राजधानी से कुछ योजन दूर किसी सुंदर वन में, किसी छोटी सी झील के किनारे एक रथ खड़ा है। रथ में एक सांभर और कुछ खरगोश पड़े हुए हैं। कुछ दूर 3 व्यक्ति आग के इर्द-गिर्द बैठे हैं। थोड़ी अधेड़ उम्र का व्यक्ति लेटा हुआ है, और बहुत शांत भाव से अपने दांतों में फंसे मांस के टुकड़े निकाल रहा है। भुने गोश्त को काटता व्यक्ति बहुत सुदर्शन है, विलक्षण तेज सा निकलता प्रतीत होता है उसके ऊपर से, कदाचित उसके कुंडलों की वजह से। तीसरा अत्यंत ही सुंदर और बलिष्ठ व्यक्ति जिसके सर पर अन्य दोनों की तुलना में अधिक अधिकार दर्शाता मुकुट है, कभी बैठता है तो कभी चहलकदमी करने लगता है।
लेटा हुआ व्यक्ति मांस काटते हुए व्यक्ति से कहता है, "अंगराज, तनिक बताओ तो कि तुम्हारे मित्र युवराज सुदोधन इतने विचलित क्यों हैं, अब तो दूर दूर तक कोई भी कंटक दिखाई नहीं देता।"
टहलता हुआ दुर्योधन अचानक बैठ जाता है और अपने मामा को घूरते हुए कहता है, "मामा, तुम मुझे दुर्योधन ही कहा करो, इस नाम में अधिकार, सत्ता और पराक्रम की झलक दिखती है मुझे। और मैं सशंकित इसलिए हूँ क्योंकि मेरा दुर्भाग्य कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ता"।
"ऐसा क्यों कहते हैं युवराज, अब तो पांडव भी नहीं रहे", अंगराज कर्ण अपने मित्र की व्यथा समझ नहीं पाता। स्पष्टवादी व्यक्ति ऐसे ही होते हैं।
"मेरा दुर्भाग्य क्या तुमने नहीं देखा कर्ण, मेरे पिता बड़े थे फिर भी जाने क्यों ईश्वर ने उन्हें अंधा पैदा किया। अंधत्व अगर राजा बनने से रोकता है तो चाचा पांडु भी तो पाण्डुरोग से ग्रसित थे, उन्हें क्यों राजा बना दिया गया। अगर इतना ही नियम देखना था तो चाचा विदुर को राजा बनना चाहिए था।
फिर भाग्य का ये प्रहार भी तो देखो कि माता के गर्भ में पहले मैं आया पर जन्म पहले युधिष्ठिर का हुआ। कहीं मेरे पुत्र को भी ये दुर्भाग्य सहन ना करना पड़े, मैंने काशीराज की कन्या से विवाह कर लिया जिससे मेरा पुत्र अपनी पीढ़ी का पहला कुरु हो। पर देखो कि वो अपनी माता के साथ ही चल बसा।
अब इतने वर्षों बाद ये भले दिन आये हैं, कोई कांटा नहीं है, फिर भी मैं अब तक युवराज ही हूँ। मेरे पिता राजा हैं और जाने कितने वर्षों तक राजा बने रहेंगे, वे ही क्यों, चिरयौवना हमारी पितामही सत्यवती और भयंकर बुड्ढा भीष्म भी अभी जीवित हैं, वो कपटी विदुर भी तो है। क्या इन लोगों के रहते मैं कभी पूर्ण राजा बन भी पाऊंगा।
हे ईश्वर, और अब ये ग्वाला कृष्ण यहां क्या करने आ रहा है? मामा, मुझे ये चरवाहा सही नहीं लगता। ये कोई ना कोई कपटजाल फैलाकर मुझे अवश्य ही मेरे अधिकार से वंचित कर देगा। मुझे बताओ मामा, मैं क्या करूँ"।
शकुनि अपनी वक्र मुस्कान के साथ बोल पड़ता है, "अरे भरतश्रेष्ठ, तुम नाहक ही इतना परेशान होते हो। कृष्ण भले ही कितना भी पराक्रमी हो, चमत्कारी हो पर जिन पांडवों का तर्पण तक हो गया उन्हें पुनर्जीवित तो नहीं ही कर पायेगा।
मुझे तुम्हारी एक बात बहुत अनुचित लगती है वत्स, वासुदेव रहे होंगे कभी ग्वाले या चरवाहे, पर आज वो यादवों के सिरमौर हैं। उनके साथ अनगिनत यादव अतिरथी हैं जिनमें से प्रत्येक की सैनिक शक्ति आर्यावर्त के किसी भी शासक से कम नहीं है। क्या तुम सात्यकि, कृतवर्मा, उद्धव, अक्रूर को नहीं जानते। कंस का वध तो पुरानी बात हो गई, उन्होंने तो जरासंघ तक को दो-दो बार धूल चटा दी है। कालयवन जैसे महान म्लेच्छ राजा का दर्प चूर किया है। भीष्मक की पुत्री का भरे स्वयंवर से हरण किया और रुक्मी को पराजित किया है। अभी कुछ महीनों पहले ही तो शाल्व को भी हराया ना उन्होंने। राजा विराट और राजा द्रुपद जैसे मित्र हैं उनके। यादवों के पास प्रभास जैसे तीन बंदरगाह हैं जो सुदूर देशों से उनके लिए स्वर्ण लेकर आते हैं, उनकी सम्पत्ति के सामने तुम्हारी कुल कुरु सम्पत्ति नगण्य है।
स्मरण रखो पुत्र कि कोई तुम्हारा शत्रु ही क्यों ना हो, शांतिकाल में उसके सम्मुख सद्व्यवहार ही करना चाहिए। वैसे तुम तो गुणों को देखते हो ना, अपने इन मित्र कर्ण को देखो, तुमने इनके गुण देखकर ही तो इन्हें अपना मित्र माना होगा। उस योद्धा-गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा को भी तो तुमने उसके गुणों के आधार पर ही मित्र माना था ना। तो इस 'ग्वाले' कृष्ण को अपना मित्र बनाने में तुम्हें क्या आपत्ति है? वो पांडवों का निकट संबंधी था, तो वही सम्बंध तुम्हारा भी है उससे। अब कुरुओं का भविष्य हो तुम, और कॄष्ण शक्तिशाली हैं, शक्तिशाली से मित्रता की जाती है, बैर नहीं।
मेरी मानो तो उसका खुले दिल से स्वागत करो, साम, दाम, भेद से उसे अपना मित्र बनाओ।
और अंगराज, तुम कृष्ण से दूर रहना। स्पष्टवादी व्यक्तियों को धूर्त राजनीतिज्ञों से दूर ही रहना चाहिए।"
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अजीत प्रताप सिंह
वाराणसी