माटी का पट्टू...........

Update: 2017-07-04 13:29 GMT
मेरे पड़ोस के एक बड़े भाई हैं, जो बेहद संवेदनशील एवं सज्जन व्यक्ति हैं। सलीके से रहना एवं जीवन की किसी भी खरीदारी में बहुत सोच-विचार करना, सूक्ष्मता से नाप-तौल के साथ गुणवत्ता के सापेक्ष वस्तु का मूल्यांकन, उनके विशेष गुणों में शुमार है। ऐसा नहीं कि वो कंजूस हैं लेकिन क्रय-विक्रम सम्बन्धी उनकी जागरुकता आला दर्जें की है। भुगतान के अन्तिम क्षण तक वस्तु के अंग-प्रत्यंग का सम्यक निरीक्षण उनके व्यक्तित्व में रच-बस गया है।

दरअसल भैया एक मामूली से आम आदमी हैं और आम आदमी की एक विशेष प्रवृत्ति होती है कि वह अपने जीवन की बड़ी-बड़ी चीजों में वह एक कदम पीछे नहीं हटता लेकिन बहुत छोटी चीजों में बात की भूसी छुड़ा देता है..। मसलन आम आदमी के घर यदि कोई बीमार पड़ जाये तो वो शहर के मंहगे अस्पताल और डाक्टर को को चुनता है, गाड़ी टॉप या सेकंड टॉप चुनता है लेकिन एक किलो आलू खरीदने में ठेले पर पांच बार हाथ लगाता है। पानी बताशा में तीन बार पानी मांगकर उसके बड़े फायदे के अन्तर को पाटता है। रिक्शेवाले से अपने उस झोले को भी उठवाता है जिसे वह खुद भी बहुत आसानी से उठा सकता है क्योंकि उसे पता है कि रिक्शेवाले ने बहुत कम दूरी के तीस रुपये मांगे हैं इसलिए थोड़ा वजन उठावाकर उसके फायदे में से दो रुपये चुपके से गांठ लेता है।

तो आइये! हम आपसे उनकी एक खरीदारी के बाद के विमर्श एवं मंथन का एक वाकया साझा करता हूँ-

हुआ यूं कि एक बार मैं टहलते उनके घर पहुँचा तो भैया ने मुझे सम्बोधित करके कहा-
"ए रिंकू! आज बेटे के लिये बीस रुपये में एक पट्टू (तोता) खरीदें हैं।"
मैने कहा- "तब तो सस्ता मिल गया आपको, वैसे तीस रुपये से कम का नहीं देते सब"
भैया ने कहा- "अरे! वो असली वाला तोता नहीं बल्कि मिट्टी वाला तोता खरीदा है मैंने"

मैंने मुंह बिचका कर कहा-" मिट्टी का तोता! बीस रुपये में... तब तो ठग लिया आपको। अरे जब बीस खर्च करने थे तो दस रुपये और लगा देते तो तोते में प्राण भी आ गये होते"
भैया को अपने खरीदारी पर शुबहा और ठगे जाने का आरोप चुभने लगा।

बोले- "मैंने जानबूझकर असली पट्टू नहीं लिया कौन बेचारे पंख वाले जानवर को कैद करने का पाप कमाये और केवल पट्टू तक ही नहीं है पिंजरा भी खरीदना पड़ता वह भी पच्चीस-तीस से कम न मिलता फिर खाना और पानी के लिये कटोरी अलग से अरे पूरे सत्तर-अस्सी रुपये से कम न बैठता"
मैने कहा- "अब जिन्दा पट्टू खरीदेंगे तो यह सब व्यवस्था करनी ही पड़ेगी और यदि मिट्टी का ही खरीदना था तो हाथी भी ले सकते थे। हाथी ले आते तो मूल्य वाला अन्तर आड़े नहीं आता।

भैया अब पट्टू के आकार और कलाकारी पर आ धमके
बोले- "जो तुम समझ रहे हो वो वाला पट्टू नहीं है। पूरा एक फीट ऊंचा और एकदम असली लगता है।"
मैने पूछा- "सीता-राम बोल लेता है, सीता-राम"
भैया मुझे घूरे.....
मैने कहा- "जो पट्टू सीता-राम न बोले इसका मतलब वो कूड़ा है कूड़ा"
भैया अभी भी शिकस्त के लिये तैयार नहीं थे।
बोले-"अरे बच्चों का मन हो तो क्या पैसे का मुंह देखना! क्या दस इधर क्या दस उधर"
मैने कहा-" तब क्यों नहीं, दस उधर जोड़कर जिंदा ही खरीद लाये ?
"अरे यार जिन्दा तोता में लफड़ा है खाना खिलाओ पानी पिलाओ बीट साफ करो और परिन्दे का पर बांधने का पाप मुझसे नहीं होगा.. वैसे भी बाबू को तोते से खेलने से मतलब है। कम से कम यह काटेगा तो नहीं,साले जंगली तोते काटते बहुत हैं।
मैने कहा- "भैया मिट्टी के पट्टू का क्या भरोसा कि कब हाथ से छूटे और चें बोल जाये।"
भैया तमतमाकर बोले- "तो कौन है जो एक सेकंड भी प्राण की जिम्मेदारी ले ले। माटी के तोते को ऊपर कहीं हिफाज़त से रख दूंगा तो गांरटी है कि वह बचा रहेगा। "इसका क्या जरा सा गेट खुले नहीं कि बिन पीछे पलटे बेवफाई करके आकाश धर लेंगे अरे तोते कितना दगाबाज कोई जीव हो ही नहीं सकता। तोते को चार साल पाल कर रक्खो लेकिन मौका पाते ही फुर्र हो जाता है दगाबाज पीछे मुड़कर भी न देखता।"

अब मैं समझने लगा था कि भैया आज अपनी खरीदारी पर पछता रहें हैं इसलिए मैं भी खुरपेंच में लग गया मैंने कहा- "मैं आपको तोते के बेवफाई से इत्ती शिकायत थी तो क्या जरूरत थी कि उसी की मूर्ति खरीदी जाये, घोड़ा या कुत्ता भी लिया जा सकता था। कम से कम उसको देखकर उसकी वफादारी का भी नैतिक पाठ बच्चे को सीखने को मिलता। खैर आपने जब खरीद ही लिया तो क्या कहा जाये।"
अब भैया के चेहरे पर, खरीदारी की जल्दबाज़ी पछतावा और तर्क मे समर्पण का भाव परिलक्षित होने लगा था वह बेटे के प्रेम के सापेक्ष नुकसान जैसी बात को दरकिनार करने लगे..
बोले- "अरे यार जब बच्चे का मन हो ही गया तो क्या घोड़ा क्या तोता ? वैसे ये फेरी वाले भी कम चालबाज नहीं उन्हें बस पता चल जाये कि बच्चे ने जिद्द ठान लिया तो ये सब दाम में पीछे नहीं हटते।

मैंने भी गंभीर भाव से "हूँ" कहके समर्थन किया।
भैया थोड़ी जगह पाकर सापेक्ष के सिद्धांत पर आ गये बोले- "अरे यार आज के जमाने में बीस रूपये होता कितना है चार बार पान खाकर थूक दो बीस रुपया उड़ जायेगा ऊपर से स्वास्थ्य की हानि अलग लेकिन यह तो कम से कम बच्चे का मनोरंजन करेगा। सालोंसाल टिका रहेगा। वैसे भी वह गरीब आदमी है अगर कोई खरीदेगा नहीं तो उसका पेट-पर्दा कैसे चलेगा।"
अब बात सर्वजन हिताय की तरफ घूमी मैं भी उनकी सामजिक चेतना को देखकर गंभीर भाव में सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त किया।
भैया जब तर्क वितर्क से संतुष्ट हुए तो बात को और वजनदार बनाने के लिये पट्टू लाने अन्दर चले गये और लौट कर पट्टू को हाथ में टांगे, पूछे-
बीस रुपये में इतना बड़ा पट्टू महंगा है ?
मैने कहा कि भैया माटी का भी कोई दाम होता है भला! मानिए तो माटी नहीं तो सोना.. वैसे महंगा दे गया ससुरा.
और फिर बात घूमकर वहीं की वहीं आ गई।

भैया एक लम्बी सांस खीच, तोता तख्त पर किनारे रखकर चुपचाप बैठ गए । मेरे ख्याल से उन्हें गम्भीर क्षोभ हुआ कि पिछले आधे घण्टे में वो क्या सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे और रिंकू से क्यों तर्क-वितर्क कर रहे थे । शायद भैया अपने बचपने और मूर्खतापूर्ण बहस पर पछता भी रहे थे... जिसकी परिणति ये हुई कि वो ठठाकर हंसने लगे । इस कदर कि हंसते-हंसते उनकी आंखों में पानी उतर आया । मैं समझ गया कि अब भैया के दिमाग मे बैठा खरीदारी का तोता फुर्र हो चुका है मैं भी उनके बचपने पर ठठाकर हँसने लगा ।
हम दोनों बहुत देरतक हंसते रहे ।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर

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