मरना है तो पढ़ो...

Update: 2017-07-08 02:47 GMT
 संसार बड़ा परिवर्तनशील है। लोगों की नीयत बदल रही है, गाँव बदल रहे हैं, देश बदल रहा है, पिछले महीने अपने मोबाइल में जो टैरिफ डाला था कमबख्त वो भी बदल गया। लेकिन इस परिवर्तन की आती-जाती लहरों में भी एक चीज़ ऐसी है जो नहीं बदलती - हमारी शिक्षा पद्धति। 
आज अध्यापक दिवस है। कुछ दिनों पहले डॉ प्रमोद पुरी सर ने कहा था कि असित भाई दस दिनों में बीस इंजीनियरिंग वाले छात्रों ने आत्महत्या कर ली, इस पर लिखिए। इधर कोटा (राजस्थान) के एक कोचिंग संस्थान के निदेशक ने भी मुझसे कहा था इस पर लिखने को। 
सच कहूँ! भारत इंजीनियरों और डाक्टरों का देश है, बाकी तो बस गलती से पैदा हो जाते हैं। अगर आप छात्रों के आत्महत्या, तनाव असफलता आदि के कारणों की तलाश में हैं तो गंभीरता से सुनिए कुछ कारणों पर चर्चा कर रहा हूं आज।आत्महत्या का पहला कदम है इंटरमीडिएट। मतलब जैसे ही बच्चा हाईस्कूल पास किया अठहत्तर प्रतिशत से। तो मध्यवर्गीय माँ-बाप की आँखों में एक 'अभिजात्य सपना' पैदा हो जाता है, बच्चे को डाक्टर या इंजीनियर बनाने का।और बच्चे की अभिरुचि, उसकी क्षमता, उसकी सीमाएँ जाने बिना उसे इंटरमीडिएट में या तो साईंस दिलाया जाता है या मैथ। अपने लगभग बारह साल के अध्यापन में मैंने गिनती के बच्चे देखे जिन्होंने इंटरमीडिएट में आर्ट्स लिया था। मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूँ कि मेरे कस्बे के डिग्री कालेज से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय तक बी0 ए0 के पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए मारामारी होती है।कमाल है कि नहीं कि, इंटरमीडिएट में आर्ट्स लेने वाले बच्चे गिनती के थे, और बी0 ए0 में बच्चों को जगह नहीं मिल रही है। अचानक ये आर्ट्स के बच्चे किस उपग्रह से आ गए? यही हमारे वो बच्चे हैं जिन्हें इंटरमीडिएट में लेना चाहिए था आर्ट्स। लेकिन अगल बगल, माँ-बाप,भाई-बहन के दबाव में लिए थे साईंस और मैथ। अब ये न साईंस-मैथ ठीक से जान पाए, न आर्ट्स ठीक से जान पाएंगे।
             इसी भीड़ में से जिनका एक बार फिर अठहत्तर प्रतिशत आता है फिर माँ-बाप, भाई-बहन, अगल-बगल के दबाव में इंजीनियरिंग की तैयारी में आते हैं। और उनके सामने दिखता है शिक्षा का बाजार। ऐसा बाजार जिसमें आप भी हैं मैं भी और वो भी। इस बाजार की तकनीकी, प्रबंधन, छल-कपट आसानी से समझ में नहीं आते। इसका बस एक नियम अगर समझ में आ गया तो भारत की सरकारी शिक्षा समझ में आ जाएगी।
किसी भी इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे छात्र से पूछिए कहाँ जाना चाहेगा वो तैयारी के लिए? उसका जवाब होगा सुपर थर्टी में आनंद कुमार सर के पास।अब आनंद कुमार सर के संस्थान सुपर थर्टी की चयन प्रक्रिया देखिए - वो देश भर में एक परीक्षा संचालित कराते हैं जिसमें सामान्य ओबीसी एससी-एसटी के लिए अलग अलग मानक हैं। उनकी परीक्षा है, उनका मूल्यांकन है, उनकी सीमित सीटें हैं। तो जाहिर है कि देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएँ वो ले गए इंजीनियर बनाने। इसे ऐसे समझिए! मान लीजिए आपने मुझसे कहा कि असित भाई आप पूरे देश में एक परीक्षा कराइए और उसमें सफल तीस छात्रों को हिंदी लेक्चरर बनाइए।अब जो बच्चा तीस सीट पर मेरा टेस्ट पास कर लिया, वो तो ऐसे ही लेक्चरर होने की योग्यता रखता है उसे अलग से क्या बनाना? जो मेरी परीक्षा में तीसवां स्थान ला दिया, क्या वो राज्य की लेक्चरर के सौ सीटों में नहीं आ जाएगा?
यही है हमारी सरकारी शिक्षा ऊपर से नीचे तक। गाँव कस्बों से लेकर देहरादून पब्लिक स्कूल तक। गांव के डिग्री कालेज से जेएनयू तक। सब टेस्ट लेकर क्रीम बच्चे उठा ले जाते हैं और जो औसत बुद्धि वाले बच्चे हैं उन्हें सरकारी स्कूलों में भर दिया गया जहाँ न ठीक ठाक पाठ्यक्रम है न अध्यापकों का समयानुसार वेतन न शिक्षण तकनीकी में प्रयुक्त होने वाले उपकरण। और सवाल किया जाता है कि आखिर ये स्कूल पिछड़ क्यों गए? जवाब यही है कि सारे क्रीम बच्चे तो हमारे कस्बे के कान्वेंट और पब्लिक स्कूल उठा ले गये और औसत बच्चे सरकारी अध्यापकों को मिल गए। और उन पर दबाव बनाया जाता है कि इन्हें डाक्टर इंजीनियर आईएएस बनाओ। किसी आनंद कुमार सर या किसी असित कुमार मिश्र की काबिलियत तो तब मानी जाएगी न, जब वो गाँव-देहात के किसी सरकारी स्कूल के औसत इंटर पास बच्चे को लेकर जाएँ और डाक्टर इंजीनियर लेक्चरर बना दें! 
          मैं कहीं से भी आनंद कुमार सर पर सवाल नहीं उठा रहा। बल्कि मैं यह कह रहा हूँ कि जिन सौभाग्यशाली बच्चों को आनंद सर मिल गए वो तो इंजीनियर हो गए। लेकिन जो उस तीस सीटों में नहीं आ पाए उनका क्या हुआ? जो सुपर थर्टी में न जाकर कोटा पटना इलाहाबाद दिल्ली गए वो आत्महत्या तनाव नशे की गिरफ्त में कैसे आ गए?
       याद है पहला कदम कहाँ उठा था आत्महत्या का? इंटरमीडिएट में। जिस बच्चे को आर्ट्स लेना चाहिए था उसे तो हमने दिलवाया था साईंस। जिसे साहित्य, कला, समाज, राजनीति, चित्रकला, कंप्यूटर या सैकड़ों-हजारों दूसरे क्षेत्रों में जाना था उसे तो हमने इंजीनियरिंग की दौड़ में धकेल दिया। जिसे पॉलिटेक्निक या आईटीआई करना था वो भी इंजीनियर बनने की दौड़ में लगा है। और आप कहते हैं कि लड़के तनाव में क्यों हैं? लड़के आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? जाहिर है जब भी कमजोर कंधों पर मजबूत भार दिया जाएगा तो कंधा टूटेगा ही। 
पहली बात तो अभिभावकों को लगता है कि हमारा बच्चा है तो उसे हमसे बेहतर कौन जानेगा? यह एकदम गलत बात है। आपके बच्चे को उसका अध्यापक आपसे बेहतर जानता है। मुझसे पूछिए, मैं अपने बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन अपने विद्यार्थियों के बारे में बता दूँगा कि वो कहाँ और किस क्षेत्र में जाएगा। इसलिए अपने बच्चे को आत्महत्या से बचाना हो तो उसके अध्यापक से मिलिए उसकी सलाह लीजिए। अध्यापकों को बस कुर्सी तोड़ने वाला और देश पर भार मत समझिए। अध्यापक का सम्मान कम से कम एसडीएम साहब के चपरासी जितना भी तो कीजिए! आपके सपनों में पहला रंग वही भरता है। 
दूसरी बात! बच्चा आईटीआई लायक है तो उसे आईआईटी में मत दौड़ाइए। याद रखें उसकी क्षमता का आकलन बेहद जरूरी है।कमजोर कंधों पर ज्यादा वजन तनाव नशा की ही ओर ले जाएगा। 
तीसरी बात! बच्चे की रुचि देखिए। रुचि के खिलाफ अगर वह आपकी जिद में डाक्टर इंजीनियर बन गया तो हड़बड़ी में आपरेशन करेगा। जल्दीबाजी में पुल की डिजाइनिंग करेगा। उसका जिंदा रहना औरों के लिए खतरा हो जाएगा। और अगर उसकी रुचि के अनुसार उसका वर्क हुआ तो उसका सारा समर्पण सारी सृजनात्मकता उसके काम में दिखेगी। अगर वो जूते भी बनाएगा तो सारी दुनिया में उसके फिनिशिंग की तारीफ़ होगी। 
रुचि जानने का सबसे आसान तरीका है बच्चे को ध्यान से देखिए एक दो दिन, कि वह ऐसा कौन सा काम है जिसे करने में उसे भूख प्यास तक नहीं लगती? वह कौन सा ऐसा काम है जिसे वह बहुत लगन और ध्यान से करता है? 
ध्यानाकर्षण के लिए 'कृत्रिम' उपाय भी हैं। अगर बच्चे को चित्रकार बनाना चाहते हैं तो जब वह क्लास एक में जाए, तो आप चित्रों को जगह जगह फेंक दीजिए घर में। कुछ मेज पर रख दीजिए, कुछ आलमारी में, कुछ दीवारों पर। मतलब दिन भर में दस बार कोई न कोई चित्र उसके सामने आ ही जाए। फिर देखिए आगे क्या होता है? इसी तरह अगर इंजीनियर बनाना चाहते हैं तो उससे संबंधित लोग, विचार, तथ्य और किताबें घर में या आसपास घूमती रहें। देखिए उसकी स्वभाविक रुचि हो जाएगी उसी ओर।मतलब बच्चे को चोर बदमाश डाकू नेता इंजीनियर डाक्टर सब बनाने की शुरुआत घर से होती है। अब घर में रखेंगे डेढ़ फुट का चाकू और सोचेंगे कि लड़का खेले कलम से, तो माफ कीजिएगा अध्यापक भगवान नहीं होता। ध्यान रखिएगा कि यह कृत्रिम उपाय ही है वास्तविक नहीं। सचिन तेंदुलकर जी के घर बैट, बाल और स्टम्प ही होंगे, फिर भी उनका लड़का सचिन नहीं बन सकता। क्योंकि उसकी वास्तविक रुचि कुछ और ही होगी। 
और कभी भी हाईस्कूल इंटरमीडिएट के अंको पर पूरा भरोसा मत कीजिए।परीक्षा पास करना दूसरी बात होती है और योग्यता दूसरी बात।हमारी परीक्षाओं में जिन्हें गोल्ड मेडल मिलते हैं जिंदगी अक्सर उन्हें मिट्टी के मेडल भी नहीं देती। यूपी बिहार की स्थिति आप देख ही रहे हैं। एक समय था जब बिहार में 'र' नाम के विद्यार्थी 'राजेंद्र प्रसाद' के लिए लिखा गया था कि- "विद्यार्थी शिक्षक से ज्यादा योग्य है" । और उसी बिहार में जो फर्जी टापर हुई वो 'भी र' से रुबी ही थी।गनीमत रही कि वो बिहार था। यूपी होता तो आज वो बीटीसी कर रही होती। 
इसीलिये परीक्षा के अंक महत्वपूर्ण नहीं बच्चे की क्षमता उसकी रुचि संसाधन उसका वातावरण आदि महत्वपूर्ण है। आज की शिक्षा व्यवस्था जिंदगी कम मौत ज्यादा दे रही है। हमारे समय का स्लोगन ही हो गया है कि "मरना है तो पढ़ो"। कंपटीशन की तैयारी के लिए जाना मतलब मौत के मुँह में जाना हो गया है। इस पर बच्चे, शिक्षक, अभिभावक, शिक्षाविद् और सरकार सबको सोचना होगा।
      साँप और नेवले की लड़ाई कभी देखी है आपने? वास्तविक कंपटीशन होता है वहाँ, जिंदगी के लिए... एक को जिंदा रहने के लिए दूसरे को मारना जरुरी होता है । दोनों की आँखों में क्रोध, दोनों आक्रमण के लिए तैयार। साँप धीरे-धीरे नेवले को चारों ओर से कसता जाता है और नेवले की थोड़ी सी चूक, और....और एक कंपटीटर की मौत।
याद रखिएगा साँप और नेवले की यह लड़ाई। अगर आपने अपनी इच्छाएँ, अपना इमेज, अपनी प्रतिष्ठा लाद कर भेजा है अपने बच्चे को, बिना बच्चे का पूरा मूल्यांकन किए, उसे डाक्टर इंजीनियर कलक्टर बनाने। तो वह लड़ रहा होगा आज भी उस कंपटीशन रुपी साँप से और परिणाम... वही, एक कंपटीटर की मौत। शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। 

असित कुमार मिश्र 
बलिया

Similar News

गुलाब!