याद है न वो बरखा जब तुम्हारे हाथों ने मेरे हाथों को चूमने की बेइंतहा कोशिश की थी ? उस पार तुम इस पार हम और दोनों के दरम्यां वो कांच की दीवार... बूंदों की टपटप और एक दूजे में खोये हम ...शायद वो अंगुलियों के निशान आज भी हैं जैसे अमर से हो गये हो।
क्या ये याद दिलाने आया है सावन ?
याद है वो पहली बरसात जब हम भीगे थे- भागे थे , उछले थे - कूदे थे हाथों में हाथ डाल और फिर तुम्हारा जानबूझकर गिरना और मुझे भी गिरा देना...उस मंदिर के किनारे की कीचड़ में अपने होठों को मेरे होठो से सटा प्रेमविष पी लेने की ज़िद...लिख देना मेरे अंगों पे अपना नाम उस गीली मिट्टी के फिसलते रंगों से।
क्या ये याद दिलाने आया है सावन ?
याद तो होगा ही वो सोमवारी का दिन जब तुमने अपने हाथों पर मेहंदी से जोड़ लिया था मुझसे नाता...महादेव मान लिया था मुझे अपना और बन गई थी पार्वती मेरी...... तुम्हारी हरे रंग की छीटेदार कमीज़ मेरी आँखों मे हरियाली का काजल लगा गई थी...तब पहली बार खुद को औघड़ महसूस किया था मैने मोहब्बत की रजा में...।
क्या ये याद दिलाने आया है सावन ?
या फिर मेरी अधखुली आंखों से टीस की बारिश कराने ? मेरे दर्द की तासीर में उमस भरी गर्मी मिलाने ?
तकिये के कोर को अटक चुकी यादों को नमी से भिगोने...?
या फिर अंधेरे में खुद की तन्हाई और तेरे न होने की कसक में तड़पाने के लिये ?
आख़िर सावन फिर आया ही क्यों ?
आख़िर क्यों ???
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संदीप तिवारी 'अनगढ़'
"आरा"