नाती के शब्दों में बाबा के जमाने की कहानी।१। "जुग"

Update: 2017-06-26 05:02 GMT
हाँ तो साहब, यह बाबा के जमाने की कहानी है, सिर्फ मेरे बाबा नहीं, हम सब के बाबाओं के जमाने की कहानी है यह। आजादी के दो दशक बाद की बात है, सन 65 से 70 के बीच का कोई साल रहा होगा। आज का गोपालगंज जिला तब छपरा जिला हुआ करता था।घोर गरीबी का काल था साहेब, साल के बारहों महीने गांव के आधे घरों में शाम को चूल्हा नही जल पाता था। आज कल दस बीघे जमीन वाले जमींदार बने फिरते हैं न, उस जमाने में बीस बीघे वाले के घर भी इतना अनाज नही होता था कि दस बेकत का भोजन बारहों महीने चल जाय। सामंतवाद भी खूब था, गरीबों के घर सालो भर "कोदो" का भात बनता था, जबकि गांव के दो तीन सामंतो के घर वह सुख था, कि धान के चावल का भात कातिक और अगहन दो महीने तक खाया जाता था। उसके बाद वे भी कोदो ही खाते थे। दाल भात सब्जी और ऊपर से चटनी या चोखा तो गांव में किसी के घर नही बनता था हुजूर, यह राजा-महाराजाओं की चीज होती थी। आज कल अपने आप को जमींदार का बेटा कहने वाले बाभनों को बताने में शर्म आएगी, पर यह साढ़े सोलह आना सच है, कि किसी बड़े हजार- दो हजार बीघे जमीन वाले जमींदार के घर कोई श्राद्ध न पड़े तो पंडीजी को दस दस साल तक जलेबी के दर्शन न हों। और रहे गरीब, तो हाकिम, समझ लीजिये कि इस पावन धरा से लाखों करोड़ो लोग ऐसे बिदा हुए कि उनको सारी जिंदगी में कभी मिठाई खाने का बदा नही हुआ।
हाँ, तो उसी जमाने के एक गांव में एगो थे किरोधन पाण्डेय। गांव का नाम बाद में बताएँगे, अभी इतना जानिए कि बड़ी गरीब गांव था। हाँ साहेब, उस जमाने में गांव भी गरीब,अमीर होते थे। जिस गांव माटी उपजाऊँ थी वह अमीर, और जहां की माटी उंचास, ऊसर, भा बजड़ थी वह गांव गरीब। तो भैया, किरोधन पाण्डेय का गांव गरीब था क्योंकि उनके गांव में उपज कम होती थी। "कठे अंवासी बिगहे बोझ" वाला मामला था, एक बीघा का अनाज एक बड़े बोरे में समा जाता था। अब किरोधन पाण्डेय जाति से भले सामंत हों, औकात से दलिद्दर ही थे। अनाज उपजने के एक डेढ़ माह में ही खत्म हो जाती थी, बाकी समय इधर उधर से झींट-झपोट के काम चलता था। आपको लग रहा होगा साहेब कि लेखकवा झूठ बोल रहा है, तो अपने गांव- टोला के किसी बुजुर्ग पुरनिया से पूछ कर जाँच लीजिये, बात एकदम पक्की है।
हाँ तो जिस दिन की बात है, उस दिन पाण्डे जी के घर के चूल्हे को बेमियादी हड़ताल किये तीसरा दिन था। तीन दिन के उपास में घर भर की अंतड़ी झुरा गयी थी। तो दोपहर में पांडे जी बगल के गांव के एक जमींदार के यहां गए और दिन भर उनका जय जयकार मनाये। उस जमाने में किसी भी बड़े आदमी के घर के आगे एक बड़े पेंड के निचे दिन भर चौपाल लगती थी, और लोग बाग बैठ कर दिन भर झूंठ गांजते रहते थे। तो पांडे जी भी दिन भर बैठ कर चमचई बतियाये और बदले में शाम को एक रुपया पा कर धन्य हुए। एक रुपया ले कर पाण्डे जी इसी गांव के कबूतर मियां के घर गए और एक रुपया का पांच सेर मतलब ढाई किलो बाजरा खरीदे। पंडीजी चाहते तो किसी बाभन राजपूत के घर से भी खरीद सकते थे पर बभनइ शान को बट्टा लगता। सो छिप कर मियां जी के यहां से ख़रीदे और भागे भागे घर पहुचे।
शक मत करना साहेब, अच्छर अच्छर सही कहानी है। पांडे जी के घर पहुचने पर तुरंत जांत में बाजरा पीसा गया और रोटियां बनी, चूल्हे की हड़ताल तीन दिन पर टूटी थी। रोटियां बनीं, और पहली थाली पांडे जी के आगे आई। उस जमाने में घर के बड़े बुजुर्ग घर में नहीं, दुआर पर खाते थे। तो पांडे जी दुआर की चौकी पर खाना रख कर हाथ धोने के लिए दो कदम इधर उधर हुए तबतक एक कुत्ता................
हाँ साहेब, एक कुत्ते ने थाली में मुह डाला और दोनों रोटियां उठा ले गया। अब तनिक सोचिये तो, तीन दिन उपवास काटने के बाद एक आदमी के आगे दो रोटियां आयीं और उसे भी कुत्ता ले जाय तो उसके मन की हालत क्या होगी?
पांडे जी के अंदर की भूख गरजी- किसका कुकुर है रे यह? तो पता चला- सुरेसवा हजाम का कुकुर है। हजाम का नाम रेकार से साथ लेने के लिए लेखक को दलित विरोधी मत समझ लीजियेगा हुजूर, सच तो यह है कि उस जमाने का पूरा सामंतवाद यही था कि सवर्णों के नाम आदर से लिए जाते थे और पिछड़ों का नाम रे लगा कर, नही तो दुःख तो दोनों बराबर ही काटते थे।
तो पांडे जी उठाये लाठी और जा कर बिना पूछे-ताछे सुरेसवा हजाम को लगाये हुमच के एक लाठी। बेचारा हजाम तिलमिला गया। अब पंडीजी को यह तो पता था कि हम तीन दिन से नही खाएं है, पर यह नही पता था कि ससुरा हजाम चार दिन से नही खाया है। चार दिन का भूखा हजाम लाठी खा कर गुस्से से तिलमिलाया और छुरा उठा कर पांडे जी की गर्दन में भोंक दिया। गांव में हल्ला मचा, लोग बाग पांडे जी को खटिया पर लाद कर बगल के गांव में डाकदर के पास चले और उधर हजाम उसी समय गांव छोड़ कर भाग गया।
उसके बाद की कहानी बस यह है कि पांडेजी आधे घंटे में मर गए।
उसके बाद गांव वाले सुरेसवा हजाम को खोजने में लगे। उसकी सारी रिस्तेदारी में खोज होने लगी और रिश्तेदारों को धमकी मिलने लगी। चार पांच दिन के बाद उसके ससुराल के गांव के पोखरे में एक लाश दिखी तो लोगो ने पहचाना- यह तो फलनवा गांव का सुरेश हजाम है।
आप सुरेश की लाश में भय या पश्चाताप जो देखिये, आज की हालत यह है कि दोनों के घरों में दो सौ रूपये किलो की दाल खरीदी जाती है, वह भी बिना किसी चिंता फिकिर या भय के।
वो एक जुग था साहेब।
अरे हाँ, हमने आपको गांव का नाम तो बताया ही नहीं। छोड़िये, सब गांव एक जैसे थे, आप अपना ही गांव मान लीजिये।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार

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