साध कर निशाना मारा और मुर्गे की गरदन जबड़े में आ गई। मुर्गे ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी लेकिन अफसोस की वह काल के जबड़ों से मुक्त नहीं हो पाया। मुर्गे के पंखों की फड़फड़ाहट और चाचा की मुर्गे से मोहब्बत ने मुर्गे की आखिरी चीख को चाचा के कान तक दस्तक दे दी.....
चाचा ने एथलीट वाली दौड़ लगायी लेकिन आह! तब तक देर हो चुकी थी। चाचा ने किसी तरह मृत मुर्गे को क्रूर जबड़े से आजाद कराया। तब तक तमाशबीनों की भीड़ इकट्ठा हो गयी.... जनता ने बिल्ले को भद्दी-भद्दी गालियों से नवाज़ा। चाचा को मृतक मुर्गे के लिये सान्त्वना भी परोसा। चाचा की आंखें नम हो गयीँ। मामला इत्ता गमगीन हो गया कि बस अन्त्येष्टि जैसा माहौल बनने लगा लेकिन कुछ शुभेच्छुओं ने चाचा को समझाया कि जो होना था वह हो गया। इसको इतनी ही जिन्दगी मयस्सर थी। पूरा दो किलो का ताजा मुर्गा है,फेंकने से अच्छा है कि पतीली चढ़ जाये। जनता भी इसी फैसले के समर्थन में थी क्योंकि सबको अपने-अपने हिस्से की दो बोटी की लालसा थी..... चाचा ने भी मुर्गे के दाम और वज़न के जोड़-घटाने मे पंच के फैसले को शिरोधार्य किया लेकिन इस शर्त के साथ की मैं इसको गले के नीचे नहीं उतारुंगा..... खैर! मुर्गा कटा....पतीली पर चढ़ा और लगी वातावरण मे इसकी देशीयाना खूशबू फैलने....कुछ देर तक तो चाचा अपने को रोके रहे लेकिन शीघ्र ही चाचा की लार ग्रन्थियां बगावत करने लगीं.....उदर की आग ने मोहब्बत पर कफन ओढ़ाना शुरू कर दिया। लोगों ने भी समझाया कि जब तक आप नहीं खायेंगे तब तक मुर्गे की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। तर्क और क्षुधा की अग्नि के गठबंधन ने चाचा को ले जाकर रसोई की पीठिका पर बैठा दिया। चाचा जब मुर्गे का पहला निवाला तोड़े तो उनकी आंख भर आयी... कसम से खूब रोये। लेकिन तोड़ के खाये भी। कोई अवशेष भी न बचा कि पुरातत्व वाले भी खोज पायें कि यहाँ मुर्गा मरा था। वास्तव में मुर्गे की कुर्बानी ज़ाया नहीं गयी। वह बहुतों के निवाले और उदर की आग को तृप्ति दे गई। उनके एक रात के स्वाद, पोषण और चमक में मुर्गा चार-चांद लगा गया।
खैर छोड़िए... ये तो हुई मुर्गे और चाचा की बात लेकिन जरा सोचें ! जो हमारे देश-प्रदेश में जघन्य घटनाएँ घटित हो रहीं हैं। बलात्कार और अत्याचार जैसी घटनाओं में जो पीड़ित लोग हैं क्या वो केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा के निवाले तो नहीं बनते जा रहे?....लोग आंसू भी बहा रहे हैं और पीड़ितों की भावनाओं का निवाला बनाकर अपना वोट बैंक वाला पेट भी भर रहे हैं। जनता को मुर्गा बना दिया साहब इन जैसे लोगों ने। जान भले चली जाये ....इज्ज़त-आबरू भले लुट जाये लेकिन इनका पतीला न चढ़े, भला यह कैसे हो सकता है!
पीड़ितों के जाति-धरम के हिसाब से लोगों की संवेदन ग्रंथियाँ संवेदनाओं का उत्सर्जन करती हैं। हर जगह खेमेबाजी है। सभी को पता है कि किस मुर्गे में हमें दो बोटी का लाभ है....
हां मुर्गों का कसूर बस इतना सा है कि खाता वह अपने घूम-चर के है लेकिन गलती से बाँग देने फलाने के मुंडेर पर चढ़ जाता है और फलाने कहते हैं कि इ हमार मुर्गा है....

रिवेश प्रताप सिंह

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