भानुमति_1

Update: 2017-10-21 03:36 GMT
युवराज युधिष्ठिर के बुलावे पर कृष्ण अपने मित्र ब्राह्मणश्रेष्ठ श्वेतकेतु और सात्यक पुत्र युयुधान जिन्हें सात्यकि के नाम से जाना जाता है और जिन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों में से एक माना जाता है, के साथ हस्तिनापुर की यात्रा पर हैं और अभी पुष्कर तीर्थ पर पड़ाव डाले हुए हैं। कृष्ण के चचेरे भाई और बालसखा देवभाग पुत्र उद्धव पूर्वसूचना देने कुछ दिनों पहले ही हस्तिनापुर जा चुके हैं। पूरे आर्यावर्त में कृष्ण के पराक्रम चमत्कार की तरह प्रसिद्ध हैं, उन्हें रास्ते में पड़ने वाली राजन्य वर्ग के साथ साथ आमजन का भी आतिथ्य स्वीकार करना पड़ रहा है। शांतिकाल है, मगध का जरासंघ शांत है, पांचाल में परोपकारी द्रुपद और हस्तिनापुर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज है, कदाचित इसीलिए कृष्ण को भी कोई जल्दी नहीं हैं। 

अचानक ही बाहर हलचल होती है और द्वारपाल के सूचित करने से पहले ही उद्धव औपचारिकताओं की अनदेखी करते हुए सीधे कृष्ण के गले लग जाते हैं। बलिष्ठ परन्तु सौम्य तथा मर्यादित उद्धव का यह भावुक व्यवहार देख सात्यकि अचंभित रह जाते हैं और श्वेतकेतु किसी बुरी सूचना का अनुमान लगा लेते हैं।

कृष्ण उद्धव की पीठ सहलाते हुए पूछते हैं, "क्या हुआ भाई, सब कुशल तो है?"
उद्धव जब बोलते हैं तो लगता है कि गले में कुछ फँसा हुआ है और बस रोने ही वाले हैं, "सब खत्म हो गया कृष्ण, पांडव नहीं रहे"। 

तीनों चीत्कार कर उठे, श्वेतकेतु सर पकड़ कर बैठ गए, सात्यकि समझ नहीं पाए कि अर्जुन और सहदेव के होते ये कैसे सम्भव है, कृष्ण को लगा कि किसी ने उनके सीने में घूंसा मार दिया हो। सात्यकि पानी ले आये थे, उद्धव को पिलाने के बाद कहा, "हे देवभाग तनय, तनिक सांस ले लो, फिर बताओ कि हुआ क्या था?"
"वो लाक्षागृह में जल मरे युयुधान"।
कृष्ण उनके कंधे को दबाते हुए उन्हें आसन पर बिठाते हैं और कहते हैं, "पूरी बात बताओ भाई"।

"मैं जब हस्तिनापुर पहुंचा तो मंत्री विदुर मेरा स्वागत करने आये थे, फिर मैं उनके साथ आदरणीया माता सत्यवती, और पितामह को प्रणिपात करने के पश्चात पांडवों के भवन में गया। युधिष्ठिर अपनी परिषद में जा रहे थे, उनके साथ बुद्धिमान सहदेव भी थे। वहां मुझे सिर्फ अर्जुन मिले जो अपने शस्त्रों को चमका रहे थे। मैं उनसे बात करने लगा, थोड़ी देर में भीम आये और सगर्व बताया कि उन्होंने पूरी व्यवस्था कर ली है, पूरे भवन में धनुर्धर तैनात कर दिए हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें सहदेव ने और सहदेव को विदुर ने बताया था कि दुर्योधन अपने साथियों सहित पांडवों की हत्या का षणयंत्र रच रहा है। 

थोड़ी देर बात नकुल कुछ सिपाहियों के साथ आये और भीम से परामर्श कर उन्हें तैनाती का आदेश देकर हमारे साथ बैठ गए। माता कुंती भी आई और अंततः युधिष्ठिर प्रसन्न मुद्रा में आते दिखे। नकुल ने देखते ही कहा कि बड़े भैया प्रसन्न दिख रहे हैं, लगता है कोई बड़ी बात हुई है। 

युधिष्ठिर ने उन्हें बताया कि हमारी हत्या की आशंका से पितृव्य महाराज धृतराष्ट्र अत्यंत व्यथित हैं। उनकी व्यथा दूर करने तथा पांडवों का जीवन सुरक्षित करने का बस एक ही उपाय था कि युवराज पद का त्याग कर दिया जाए और हस्तिनापुर से कुछ समय के लिए निर्वासित हो लिया जाए।"

सात्यकि क्रोध से भर उठे, "ये धर्मराज का धर्म भी ना जाने कैसा है, 4 महावीर भाइयों के होते वे ऐसा अन्याय कैसे सह सकते हैं, स्वयं भी वो दुर्योधन सहित सभी भाइयों के लिए अकेले ही पर्याप्त हैं, फिर भी उनकी ये भीरुता समझ नहीं आती"।

श्वेतकेतु समझाते हुए कहते हैं, "नहीं सात्यकि, उन परिस्थितियों में धर्मराज का निर्णय सही था। नगर के अंदर हुए युद्ध से कई निर्दोष मारे जाते। पर उद्धव, जब उन्होंने निर्वासन स्वीकार कर लिया तो भीम और नकुल ने कोई आपत्ति नहीं की"।

कृष्ण विषाद की मूर्ति बने बैठे थे, पर बोल पड़े, "वो विचित्र परिवार है, सब एक दूसरे का विरोध भले करें पर अंततः सहमत हो ही जाते हैं, क्यों ना हो, युधिष्ठिर ने बाल्यकाल से ही पिता बनकर उनका पालन किया है। तुम आगे कहो भाई, फिर क्या हुआ?"

"उन्होंने वारणावर्त में एक वर्ष का निर्वासन स्वीकार कर लिया। तुम देखते कृष्ण, जनता की व्यथा, वे विद्रोह पर उतारू थे, परन्तु भीम ने उन्हें शांत किया और सभी भाई माता सहित चले गए। मैं भी उनके साथ था। वहां के निवासियों ने हमारा स्वागत किया। पांडवों के रहने के लिए जो भवन तैयार किया गया था उसमें कुछ आपत्तिजनक सा लगा हमें। फिर मैं उत्कोचक चला गया। वहीं सुना कि महल में आग लग गई और माता सहित सभी जल मरे। मैं उल्टे पांव लौटा पर वहां बस राख ही थी और छह कंकाल जिनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।"

"हा उद्धव, तो क्या तुम अंत समय तक उनके साथ नहीं थे?"  

उद्धव को लगा कि कोई बहुत बड़ी भूल हो गई उनसे। उन्हें पांडवों का साथ नहीं छोड़ना था। बहुत दिनों से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी। कृष्ण ने मर्मान्तक पीड़ा से व्यथित अपने भाई को गले लगा लिया, और बोले, "मेरी सारी योजना धरी की धरी रह गई। धर्म स्थापित करने वाले सूर्य अस्त हो गए मित्र"।

श्वेतकेतु के ये पूछने पर कि अब हमें क्या करना चाहिए, स्पष्टवादी सात्यकि बोल पड़े कि अब हमारा इस आर्यावर्त में क्या काम। युधिष्ठिर तो रहे नहीं, कृष्ण की योजना के आधारस्तम्भ तो वही थे। चलिए, हम अपने देश चलते हैं।

अचानक ही कृष्ण की भंगिमा बदल गई, और जब वो बोले तो जैसे स्वयं समय बोल रहा हो, "हम अब वर्षों तक द्वारिका नहीं जा पाएंगे युयुधान, आर्यावर्त में हमारा होना अब हमारा कर्तव्य है। जरा सोचो कि उधर मगध में जरासंघ है जो फिर से विदर्भ के भीष्मक और चेदि के शिशुपाल से गठजोड़ बढ़ा रहा है, हस्तिनापुर पर अब अधर्मी और नासमझ दुर्योधन का राज है जो कपटी शकुनि के हाथ का खिलौना है। वहां द्रोण भी हैं जिनका युवराज युधिष्ठिर पर कोई प्रभाव नहीं था पर दुर्योधन पर होगा, वे पांचाल नरेश द्रुपद से अपनी कटुता भुना सकते हैं, और परम्परागत शत्रु के विरुद्ध भीष्म भी कुछ नहीं कर पाएंगे। द्रुपद भी अपनी शत्रुता निभाने को तैयार बैठे हैं, वो अपनी पुत्री द्रोपदी के बदले एक वीर चाहते हैं जो द्रोण से टक्कर ले सके, सम्भवतः अब वे उसका विवाह जरासंघ के पौत्र मेघसन्धि से कर दें। जरासंघ अब काशी को पददलित कर आगे बढ़ सकता है। द्रुपद जरासंघ को कुरुओं के विरुद्ध और जरासंघ द्रुपद को यादवों के विरुद्ध युद्ध करने को बाध्य करेंगे। 

नहीं मित्र सात्यकि, यादव अधर्म को फैलता नहीं देख सकते। पांडवों के ना होने से धर्म स्थापित करने का गुरुतर भार अब हमारे कंधों पर है। मैं हस्तिनापुर जाऊंगा, मेरी बुआ की मृत्यु हुई है, मुझे परम्परानुसार वहां शोक प्रगट करने जाना ही चाहिए। मैं उस अधर्म के पंक में से ही धर्म को खोजूंगा मित्र। उद्धव, शोक छोड़ो, हम हस्तिनापुर चल रहे हैं।"
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अजीत प्रताप सिंह
वाराणसी

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