अब साहित्य बदल रहा है....

Update: 2017-10-26 03:56 GMT
अक्टूबर नवंबर का महीना युवाओं के लिए बड़ी परेशानी का होता है।मौसम से जैसे मुहब्बत हुई जाती है, दिल कमबख्त समन्दर होना चाहता है, ख्वाहिशें जैसे आसमान। लेकिन गवाह है समाजवाद कि यूपी में सबसे ज्यादा परेशान हम युवा ही हैं। वो चाहे अखिलेश यादव हों या असित कुमार मिश्र।खैर आज की बात नहीं करनी है मुझे। लगभग महीने भर पहले मध्य प्रदेश से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका अभिमत के सहयोग से एक कहानी प्रतियोगिता हो रही थी शीर्षक था 'मौत' और आयोजक थीं संयुक्त जिलाधीश लक्ष्मी मैम।
मुझे भी उड़ते हुए खबर मिली लेकिन मैंने इस प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया। मध्य प्रदेश के एक मित्र ने कहा भी कि- असित भाई आप भी 'कॉम्पीटिशन' में 'पार्टिसिपेट' कीजिए। 
मैंने बताया कि- दोस्त हम यूपी वाले हैं। जिस कॉम्पिटीशन में पार्टिसिपेट करते हैं वो कमबख्त हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से मुहब्बत कर बैठती है। देख लो प्राइमरी में आवेदन किया मामला कोर्ट में। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में फार्म डाला मामला कोर्ट में। उच्चतर में डाला वो भी कोर्ट में। हालांकि हम ठहरे जन्मजात चतुर। अभी मध्य प्रदेश कोर्ट का फार्म आया था चपरासी का। भर आए हैं फार्म! लो भाई अबकी डायरेक्ट कोर्ट में ही अप्लाई मार दिए। देखते हैं अब क्या करते हो। 
इधर हिन्दी वालों ने अफवाह फैला दी है कि आयोजक से अगर जान पहचान हो तो फिर भारत भूषण से लेकर ज्ञानपीठ तक अपना ही बूझिए। इसी चक्कर में हमने भी लक्ष्मी मैम को 'मिस्ड काल' किया। उधर से फोन आने पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि मैम सुना है आयोजक आप ही हैं तो लग रहा है जैसे मैंने अभी से जीत लिया पुरस्कार। 
मैम ने कहा - बेटे ऐसा कुछ नहीं है। जिसकी कहानी सबसे ज्यादा पसंद की जाएगी वही विजेता होगा और एक्सपर्ट टीम में 68 लोग हैं। ज्यादातर आइएएस और पीसीएस बाहर का कोई नहीं आएगा। 
मैंने कहा - अरे छोड़िए भी मैम। आप मेरे साथ हैं तो फिर जमाने की बात क्या करनी। 
मैम ने कहा था कि - बाबू ऐसा कुछ नहीं है मुझे वोट देने का अधिकार नहीं है। 
मैंने कहा - मैम ऐसा न कहें आखिर मुहब्बत की है मैंने आपसे ... 
       लेकिन जैसे समाजवाद में अखिलेश जी की सुनवाई नहीं हो पाई वैसे ही एक जिलाधीश की अदालत में हमारी मुहब्बत नाकाम हो गई । और टूटा हुआ दिल समेट कर हमने फोन काटा और कहानी लिख भेजी 'मौत'। जिसे आप पाठकों ने कुछ दिन पहले ही मेरी वाल पर पसंद किया। 
वहाँ भी मेरी यह कहानी बहुत पसंद की गई। लेकिन श्री राकेश चौहान जी और श्री पीयूष कुमार शुक्ल जी ने मेरे खिलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया। अफवाहें फैलाई गई कि असित कुमार मिश्र प्रतियोगिता छोड़ चुके हैं, उन्होंने अपना समर्थन दे दिया है वगैरह वगैरह।करते करते 25 तारीख के शाम के पांच बज गए थे अब फाइनल रिजल्ट आना था। लक्ष्मी मैम से बात करने का बड़ा मन था लेकिन पहले ही डांट सुन चुका था कि परिणाम से पहले कोई बात नहीं होगी,मैसेज भी नहीं। 
हालांकि पचास प्रतिशत से ज्यादा लोग मेरी तरफ थे। रश्मि जी और उषा जी प्रतियोगी होकर भी मुझे वोट कर चुकी थीं लक्ष्मी मैम के दो तीन पुत्र गण भी मेरी तरफ ही थे लेकिन भइया यूपी में जब तक सिंदूर दान नहीं हो जाता तब तक बियाह पर भरोसा नहीं होता। 
         पांच बजे परिणाम आना था लेकिन छह बज गए थे और सूचना मिली कि अपरिहार्य कारणों से परिणाम रोक दिया गया है। हम तो समझ गये कि मामला कोर्ट में गया। अब पांच साल से पहले कुछ नहीं होगा। मेरे समर्थकों ने हंगामा किया कि असित जीत चुके हैं। आयोजक परिणाम की घोषणा करें लेकिन हाय रे भाग्य... 
सात बज चुके थे अब हम घर में आए और आटा गूंथने लगे। कुछ पानी और कुछ आँसुओं से आटा अपनी रंगत पकड़ ही रहा था, इतने में धनंजय ने खबर दी कि बाहर एक बड़ी सी गाड़ी आई है। लगा कि कोई दोस्त मित्र होगा गाड़ी दिखाने लाया होगा। क्योंकि नेता और तिलकहरु दोनों मेरे यहाँ नहीं आते। मैं हाथ मुँह धोकर बाहर निकला और नमस्ते के बाद पूछा कि भैया कौन हैं आप? 
तीन आगंतुकों में से एक ने कहा - मैं आपका प्रबल विरोधी पीयूष कुमार शुक्ला पन्ना मध्य प्रदेश से। फिर उन्होंने बाहों में भरकर मुझे जीत की शुभकामनाएँ दी। इधर हृदय था कि वामपंथी हो रहा था, दो आँखें थीं जो समाजवादी हो रहीं थीं और कान तो जैसे कांग्रेस की तरह निष्क्रिय। 
    फिर पीयूष भैया ने मुझे मेरे घर में पुरस्कृत किया पुरस्कार राशि पच्चीस हजार रुपये दिए।फोटो और विडियो क्लिप मध्य प्रदेश के समाचार चैनल और अभिमत पत्रिका तथा आयोजन टीम को भेजा गया।मेरी अम्मा से पीयूष भैया ने मेरी तारीफ करनी शुरू की लेकिन अम्मा के पास अपनी समस्याओं का भंडार है कि ये नालायक है, कुछ नहीं आता इसको... भगवान् ही मालिक है इसका.... अच्छा! आप चाहे हिंदुस्तान जीत आइए भारतीय अम्माओं की नज़र में नालायक ही रहेंगे।
         खैर! यह सब तो होता ही रहेगा। मुझे लगता है हिंदी में पहली बार कोई अकादमी लेखक के पास पुरस्कृत करने तब पहुंची थी, जब श्रीलाल शुक्ल चंद साँसों के मेहमान थे और कोई जरूरत नहीं थी उन्हें उस पुरस्कार की। और दूसरी बार कोई साहित्यिक समूह ने मध्य प्रदेश से चलकर उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक बहुत छोटे से पिछड़े हुए गांव में कदम तब रखा है, जब एक लेखक ने अभी चलना शुरू किया है।बहुत जरुरत थी मुझे इस सराहना की। इसीलिए कहा है मैंने कि अब साहित्य बदल रहा है। लेकिन हाँ अब एक लेखक की जिम्मेदारी बनती है यहाँ। यह भी दुर्भाग्य है मेरा कि अध्यापक बनना है लेकिन बन नहीं पा रहा और लेखक बनना नहीं था लेकिन बनता जा रहा हूँ। अब तो एक प्रतिष्ठित प्रकाशन ने भी कहा है कि असित भाई आपका उपन्यास हम प्रकाशित करेंगे और कलम से लेकर कापी तक उपलब्ध कराएंगे बस आप लिखिए। 
        कल एक तरफ मेरे बाएं हाथ में पच्चीस नए नए नोट थे। और दाहिने हाथ में मेरी सैकड़ों लालसाएँ। आईफोन से लेकर जूते कपड़े या वो बहुत सारी चीजें जिन्हें एक अर्से से मैं खरीद नहीं पाया। लेकिन फिर मैंने सोचा कि जिस वंचित और उपेक्षित वर्ग की बातें और कहानियाँ लिख कर मैं असित कुमार मिश्र से राइटर असित कुमार मिश्र बन गया, उन लोगों के प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? जिन बच्चों के पास न कापियां हैं न किताबें न लालटेन न ढंग के कपड़े क्या वो बस मेरे लेखन के लिए सब्जेक्ट हैं? और कुछ नहीं? 
खैर! आज दिन भर की मेहनत के बाद सैकड़ों कापियां, किताबें, सोलर लैंप और कपड़े खरीद लिए गए हैं। बस कल परसों में सैकड़ों मासूम बच्चों के चेहरों पर एक प्यारी सी मुस्कान होगी। उनके लिखे जा रहे भविष्य में एक पन्ना या एक कलम हमारा भी होगा। मौत शीर्षक कहानी को भी जिंदगी में बदलने की एक छोटी सी कोशिश है। मैं चाहता हूँ आप सबका सहयोग मिले इसमें। 
लेकिन इसके लिए मुझे कोई एनजीओ नहीं चलाना कभी भी अपने अकाउंट में एक रुपये किसी से भी नहीं मंगाने। बस आप जहाँ भी हैं वहीं से किसी जरूरतमंद की मदद करें।जिन बच्चों को पेंसिल कापी किताब सोलर लालटेन की जरूरत हो उन्हें दीजिए। कोई जरूरी नहीं है कि मेरी तरह पूरे पच्चीस हजार रुपये खर्च करें, एक कलम खरीदिए किसी बच्चे को दे दीजिए। सौ कापियाँ डेढ़ हजार में आ रही है। खरीदिए और किसी सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाकर बच्चों में बांट आइए बिना नाम विज्ञापन या किसी प्रचार के। अगर आप महिला हैं तो सौ पेन खरीदिए पांच सौ में। और किसी सरकारी प्राथमिक विद्यालय के पास स्कूटी रोकिए प्रधानाचार्य से कहिए कि सर एक मिनट! और सारे पेन बच्चों में बांट कर स्कूटी उठाइए और गायब। यह आदर्शवाद नहीं है न ही लोकप्रिय होने का तरीका। यह वो खुशी है जो छोटी छोटी चीजों से हमें ही मिलती है। यह वो सहयोग और आपसी प्रेम की भावना है, जो आजकल लेखक बस कहानी में लिख रहा है। अब लेखक को भी बदलना होगा और पात्रों को भी बदलना होगा। 
हाँ यह जरूर कहूंगा कि पैसे नहीं देने हैं किसी को भी। चाहे वो कोई भी हो। बस आप कीजिए और खुद कीजिए। 
अंत में अपने सभी पाठकों अभिमत पत्रिका लक्ष्मी मैम और शुभचिंतकों का आभार। आकाश भर बधाई भी क्योंकि 'मैं' नहीं 'हम' जीते हैं।यह विजेता उपविजेता पाठक वोटर्स और सपोटर्स सबकी जीत है क्योंकि जिन वंचित बच्चों के लिए मैं कुछ करने जा रहा हूँ वह आपके सहयोग के बिना संभव ही नहीं था। 
पीयूष कुमार शुक्ला सर मुकेश मिश्र जी और डाक्टर नरेंद्र भैया का बहुत आभार कि इतनी मेहनत से मध्य प्रदेश से चलकर मेरे गाँव तक आए। यह आप लोगों का प्रेम ही था वर्ना पुरस्कार राशि तो अकाउंट में भी आती ही है। आयोजक लक्ष्मी मैम की निष्पक्षता और कार्यकुशलता की तारीफ़ पहले भी कर चुका हूं आज बस नमन। 
असित कुमार मिश्र 
बलिया

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