लगभग पांच वर्षों तक दूरस्थ जनपद में नौकरी करने के कारण रेल यात्रा का एक ठीकठाक अनुभव रहा है या यूं कहें कि जनरल और शयनयान कक्ष में यात्रा के दरम्यान एक बड़ा वक्त गुजरा। बारह-पन्द्रह घंटे की यात्रा में स्टेशन,प्लेटफार्म से लेकर बोगियों तक की धकमपेल, गर्दी, अधिकार चिंता, बोगियों में घुसने की जुगत/तकनीक सीटों पर आधिपत्य, मृदुलता से सीट पाने की कवायद ,निष्ठुरता से आग्रह ठुकराने की कला.. जगह घेरने की कलाकारी, खिड़कियों से रुमाल या तौलिया फेंककर सीटों की करायी गई रजिस्टरी, महिलाओं और बच्चों का खिड़कियों से कराये जाने वाला प्रवेश, सीट के भीतर बोरा और सुटकेस घुसेड़ने की जल्दी, झट से अपर बर्थ पर चढ़कर फैलने की प्रवृत्ति। थूकने का लालच/ उल्टी करने का डर/ हरियाली निहारते चलने की आदत के कारण विंडो सीट की तरफ लपकने की जल्दी, मैगज़ीन खोलकर एलीट वर्ग दिखाने का दिखावटी पन, हर वेंडर से खाद्य पदार्थों का मूल्य पूछकर मन मसोसकर बैठने का दर्द, शौचालय तक पहुंचने के लिए की गई मशक्कत, पंखे के ऊपर जूतों पर संतुलित करने की कला, ऐसी तमाम घटनाओं और मनोवृत्तियों का साक्षी रहा हूँ मैं।
भारतीय रेल को भारत की जीवन रेखा कहते हैं। इसलिए तो उसे एशिया की सबसे बड़े रेल नेटवर्क का खिताब प्राप्त है। पिछले 160 वर्षों से जनता की सेवा में चौबीसों घंटे तत्पर, सबसे बड़े नियोक्ता के रूप में तेरह लाख कमर्चािरयों का संगठन मामूली है क्या? उसके पास इतने कर्मचारी हैं कि चाहें तो वो अलग से तीसवें राज्य के रूप में एक "रेल राज्य" की मांग कर सकते हैं!
वैसे भारतीय रेल दूर से देखने में भले ही दुबली-पतली दीखती हो लेकिन उसके दिल में जितनी जगह है शायद ही किसी परिवहन सेवा के अन्दर हो। प्लेटफार्म पर चाहें कितने भी यात्री खड़े हों सबको पांच मिनट के अंदर भीतर खींच कर बैठा या समा लेने की अद्भुत क्षमता है इसमें । यदि आप चढ़ने का साहस कर लें तो ऐसा कोई कारण ही नहीं की वह आपको जगह न दे दे, भले ही शौचालय में ही क्यों न बिठाये... बिठायेगी जरूर..! बहुत बड़ा और बरियार दिल होता है भारतीय रेल का।
भारतीय रेल के जनरल बोगी ऐसे लंगर की तरह है कि उसे पता ही नहीं होता कि अगले घंटे या स्टेशन पर कितने यात्री/परीक्षार्थी/प्रदर्शनकारी/ भक्त/ हाथ में बोरा टांगे या नारा बुलंद किये उसकी राह जोह रहें हैं। स्टेशन पर खड़े होते ही ट्रेन से उतरने और चढ़ने वालों की धक्कमपेल देखने लायक होती है घुसने के लिये ऐसी मजबूत पकड़, उतरने के लिए ऐसा अटूट आत्मविश्वास कि दूसरी परिवहन सेवा हो तो स्टेशन पर ही उसकी रीड़ की हड्डी चटक उठे । लेकिन अपनी रेल एक बार सांस खींच कर सरकते-सरकते रफ्तार बना लेती है और छुकछुक-छुकछुक गीत गाते बजाते निकल पड़ती है अपनी पटरी पर।
बेहद सस्ते और रियायत दर पर लगभग बीस या तीस पैसे प्रति किलोमीटर की दर से यात्रा कराने की हिम्मत या कूव्वत सिर्फ भारतीय रेल के पास ही है। आज भी लोग सात रूपये में पच्चीस किलोमीटर का सफर तय करते हैं। वो बात अलग है कि उन्हें गर्मी के कारण सूखे हलक को तर करने के लिये चालीस रूपये में दो लीटर पानी खरीदना पड़ता है।
मेरा अनुमान है कि भारत में उत्सर्जित कुल पसीने का सवा बारह से पौने तेरह प्रतिशत पसीना केवल जनरल बोगियों में उत्पादित या उत्सर्जित किया जाता है। जनरल बोगियों में आर्द्रता का स्तर हमेशा समुद्री तटों और ट्रॉपिकल वन्य प्रदेशों के तकरीबन बराबर बना रहता है। जितना वाष्पोत्सर्जन जनरल बोगियों की खिड़कियों से होता है वह दो सौ हेक्टेयर के जंगल में स्थिति वृक्षों की पत्तियों के पर्णरंध्रों से तकरीबन चौबीस गुना अधिक है। गर्मी में दो दिन जनरल बोगी में यात्रा के बाद कोई यात्री जब छब्बीस किलो बक्से-बोरी वजन और अपने ही शरीर की असहनीय दुर्गंध के साथ स्टेशन पर गिरता है तो उसकी केवल एक ही तमन्ना शेष बचती है कि मालिक दो बाल्टी शीतल जल और एक गमकउवा साबुन मिल जाये तो जीवन बदल जाये..! लाख कमाकर आने के बाद भी मेहरारू तीन फीट दूर से गमछा पकड़ा कर चली जातीं हैं। मन भर नहाने, खाने और पांच घंटे सोने के बाद कहीं जाकर वह आम यात्री मुख्य धारा में लौट पाता है। कितने यात्री यदि एक बार कमाने के वास्ते किसी सदूर प्रदेश चले जाते हैं तो वो रेल यात्रा की दुर्गति के भय से साल भर लौट ही नहीं पाते और जो पांच दिन की छुट्टी में लौटते हैं वो अगले पच्चीस दिन केवल इसी भय से नहीं जा पाते वो ट्रेन में चढ़ेंगे कैसे!?
यह भी एक कड़वा सच है कि यदि भारतीय रेल अपने यात्रियों के लिये एक विशाल हृदय रखती है तो भारत का जन भी उसपर अगाध विश्वास करता है। लाख परेशानियों और जिल्लत के बाबजूद कभी वो रेल से नाराज़ नहीं होता..। वह दो घंटे जनरल की लाइन में खड़ा होकर टिकट लेता है और साथ ही साथ अपने भारीभरकम समान को भी लाइन के साथ खिसकाता चलता है। यह जानते हुए कि ट्रेन प्लेटफार्म न० फलां के सामने खड़ी होगी.... लेकिन वह रफ्तार से आंदाज़ लगाता है कि जनरल बोगी कहाँ ठहरेगी ... और उसी अंदाजे पर वो पूरे प्लेटफार्म पर दौड़ता है। यात्री के दोनों हाथ में बीस-बाइस किलोग्राम वजन के बावजूद वो तीस किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ता है और उसकी पत्नी मध्यम हील की सैंडल पर भचकते- सम्भलते दस किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती है। आप जरा सोंचे कि वजन, बक्सा, रफ्तार और पत्नी के बीच सामंजस्य स्थापित करके ट्रेन पकड़ना कितना कठिन होता होगा !
आप तनिक विचार करें यदि आपके घर किसी आयोजन में सौ व्यक्तियों का प्रबंध हो और डेढ़ सौ मेहमान आ जायें तो आपकी कैसी दशा होगी ... और जो अतिरिक्त पचास बिन खाये लौटेंगे तो वह कितना अपमानित महसूस करेंगे ..और आपका कितना उपहास करेंगे.! लेकिन भारतीय रेल रोज ऐसे आयोजन कराती है अपने सीट की उपलब्धता के सापेक्ष तीनगुना टिकट बेचती है। एक के ऊपर एक बैठवाती है। गली, फाटक से लेकर शौचालय तक एक पैर पर खड़ा करवाती है। बहत्तर लोगों के आक्सीजन को तीन सौ बहत्तर से खींचवाती है। समान और शौचालय के नाम पर अच्छे-भले आदमी को चार गाली सुनवाती है। आरपीएफ के सिपाही से बक्सा तौलवाती है सौ से डेढ़ सौ रूपये वजन के नाम पर वसूलवाती है। आईकार्ड चेक करावाती है..आतंकवादी की तरह संदेह करवाती है और फिर पचास रूपये लेकर देश का नागरिक बनवाती है। मोबाइल के भीतर अश्लील विडियो की जांच करवाकर पचास रूपये का दण्ड लगवाती है। हर चार स्टेशन के बाद हिजड़े को चढ़वाती है.. दो-दो तमाचे के साथ पच्चीस-पचास वसूलवाती है। दस रूपये में दो प्लेट के नाम पर एक पूड़ी के दस रूपये के हिसाब से चालीस रूपये छिनवाती है। टीटी से साधारण और एक्सप्रेस का अन्तर बताकर यात्री पर दण्ड लगवाती है। स्टेशन पर टीसी से पकड़वाकर अन्तिम वसूली के साथ रिहाई पर खूब मुस्कुराती है और जनरल में सफर करने वाली जनता एक सौ अठ्ठाईस रूपये के टिकट के साथ दो सौ पचहत्तर रूपये अतिरिक्त लुटाकर, जान बचाकर, मुस्कुराकर इतने सारे अपमान भुलाकर फिर दस दिन के भीतर टिकट के लाइन में खड़ी हो जाती है। क्या भारतीय जनता मामूली प्रेम करती हैं भारतीय रेल को!?
भारतीय रेल के जनरल डिब्बों में यात्रा करने वाला यात्री आज तक यह समझ ही नहीं पाया कि जो टिकट उसने खरीदा है, उसके वास्तविक अधिकार की सीमा क्या है ? कभी उसी टिकट पर पूरी बोगी का स्वामित्व मिल जाता है तो कभी पूरी बर्थ पर लोटरिया मारने को.... कभी चार इंच पर टिकाने के लिये हाथापाई की नौबत आ जाती है, कभी खड़ा होना मुहाल हो जाता है.... तो कभी शौचालय से आगे सरकने का मौका ही नहीं मिलता। कुल मिलाकर भारतीय रेल का दायित्व इस स्टेशन से उस स्टेशन तक पहुचांने या पठाने का जिम्मा है भले वो सुला के ले जाये, बिठा के ले जाये, खड़िया के ले जाये, निहुरा के ले जाये,पेंट की बाल्टी पर टिका कर ले जाये, शौचालय में लुका कर ले जाये। पसीने में डुबाकर ले जाये, थप्पड़ खिला के ले जाये, गारी सुना कर ले जाये, यहाँ तक की ट्रेन की छत पर बिठा कर ले जाये...! पहुंचा दिया ..और जिम्मेदारी खत्म!
( अपनी यात्रा से जुड़े अन्य अनुभवों और स्मृतियों को सूक्ष्मता और ईमानदारी से आपके समक्ष, रेल सीरीज के माध्यम से प्रस्तुत करुंगा... आशा है आप पसंद करेंगे)
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर