भानुमति- 3

Update: 2017-10-23 03:56 GMT
प्रथा के अनुसार युवराज दुर्योधन और कुमार दुःशासन कुछ अन्य मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर के द्वार से एक योजन आगे जाकर कृष्ण, उद्धव और सात्यकि का स्वागत करते हैं। कृष्ण अपनी बुआ कुंती और फुफेरे भाइयों की असामयिक मृत्यु पर शोक प्रकट करने आये हैं। सभी ने शोकसूचक श्वेत वस्त्र पहने हैं। कृष्ण अत्यंत दुखी मनस्थिति में हैं परंतु फिर भी वे देख पा रहे हैं उनके चमत्कारों, पराक्रमों को जानकर उनके स्वागत में खड़ी भीड़ कितनी दुखी है, पांडवों के जाने का वास्तविक दुख आम जनता को ही है। 

वहीं दुर्योधन है जो स्पष्टतः दुखी दिखने का भरसक प्रयत्न कर रहा है, हालांकि नितांत असफल है। शकुनि के प्रयत्न वास्तविक प्रतीत होते हैं, आंखों से अविरह अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं, कभी-कभी तो सिसकियां भी निकल जाती हैं। थोड़ी ही दूर एक सुदर्शन योद्धा है जिसे पहचानने में किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। ये अंगराज कर्ण हैं, कर्ण का वास्तविक परिचय पिता वसुदेव ने दिया है। ये एक ऐसा रहस्य है जो कुछ लोगों को ही ज्ञात है।

अगली सुबह कृष्ण अपने साथियों सहित राजा धृतराष्ट्र से मिलने गए। राजा उदास प्रतीत होते हैं, पर बहुत संकुचित से हैं, जैसे ये विचार कर बहुत सोच समझ कर बोल रहे हों कि कहीं कुछ ऐसा ना निकल जाए जिससे यादवों को कोई भनक लगे।

पितामह भीष्म के भवन में जब वे विदुर के साथ गए तो पितामह ने उनका खुले दिल से स्वागत किया और बोले, "आओ वासुदेव, तुम कदाचित पहली बार ही हस्तिनापुर आये और हमारा दुर्भाग्य कि ये अवसर दुख का है। खैर, तुम्हारे पराक्रमों को सुनकर मेरी धारणा थी कि तुम कोई बलिष्ठ पुरुष होगे। आश्चर्य, तुम तो नितांत युवक सदृश्य हो। मेरे सामने बैठो, मुझे देखने दो कि कैसे तुम्हारी इन पेशियों ने मुष्टिक, चारुण और कंस जैसे मल्ल योद्धाओं का मानमर्दन किया होगा। तुम्हें देखकर मुझे मेरे अर्जुन की याद आती है वत्स"।

पितामह का इतना प्रेमपूर्ण और सहज व्यवहार देखकर कृष्ण को सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने हमेशा ही राजपुरुषों को अपने प्रति शंकालू ही पाया था, ये कैसा राजपुरुष है जो इतने साफ हृदय का है। थोड़ी नर्म आवाज में वासुदेव बोले, "पितामह, कुरु साम्राज्य को स्थिर करने, और धर्मस्थापना की आपकी सारी योजना तो धरी रह गई ना?" भीष्म ने ऐसे प्रश्न की आशा किसी युवक से नहीं की थी, उन्हें ध्यान से देखने के बाद कहा, "पांडव मानव रत्न थे वत्स। पांडु जब सिंहासन पर बैठा था तो मुझे लगा कि मेरा बोझ कम हुआ, पर उसने अल्पायु में ही सन्यास ले लिया। कितनी कठिनाइयों के बाद युधिष्ठिर को युवराज बनाया पर भाग्य। मेरा ये पुत्र अपने पिता जैसा ही था वत्स, वैसा ही वीर, दयालु, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, और उसके भाई भी कैसे कैसे। महाबली भीम, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, युद्ध के सबसे आवश्यक अवयव अश्वों के महान ज्ञाता, अभियंता नकुल और आज तक के कुरुओं में सबसे बुद्धिमान सहदेव।"

"तो पितामह, महाराज और आपने उन्हें निर्वासित क्यों किया?"

"हमने निर्वासित नहीं किया पुत्र, युधिष्ठिर ने खुद ही निर्वासन ले लिया। वो समझ गया था कि अगर पांडव यहां रहे तो गृहयुद्ध छिड़ेगा, रक्त की नदियां बहेंगी और, और फिर भी वे जीवित नहीं बचेंगे। परन्तु देखो, वे फिर भी मारे ही गए, भले ही दुर्घटना में ही मरे"।

"आपको पूर्ण विश्वास है पितामह कि ये दुर्घटना ही थी?" कृष्ण के इस प्रश्न से कदाचित भीष्म विचलित हो गए। वे ये बात स्वीकारना नहीं चाहते थे कि कोई कुरु अपने ही भाइयों की षणयंत्र द्वारा हत्या भी करवा सकता है। कृष्ण इस इतिहासपुरुष को प्रणाम कर अपने निवास लौट आये।
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पांडवों की मृत्यु को आज तीन महीने बीत गए है, शोक की इस अवधि में सारे ही औपचारिक और अनौपचारिक, राजकीय और नागरिक उत्सव रोक दिए गए थे। अब अवधि बीतने के पश्चात सभी समारोह मनाए जाने लगे हैं। 

भीष्म ने अपने आवास पर यादवों के सम्मान में राजकीय भोज दिया है। कृष्ण अपने मित्रों के साथ भोजन की पंक्ति में बैठे हैं, कुरुकन्याएं और कुरुवधुएं भोजन परोस रही हैं। उन्ही में एक पुष्पों से सजी बालिकासदृश्य सत्रह वर्षीय नववधू भानुमति भी है। दुर्योधन की पहली पत्नी के असफल प्रसव में मृत्यु होने पर उसकी छोटी बहन भानुमति कुरु साम्राज्य की बहू बन कर आई है। कुछ तो कम आयु और कुछ काशी के उन्मुक्त वातावरण का प्रभाव, भानुमति अन्य कुमारियों की अपेक्षा अधिक खुले स्वभाव की है। 

सौन्दर्यप्रेमी कृष्ण भानुमति को जितनी बार देखते हैं, उसे अपनी ओर ही देखता पाते हैं। उन आखों में चंचलता के साथ स्वयं के प्रति पूज्य भाव भी दिखता है उन्हें। वो है भी तो कितनी आकर्षक। बारम्बार प्रेम से कुछ ना कुछ थाली में डाल ही देती है, राजकीय मर्यादा तो जैसे उसने सीखी ही नहीं। 

भोजनोपरांत जब अतिथि विदा होने लगे तो सभी कुरुनारियों को पीछे छोड़ भानुमति सबसे आगे हाथ जोड़े खड़ी हो गई। जैसे ही कृष्ण उसके सामने से जाने वाले होते हैं वो हठात पूछ बैठती है, "कान्हा, आप यहां सुख से तो हैं?" कृष्ण ने कान्हा सम्बोधन वर्षों पहले सुना था, ये तो उनकी राधा उन्हें बुलाती थी, जिसे वे जाने कब छोड़ आये थे। अकस्मात ही भानुमति के प्रति उनके हृदय में प्रेम उमड़ आया, जैसे अपनी द्वारिका की किसी गोपबाला से बात कर रहे हों, "आप लोगों ने इतना प्रेमपूर्वक रखा हमें, सुखी क्यों नहीं होंगे हम"। वे और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे पर पितामह की तीक्ष्ण दृष्टि के प्रकोप से बचकर बाहर निकल गए। उस संध्या कृष्ण बहुत लोगों से मिले, पर उन्हें रह रह कर उस सुंदरी, उस किशोरी की याद आती रही। 
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अजीत प्रताप सिंह
वाराणसी

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