"दबंगई"

Update: 2017-06-29 10:32 GMT
शाम के तियना लियावे खातिर हम निकलनी त घर के सामने वाला मोड़ पर बड़ा भीड़ रहे. शायद ठेला पर कुछु बेचात रहे. उत्सुकता बश हमार कदम बाजार ना जाके भीड़ के तरफ बढ़ गईल. टोला मोहल्ला के लईका और औरत लोग के हुजूम लागल रहे.
"का बेचाता, बड़ा भीड़ लागल बा." हम पूछनी.
"जलेबी चाचा." पट्टीदारी के एगो लईका कहलस "जलेबी जल्दी द हो."
"सबसे पहिले जलेबी हमके दिह, नात काल्ह से जलेबी ना बेच पयिब!" गाव के पुराना दबंग जीतेन्द्र के लडिका चुन्मुन्वा जवन की करीब सतरह साल के होई रौब से कहलस.
जलेबी बेचे वाला कुछु उत्तर ना देहलस और हमरा के बड़ा गौर से देखे लागल. शायद उ हमके चिन्हे के कोशिश करत रहे. हमके भी ओकर चेहरा कुछ जाना पहिचाना लागल. पर हमरा पहिचाने से पहिले ही उ हमके चिन्ह गईल.
"बाबू रौवा." उ चिहा के ख़ुशी से कहलस " केतना ढेर दिन पर दर्शन होता."
हमहू ओके चिन्ह गईनी. उ त कबाड़ी लेके फोफी बेचे वाला बेचुवा रहे.
"बेचू तू. तू त एकदम चिन्हाते नईख. कबसे तू जलेबी बेचे लगल?" एक साथै कईगो सवाल पूछ देहनी हम.
"पाच साल से ढेर हो गईल. पर रउवा अब गावे कहा रहते बानी की जानेब. लेकिन बड़ा ख़ुशी के बात बा की रउवा से भेट भईल. रुकी रौवा के हम गरमा गरम जलेबी खियावतानी." बेचू भाव बिहल होके कहले.
"पहिले हमार जलेबी द" चुन्मुन्वा फिर पुरनके टोन में कहलस" नात ?"
"नात का तोप से उड़ा देब." बेचुवा कहलस "गावे में ना बेचे देब. कवनो बात ना हम ना आएब बेचे पर जलेबी त सबसे पाहिले इहा के ही खियायेब."
चुन्मुन्वा के चेहरा गुस्सा से लाल हो गईल.
"काहो इहे लंठई सिख तार" एकरा पहिले की उ कुछ कही, हम कहनी "पढ़े लिखे के उमर में दबंगई करतार"
"बाप त क के हार गईले. अब इनकर बारी बा." गाव के एगो भौजाई कहली. आपन बेइज्जती होत देख उ सरक लेहलस.   
बेचू जलेबी छाने में मगन हो गईले और हम अतीत के याद करे में.

      इंटर के परीक्षा देके हम एकदम खाली रहनी. पढ़े लिखेवाला लईका आगे के पढाई और बढ़िया स्कूल के एडमिशन के तैयारी में लागल रहल सन त हमरा जैसन लोग रोज तरह तरह के फालतू सपना देखे में. क्रिकेट भी ओ घरी एतना ना होखे और चिका बाणी, ओल्हा पाती ना खेले के माई के आदेश रहे ऐ वजह से गर्मी में दिन काटल मुस्किल रहे. कुछ दिन ताश भी खेलनी पर हमके अयिमे मजा ना आवे. बार बार मन बस लंठई लोफरयी के तरफ जाऊ. जब जब गाव जवार के दबंग कुल के रौब दाब और इज्जत देखि त मन करे की हमहू दबंग बन जाई. जेतना इज्जत एगो दबंग रहे ओतना इज्जत नात गाव के मुखिया रहे ना गाव के सबसे बरिष्ठ नागरिक सर्वजीत बाबा के. यहाँ तक की थाना के दरोगा लोग भी दबंग कुल से इज्जत से पेश आवे लोग. शरीफ आदमी डर से सामने कुर्सी पर ना बैठे लोग पर दबंग के बैठे के कुर्सी जरूर मिले. कुल मिलाके दबंग के आगे इंजिनियर, डॉक्टर सब लोग फेल रहे. ओ घरी गाव जवार के लोफर कुल के आदर्श रहले जीतेन्द्र उर्फ़ जीतू दादा जवन की हमरा गाव ही न बल्कि जवार के सबसे बड़का दबंग रहले. वैसे त उ उम्र में हमसे १० साल बड रहले और पूरा गाव उनके सलाम ठोके, पर उ हमके सलाम करस काहे की हम रिश्ता के उनकर चाचा रहनी. जबभी उ हमके गोड लागस हमके बहुत गर्व होखे और काहे ना होई, जवना आदमी के सारा जवार सलाम ठोके, उ हमके सलाम ठोके, भले रिश्ता के वजह से ही काहे ना.
  कई दिन से मन में दबंग बने के उधेड़बुन चलत रहे की हमके बुलबुलवा के चिठ्ठी मिलल. तिन दिन बाद उ आवत रहे. अब त हमरा ख़ुशी के ठिकाना ना रहल. दबंग बने के सारा असमंजस ख़तम हो गईल. दबंग बनला के लेके जवन भी डर मन में रहे, निकल गईल. सच बात त इ रहे की हम एतना हिम्मती ना रहनी की अकेले दबंग बन सकती. पर अब हम अकेले कहा रहनी. एक से भले दो होखे वाला रहनी, बुलुबुलवा जे आवत रहे.
               बुलबुलवा रिश्ता में हमार भांजा लागे और चचेरा बहिन के लईका रहे पर हम उमर भईला के वजह से हमनी में दोस्ती के रिश्ता रहे. गर्मी के छुट्टी में उ हमेशा ममहर आवे और इ हमनी के जिंदगी के सबसे यादगार दिन होखे. तरह तरह के सपना बुनत, खेलत कुदत कब समय बीत जाऊ पता ही ना चले और जब उ जाऊ त जिदगी में जवन उदासी होखे ओके शब्दन में बयान कईल मुस्किल बा.
       वैसे त दबंग बने के योजना हमार रहे पर बुलबुलवा के सहमती ना मिली एकर त सवाल ही ना रहे. बचपन से लेके ओइदीन तक कबो ऐसन ना भईल रहे की उ कवनो हमार बात ना मानले होखे या हम ओकर.
एकर अलावा दबंगई त बुलबुलवा के स्वाभाव में ही रहे. ओकर बस चलित त पूरा गर्मी के छुट्टी मार पिट में ही बितित. हर बार हम ओके रोकी पर लाख रोकला के बाद भी दू तिन गो झगडा उ जरूर खरीद के लियावे.
अब हमके बस तिन दिन इन्तजार रहे और उ दिन भी आ गईल जब बुलबुलवा के आगमन भईल. बिना देर कईले हम ओके आपन योजना बतवनी और उ आपन सहमती दे देहलस.
दबंगई के शुरुआत में केहू के पिटाई जरूरी रहे. तबे नु दबंग भईला के सर्टिफिकेट मिलित. पर हमार बिचार रहे की दबंगई के शुरुआत खूब ठीक से योजना बना के करे के चाही, जबकि ओकर कहनाम रहे की शुभ काम में देरी का.
अबे चल और केहू के पिट दिहल जा. गाव में सब लोगन से हमार रिश्ता बढ़िया रहे ऐ वजह से गाव के झगडा कईला के सवाल ही ना रहे. बाजार में भी इहे हाल रहे. पर दबंगई खातिर केहू के त पीटल जरूरी रहे. फिर हमार नजर गाव में आके बेचेवाला कुल पर पडल. जितेंद्रा के दबंगई भी त एकनियेपे चलेला और डरे ओसे एको पैसा ना लेला लोग. इ प्लान ठीक रहे. पर गाव में बेचे त ढेर लोग आवे. वोइमे से एके आदमी नियमित रहे, भुजा बेचेवाला प्रहलाद. बाकी लोग के कवनो फिक्स तारीख ना रहे और हमनी के लगे इन्तजार करे के समय ना रहे. त फिर प्रह्लाद से ही शुरू कईल जाऊ दबंगई. बुलबुलवा तुरंत उनका नाम पर आपन सहमती दे देहलस. लेकिन हम तनी ध्यान से सोचनी त हमके इ ठीक ना लागल. एक त प्रहलाद के उमर ५० से ऊपर के रहे. ऊपर से उ स्वाभाव के एतना बढ़िया रहले की सबके रउवा ही कहस. केहू पईसा देऊ या ना पर उ भुजा सबके खीयावस. अइसन आदमी से झगडा कवनिगा होई और कही झगडा हो भी गईल त उ शरीर में बहुत हठठा कठ्ठा रहले. जवानी में उ अखाडा में लड़स. हमरा और बुलबुलवा के उ अपना एके काख में दबा सकत रहले. दबंग बने के चक्कर में जवन कुछ इज्जत रहित उ जिंदगी भर खातिर चल जाईत. अगर कही हमनी के बीस पड़ भी जयिती जा त झगडा भईला पर मारपीट के नौबत आयित और एतना बढ़हन आदमी के मारला पर त पूरा जवार में थूथू होखे लागित. हम प्रहलाद के नाम कैंसिल क देहनी. फिर तीन चारगो और नामन पर विचार भईल पर सबमे कुछ ना कुछ मीनमेख निकल गईल.
                    एही उधेड़बुन में हमके बेचुवा के नाम याद पडल. उ घूम घूम के कबाड़ इकठ्ठा करे और बदला में पईसा या फोफी देऊ. तनी ध्यान से सोचनी त लागल की उ त काफी बढ़िया शिकार हो सकत रहे. उमर में उ हमनी से 5 या दस साल ज्यादा होई पर शरीर में खाली हाड ही रहे और मांस ना मात्र के. लागे की जैसे महामारी के शिकार होखे. अगर ओके १० साल के भी लईका एक थप्पड़ लगा दित त उ जमीन पकड़ लित. पर शरीर के ठीक प्रतिकूल ओकर स्वाभाव रहे. कहल जाला की अबर दुबर के झुक के रहे के चाही पर उ एके ना माने. बात बात में हुज्जत कईल आम बात रहे. मने झगडा भईला के भी पूरा चांस रहे और लड़ाई भईला पर प्रतिरोध के तनिको ना. हमनी के दबंगई जमावे के उ आदर्श उम्मीदवार रहे. ओकर नाम तय हो गईल और मने मने हनुमान जी के जाप चालू हो गईल. अगिला दिन शनिवार रहे. चुकी उ रोज ना आवे ऐ वजह से हमनी के बजरंगबली के भखौती चालू क देहनी जाकी उ काल्ह जरूर आवे. हमनी के लगे इन्तजार के समय ना रहे.
            ओइदीन रात हमनी के नींद ना आईल और रात भर जवार के सबसे बड़का दबंग बने के सपना देखत बीत गईल. अब त एकही आरजू रहे की जीतू दादा से भी बड़का दादा बनी. हनुमान जी के गुहार लगावल बाव ना गईल. अगिला दिने बेचुवा एग्यारह बजे आ गईल. प्लान के मुताबिक हमनी के जाके फोफी लेके खाए लगनी जा. जब पेट भर गईल त चले के मुड़नी जा और बेचुवा पईसा खातिर टोकलस.
                           "कईसन पईसा रे?" बुलबुलवा रोबिया के कहलस "अतना घटिया फोफी खियवले की मुह ख़राब हो गईल और ऊपर से पईसा मान्ग्तारे."
"जब ख़राब रहल ह त खयिबे काहे कईले ह." बेचुवा भी रोबिया के कहलस.
"ढेर हुज्जत करबे" हम कहनी " त मार के दिमाग सही क देब."
"हमके मत डेरवाव. चुप चाप पईसा द" उ अपना साइकिल से उतर गईल.
संयोग से जीतू दादा भी ओने से गुजरत रहले और हल्ला गुल्ला के आवाज उनका कान में पहुच गईल.
"का हल्ला होता?" जीतू दादा पूछले.
"देखि ना मालिक इहा सब फोफी खाके पईसा नईखे देत." बेचुवा गिडगिडा के कहलस.
"जाए दे, ऐ लोग से पईसा मत ले." जीतू दादा आपन रोब जमावत कहले.
हमनी के एक दूसरा के गौर से देखनी जा. हमनी के प्लान त उल्टा होत रहे. हमनी के जीतू दादा के हटा के आपन दबंगई देखावे चाहत रहनी जा पर उ त आपन रौब जमावत रहले.
"मालिक आठ आना, एक रुपया के बात रहित त हम छोड़ भी दिति. पूरा दस रुपया के बात बा. हमरा जैसन गरीब एतना कहा से भरी."
बेचुवा के ऐ बात पर हमार और बुलबुलवा के करेजा द्रवित हो गईल. ओकरा गरीबी पर दया आ गईल.
"एक के बात होखे चाहे दस के पर जब हम कह देहनी त पईसा नईखे लेबे के." जीतू दादा खिसिया के कहले.
जीतू दादा के देख के हमनी के महसूस भईल की दबंग बने के सोचल और दबंग बनला में बड़का फर्क बा. दबंगई के जवन प्रमुख मांग रहे उहे हमनी के लगे ना रहे. ओकरा खातिर क्रूर स्वाभाव वाला आदमी चाही जबकि हमनी का त तनिका सा में द्रवित हो जाई जा. दबंग बनल शायद संभव ना रहे.
"मालिक." बेचुवा डर से एतना ही कह पवलस.
हम दस रुपया निकाल के दे देहनी.
"पईसा काहे देल ह तू." जीतू दादा खिसिया गईले " पईसा वापस कर."
"छोड़ ना तू. जाए द. जब हम पईसा देतानी त तहके का दिक्कत बा." हमू तनी रोबिया के कहनी.
"अब इ हमरा इज्जत के बात बा." जीतू दादा उग्र होके कहले "इ पईसा ना ली."
अब हमरा और जीतू दादा में पईसा देबे और ना देबे के रस्सा कस्सी चालू हो गईल.
बेचुवा भी भौचक्का होके देखत रहे. ओकरा समझ में ना आवे के का करी. हमार बात शायद उ नाभि मानित पर जीतू दादा से त बैर ना क सकत रहे.
"जाए दी न मालिक. उ कहलस "जब इहा के नईखे दिक्कत त रौवा काहे परेशां बानी."
जीतू दादा के गुस्सा अयिपर और बढ़ गईल.
"तोर एतना हिम्मत." जीतू दादा कहले कहले और आगे बढ़के ओकरा जेब के सारा पईसा निकाल लेहले.
"मालिक इ मत करी. हमार लईका मर जाई." बेचुवा गिडगिडात जीतू दादा के पैर पर गिर पडल.
हमनी के बेचुवा के बड़ा मोह लागल.
"ओकर पईसा वापस क द" हम कहनी.
"चुतिया तोरा समझ में नईखे आवत." अचानक जीतू दादा गाली गलौज पे आ गईले. हमरा त विश्वास ही न भईल की जवन आदमी हमके चाचा कहिके हाथ जोड़े उ आज हमके गारी देता. आज तक हमके केहू गारी ना देले रहे. हमार गुस्सा सातवा आसमान पर पहुच गईल पर हमरा से ज्यादा बुलबुलवा के खीस बर गईल. ओकरा सामने केहू हमार अपमान करे इ त नाकाबिले बर्दाश्त रहे. उ झट से आगे बढ़ के जीतू दादा के कालर पकड़ लेहलस और एक घुसा उनके मुह पर दे दिहलस. उनका त अन्हरिया छा गईल. गुस्सा में उ जेब से रामपुरी निकाल लेहले. पर हम उनके रामपुरी चलावे के मौका ना दिहनी बाह मरोड़ के राम पूरी छीन लेहनी और फिर ओकरा बाद जीतू दादा के जवन धुनाई भईल ओइसन धुनाई त रुई के भी ना होत होई. कुछे देर में पूरा गाव इकठ्ठा हो गईल और हमनी के रोकल. जीतू दादा के साथ देबे केहू ना आईल. हमनी के बेचुवा के पईसा वापस क देहनी जा.
 बेचुवा हमार और बुलबुलवा के गोड पकड़ लिहलस.
"मालिक रौवा नईखी जानत की रउवा हमार केतना बड़का मदद कईले बानी. हमरा लईका तीन दिन से बोखार से जरता. आज पईसा ले जाएब त इलाज होई." इ कहिके बेचुवा दहाड़ मारके रोवे लागल.
पूरा गाव के लोग जीतू दादा के थूथू और हमार और बुलबुलवा के बड़ाई करे लागल.
ओइदीन हमके महसूस भईल, की केहू के डरा के, धमका के, मारपीट क के, खौफ पैदा क के झुकावल त जा सकता पर आदमी के प्यार से, ओकर मदद क के आपन गुलाम बनावल जा सकेला. असली दबंग उ बा जे केहू के सतावत नईखे बल्कि प्यार से, दूसरा के दुःख में काम आके, ओके जीत लेता.
ओइदीन के बाद बेचुवा वाकई में बिन खरीदल गुलाम बन गईल और जब भी मिले सबसे पहिले हमके फोफी खियावे. उ पईसा त ना लेउ पर हम जबरजस्ती दी.
ओ घटना के साथ ही दबंग बने के सपना भी हम छोड़ देहनी काहे से की हम जान गईल रहनी की दबंगई के परिणाम का होला. जीतू दादा के जवन हस्र भईल रहे, उहे हमार भी हो सकत रहे.
हमनी के हाथ से पिटाई के अगिला दिने ही जीतू दादा गाव छोड़ देहले और बाम्बे जाके केरा बेचे लगले.
"मालिक का सोचे लगनी. ली जलेबी तैयार बा." बेचू के आवाज से हम वर्तमान में आ गईनी.
बेचू के जलेबी वाकई में स्वादिष्ट रहे. अईसे ही ओतना भीड़ थोड़े लागल रहे.


धनंजय तिवारी

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