प्यार दीवाना होता है.....: नरेंद्र पाण्डेय

Update: 2017-10-27 04:28 GMT
बाबा सर्वेश तिवारी प्रेम पचीसी के ब्रह्म हैं
जगत मिथ्या एकोहम्।
द्वैत,विशिष्टाद्वैत नहीं अद्वैत मूर्ति, महारसायन बाबा जब आनंद रस छीटते हैं तो प्रेम ग्रंथकार दौड़ पड़ते हैं प्रेम पंचामृत लेने।
जब कबूतरी नाऊन ने अनटोल्ड स्टोरी की स्टोरी को न कहने की मियाद पूरी कर ली तो उसके जीयरा में हूक उठना शुरू हो गया।
कबूतरी बाबा के अच्छे दिनों की बुरा सपना थी।बाबा को देख देख अपना तीज त्यौहार का ब्रत खोलने वाली कबूतरी बाबा के लिये नागफनी हो गयी।प्रेम की कातर हिरणी आँख में मनार का दूध पड़ गया और दूध में खटाई।
बाबा को विरक्ति हो गई उस देह से जिसके चरण रज को बाबा ताम्बूल में जाफरानी सा पवित्र मान कर अधर से लगाते न अघाते उसी देह से सड़ांध बदबू महसूस होती थी। कबूतरी के उस सामीप्य से जिसकी की कल्पना से ही रोम रोम में कामेश हो जाता था वही वितृष्णा का कारण बन गयी। हाय रे नियति! जिस सुमेरू के कमल दल का स्पर्श कर बाबा सभी तीर्थ का पूण्य पा लेते वही आज रौरव नरक प्रतीत होता है। विवशता नें उन्हें बाँधा न होता तो वे कब का पुरोहिताई यजमानी का निकृष्ट कर्म छोड़ कर बबीतेश की शरण में चले जाते भले ही आये दिन आलोक की तरह घर बाहर दोनों जगह पिछवाड़ा पर दूनों जून लाल सलाम होता। दागे गये साँढ के मालिक को जितना गालियों को सहना पड़ता है उससे अधिक बाबा को कबूतरी द्वारा दाग कर छोड़ देने पर है।
जितने जजमानों के उपरोहित बाबा थे सबकी नाऊन कबूतरी थी ककन छोड़ाने से लेकर कंगन पहनाने तक बाबा के साथ साथ परछांई की तरह लगी।
तब कबूतरी का रूप लावण्य छरहरी काया अमरबेली सी भुजलताऐं उन्नत मेरू सबकुछ कितना मनोहारी था। बाबा की वामी कामना नें ऐसा जोर मारा कि प्रणय निवेदन कर डाला और थोड़ी हीला हवाली के बाद बाबा को वाँछित मिल ही गया। प्रेम रस नें सभी रसों को ठेंगा दिखा दिया। दीन दुनिया से बेखबर लहरों के लहरी प्रेम के जौहरी बाबा के करतब की खबर धीरे धीरे गाँव के कुँवारों, लाचारों, बेचारों से होते हुए दुआरों तक पहुँचने लगी तो प्रेम गले का मणिहार बनते बनते कटार बनकर बाबा की गर्दन पर लटकने लगा।

कबूतरी, जिसने जीवन के बसंत को बाबा रूपी संत के आशीर्वाद से देखा, निर्जन, बसवारी, फूलवारी सभी बाबा और कबूतरी के प्रणय साक्षी थे। 
और आज फिर बाँसवारी में मिलन तय था।
अंतिम मिलन ..
पत्तों नें आहट की और बाबा का चंद्राभ चेहरा दीखा।
व्याकुल नदी समुन्दर समुद्र से मिलने को दौड़ पड़ी लेकिन   
हाय रे दुर्भाग्य! 
धरिहे...
धरिहे... की आवाज और विदेशी चोरबत्ती की रोशनी नें उसे जड़ कर दिया।
किंकर्तव्यविमूढ़.. कबूतरी की आँखों में अंधेरा छा गया।
दूसरे दिन गाँव के लोगों में चर्चा थी कि बाबा के प्रेम ग्रंथ के पात्र कल रात गाँव में थे और बाबा की उन्होंने ही जमकर खातिरदारी की थी।
मोतीझील के किनारे कबूतरी आज भी नाक से माँग तक सेनूर लगा कर बाबा को ढूंढती है।
काश ! उसकी मनोदशा मैत्रैयी पुष्पा समझती..
समझता वो सर्वेश जिसने केवल नाम धारण किया..
कबूतरी की माँग का सेनूर आज भी धूमिल नहीं।
कबूतरी गाती है..

कब लोगे खबरिया हमारी ऐ रजऊ !

नरेंद्र पाण्डेय

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