जहाँ तक मेरी नजर जाती है या जहाँ तक कि मुझे जानकारी है तो कम से कम भारत के अन्दर जितने मजबूत दरवाजे भारतीय रेल अपने शौचालयों हेतु बनवाती है शायद ही कहीं ऐसे दरवाजे बनवाये या खड़े किये जाते हों यदि आपकी जानकारी में हों तो मुझे सूचित अवश्य किजियेगा!
यदि आप गौर करें! तो जिस वजन और हनक से 'रेल बोगी' के शौचालय, खुलते और बंद होते कि प्रवेशार्थी असमंजस में पड़ जाये कि वह शौच का दरवाज़ा खोल रहा है कि भारी तिजोरी का। वास्तव में रेलयात्री भी ऐसी ही सुरक्षा, सम्पूर्ण रेल यात्रा के दौरान मांगता है जितना वो शौचालय के भीतर दावा और इंतजाम करती है। रेल की सीट पर भले ही चोर उच्चकों के भय से आप बराबर सुटकेस को सहलाते रहें लेकिन शौचालय बंद करने के बाद ऐसी चिंता की जगह नहीं बचती चिन्ता बस इतनी ही रहती है कि ट्रेन कहीँ ठहर न जाये या पानी की सप्लाई न बाधित हो खैर इतनी चिन्ता सम्पूर्ण शौच प्रकिया को तहस-नहस करने हेतु पर्याप्त है। शौचालय के भीतर आज भी जंजीरों में कैद पानी के मग्गे अपनी एक मीटर की त्रिज्या से अर्ध परिधि बनाते बनाते अपनी सम्पूर्ण जीवन की यात्रा खत्म कर देते हैं लेकिन कभी साबुत आजाद नहीं होते। वैसे मुझे पूरा विश्वास है की जिस दिन हमारे डिब्बे जंजीरों से मुक्त हो जायेंगे उस दिन हम भी भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हो जायेंगे क्योंकि जिस देश में शौच के डिब्बों तक को खुल्ला छोड़ने में रेल प्रशासन को भय लगता हो वहाँ आयकर जैसे करों को सिर्फ आपके भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता।
आप सबको पता है कि एक बोगी के भीतर कुछ चार अदद शौचालयों में प्रवेश पाने की सतर्कता, चालाकी और अवसरवादिता का एक अलग ही मनोविज्ञान है। कोई भी यात्री बहुत चालाकी से अपनी सीट छोड़कर शौचालय की तरफ बढ़ता है लेकिन अगले यात्री को अपने हावभाव से यह जाहिर नहीं होने देता कि वह भी कहीं शौच जाने की प्रतियोगिता में प्रतिभागी है क्योंकि उसकी जरा सी तेज़ी उससे आगे की यात्री के लिये शौच में घुसकर बैठने के लिए प्रतिस्पर्धी बना देता है। यदि आप बच बचाकर किले के द्वार पर चले भी गये तो आप बाहर से भांप भी नहीं पायेंगें कि अन्दर कोई आपसे भी चालाक और अवसरवादी डेरा डालकर बैठा है। आप ज्योंही गोल चकरी घुमाकर अपने कंधे से दबाव बनाते हैं और प्रतिउत्तर में फाटक से "खट" की आवाज़ निकलती है तो आपके सारे अरमानों पर पानी फिर जाता है। वैसे यह एक कठिन क्षण होता है जब आप एक छोटी यात्रा में भी तमाम चक्रव्यूहों को तोड़ते हुए मुख्य द्वार पर ही मुंह की खा जाते हैं।फिर क्या आप एक फाटक पर कन्धा टिकाकर सबसे प्रबल दावेदार का दावा ठोंकते हैं और अपना दूसरा पैर दूसरे फाटक पर लगा कर यह संदेश देते हैं कि यदि दूसरा विकल्प खुला तो यहाँ भी मैं अड़सा करूंगा जैसे कोई नेता दो विधानसभा से पर्चा दाखिल करे। बात यही तक नहीं है अभी भी निगाह दूसरे छोर के शौचालयों पर टिकी रहती है की यदि वहाँ की सीट खाली हो गई तो वहाँ से भी पर्चा भर सकता हूँ लेकिन यह आपकी जिद्द और भ्रम मात्र है क्योंकि वहाँ के क्षेत्रीय लोगों की तुलना में इतनी दूर से पहुंच कर अपनी दावेदारी ठोक पाना बहुत कठिन होता है। आप हारकर सिर्फ इस पर ध्यान लगाते हैं कि किस शौचालय का नल पहले खुल रहा है लेकिन यह सिर्फ आपका एक कयास मात्र है क्योंकि अन्दर बैठने वाला व्यक्ति पानी को कितने किश्तों में प्रयोग करेगा यह आप नहीं जान सकते इसलिए आप भीतर के वातावरण से आ रही ध्वनि के आधार पर सिर्फ एक अनुमान लगाते हैं और अपने को न०एक पर प्रतीक्षारत होने का अभिनय करते हैं।
वैसे रेल के शौचालयों के प्रवेश पाने का कोई नियम या क्रम नहीं होता क्योंकि किसके भाग्य में पहले प्रवेश लिखा है वह निर्भर करता है कि अन्दर बैठने वाला कितनी जल्दी निपटान करता है और आप कितने तक्षण गति से उसके निकले से पहले ही अपना एक कदम शौच में घुसा दें कि वह निकलते-निकलते इतना जरूर आपत्ति करे कि अरे भाई "निकल तो जाने दो"
एक सबसे बड़ी समस्या यह कि चार शौचालयों में इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उसमें से कितने शौचालय बैठने योग्य हैं क्योंकि भारतीय बात करने में कितने भी निशानची बनें लेकिन शौच के चार इंच त्रिज्या से बने परिधि में सीधी बमबारी करने में जाने कैसे शरीर कांप जाता है और सबसे मजे की बात यह कि आप अपने से पहले वाले व्यक्ति पर आरोप भी नहीं लगा सकते क्योंकि वह भी दूसरे पर थोप कर गरिया कर चलता बनेगा भले ही उससे ही सारा निशाना चूका हो। आप दस मिनट प्रतीक्षा करने के बाबजूद भी दरवाज़ा बंद करके दूसरे जगह आवेदन करने चले जाते हैं लेकिन वहाँ से निकलने वाला व्यक्ति जाते-जाते धीरे से कहता है कि पानी नहीं हैं ओह्ह...... इसके बाद भी आपके भीतर मनोबल जैसी कोई चीज है तो निसंदेह आपको दुनिया की कोई ताकत आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती।
रेल के शौचालयों में महिला और पुरूष के नाम से वर्गीकृत न होना भी एक बड़ी समस्या है क्योंकि आप भले कितनी देर से खड़े हों लेकिन यदि आपके बराबर में कोई महिला खड़ी हो जाये तो आपके मन में इतना जरूर ख्याल अवश्य आता है कि 'लेडिज़ फर्स्ट' भले ही भीतर ही भीतर आप टूट कर बिखर रहे हों।
इतनी सारी जद्दोजहद के बाद यदि आपको माकूल जगह मिल भी गई तो जरूरी नहीं कि आप शौच प्रक्रिया का निस्तारण अपनी इच्छा से कर ही लें क्योंकि कब ट्रेन से एक ध्वनि निकलने लगे और वह यह संकेत देने लगे कि वह किसी स्टेशन पर ठहरने वाली है और ठहरे हुए रेल पर अधिकांश लोग ठहर ही जाते हैं। सोचते हैं कि रेल चले तो हम भी चलें। वैसे कोई जरूरी नहीं कि रेल रूकी हो तो आप भी खुद को रोक लें लेकिन ज्यादातर लोग ठहर ही जाते हैं क्योंकि नहीं ठहरेंगे तो ट्रेन गुजरने के बाद उस शौचालय के समानांतर प्लेटफार्म पर खड़ा यात्री बिन गरियाए मानेगा नहीं।
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर