सच कहा जाए तो रविवार दिवस शिरोमणि है। इसकी महत्ता का प्रतिपादन हम जैसे सामान्य साहित्य के विद्यार्थियों के लिए कदापि संभव नहीं।पूरे सप्ताह का यही एक ऐसा दिन है जब सरकारी आफिसों की कुर्सियों को थोड़ा बहुत आराम मिलता है। इधर कुछ दिनों से मेरे गुरु की महादशा समाजवादी दुष्चक्र में फंसने से मुझे कई तरह के नुकसान उठाने पड़े। कल कुछ आवश्यक गृहोपकारी कार्यों का निष्पादन करते समय चप्पल का फीता टूट गया। इस तरह इस महीने में लगा यह दूसरा आर्थिक तमाचा है। सारा साहित्य-सारी क्रांति, समाजवाद की तरह स्खलित होकर आंखों से बह निकली।
हिंदी का साहित्य साक्षी है इस तथ्य का कि, अष्टछाप के प्रथम कवि कुम्भनदास अकबर के आमंत्रण पर सीकरी जा रहे थे। सब कुछ ठीक चल रहा था शायद साहित्य अकादमी या यश भारती मिलने की बात हो रही होगी कि अचानक उनकी पनहिया टूट गई। और यह पनहिया टूटने का दर्द इस पद में व्यक्त हुआ -
संतन को कहाँ सीकरी सों काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसर गयो हरि नाम।
बस यहीं सब कुछ गड़बड़ हो गया। स्पष्ट है कि चप्पल टूटने की प्रक्रिया से आहत होकर बड़े-बड़े संतों ने हरि नाम बिसरा दिया। मैं तो खाली समाजवादी क्रांति कर रहा था।
खैर यहां चर्चा रविवार की हो रही थी। मैं सरकारी कर्मचारी तो हूँ नहीं इसलिए मेरे लिए रविवार का महत्व कुछ दूसरा ही है। आज के दिन मैं सभी अखबारों के उन पन्नों का गहन अध्ययन करता हूं जिन पन्नों पर वर- वधू चाहिए टाईप कालम होते हैं। और मुझे यह देखकर हार्दिक प्रसन्नता होती है कि हर साल सैकड़ों हजारों शादियां होने के बावजूद अभी भी लाखों करोड़ों वर, वधू की प्रतीक्षा में हैं और वधुएं, वर की प्रतीक्षा में। सच कहूं तो बड़ा आत्मिक संतोष होता है कि अविवाहितों की सूची में मैं अकेला नहीं हूँ और भी सौभाग्यशाली नर नारियां हैं।
मुझे लगता है मेरे विवाह में सबसे बड़े बाधक मेरे साहित्यिक गुरु ही हैं। ( आलोक पाण्डेयभैया से क्षमा प्रार्थी हूँ) ये साहित्यिक गुरु कभी भी अपने शिष्यों को खुश नहीं देख सकते।और माथे पर मौर तो एकदम नहीं। हिंदी का साहित्य यहां भी साक्षी है कि रज्जब अपनी बारात में दूल्हा बने जा रहे थे। मार्ग में उनके साहित्यिक गुरु संत दादू का आश्रम था। रज्जब ने सोचा कि विवाहित जीवन के लिए आशीष लेता चलूं। लेकिन दादू जी ने रज्जब को दूल्हे के वेश में देखकर कड़ी फटकार लगाई और कहा -
रज्जब तूने गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर।
आया था हरि भजन को, करे नरक का ठौर।।
बस यहीं रज्जब ने अपना मौर उतार कर अपने छोटे भाई को दे दिया और उस वधू से उनके छोटे भाई की शादी हो गई वो सुख पूर्वक रहने लगे। और स्वयं रज्जब ने साहित्यिक मार्ग पकड़ लिया। लेकिन विवाह न कर पाने का दुख अंदर ही अंदर उन्हें पीड़ित करता रहा। इसीलिये आजीवन वो दूल्हे के वेश में ही रहे।
खैर मैं अभी अखबार पढ़ लूं। हां! फिलहाल आगरा में निवास कर रहे मेरे नीतू भैया को इस पोस्ट के माध्यम से जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं।कामना है कि इस 'रविवारीय पन्ने से' जल्दी ही आपका नाम खारिज हो। मेरा तो खैर भगवान ही मालिक है।
असित कुमार मिश्र
बलिया