लम्बी कहानी : अन्तिम पत्र

Update: 2017-10-28 13:45 GMT
"गुड़िया की मम्मी ! लग रहा है कि डॉक्टर ने जबाब दे दिया इस बार ।" अमर नें बिस्तर पर करवट बदलते हुए सुमन से शंका व्यक्त की।
"नहीं ऐसा नहीं है ,डॉ० साहब बोल रहे थे कि अब अस्पताल की कोई जरूरत नहीं है। केवल दवाओं और सेवा की जरूरत है आपको।" कहते-कहते गला रुंधने को आया तो सुमन आंखें चुराकर कमरे से बाहर निकल गयीं। अमर बाबू सब समझते हैं। रोज तीमारदारों का आना-जाना , उनकी झूठी सान्त्वना ,बात-बात में ईश्वर पर भरोसा ! कमरे में बिखरीं दवाइयाँ, रिपोर्ट्स यह सब समझने के लिए पर्याप्त है कि अब जीवन के शेष दिन बस गिनने के हैं।
अमर रजिस्ट्री आफिस में बाबू हैं । अभी पिछले आठ माह से मेडिकल लीव पर हैं । बीमारी के पहले की जिन्दगी बेहद संतुलित और सुखद ढंग से माँ, पत्नी और दो बच्चों के साथ चल रही थी। लेकिन अचानक से सब बदल गया। घर की सारी दिनचर्या अमर बाबू के इर्द-गिर्द केन्द्रित हो गई। परिवार के अतिरिक्त अमर बाबू का बाहर की दुनिया में भी एक वृहद समाज है। दुनियाभर के परिचितों एवं शुभचिंतकों में उनके दो मित्र दिवाकर और संजय उनके कालेज के दिनों के मित्र हैं। नौकरी और परिवार के बाद का अपना अधिकतम वक्त अमर अपने दो मित्रों के संग ही गुजारते थे। बीमारी के दौरान दिवाकर और संजय भी ड्यूटी से खाली होने के बाद अमर के पास जरूर आते। अमर को दुनिया में अपने इन दो मित्रों पर अगाध विश्वास भी था।

एक दिन सुहब-सबेरे अमर बाबू ने अपने बेटे अमित को आवाज़ लगायी- " बाबू अमित"
"हाँ पापा"
"बेटा मुहल्ले के तीसरी गली में ट्रांसफार्मर के सामने जो शंभू सेठ की दुकान है , उसके बायीं तरफ दो मकान छोड़कर पोस्टमैन शिवशंकर गुप्ता जी का मकान है। बेटा जरा उनको बुला लाना और मेरा परिचय देकर बताना कि पापा को आपसे एक जरूरी काम है।"
"समझ गये न?" अमर बाबू ने जांचना चाहा।
"जी पापा ! मैंने देखा है उनका घर।"
अमित साइकिल निकाल कर तुरन्त चल दिये शिवशंकर बाबू को बुलाने और लगभग बीस मिनट बाद शिवशंकर बाबू अपनी साइकिल से अमर बाबू के घर पहुंचे।
कमरे में घुसते ही अमर बाबू ने अमित से कहा "बेटा चाचा के लिए चाय बनवाइए और फाटक बाहर से भिड़का दिजिये !"

"और अमर बाबू तबियत कैसी है आपकी ?"
"तबियत का क्या गुप्ता जी जब तक जिन्दगी चल रही है तब तक तो ठीक ही है।"अमर बाबू बिस्तर पर कुछ बैठने के अंदाज़ में बोले ।
"गुप्ता जी आइए इधर मेरे करीब बैठिए। कुछ आवश्यक बात करनी है आपसे ।" गुप्ता जी अपना ऐनक निकालते हुए गंभीर भाव लिए अमर बाबू के तख्त पर बैठ गये - "बताइए अमर बाबू!"

"आप तो जानते ही हैं गुप्ता जी गुर्दे की बीमारी कितनी घातक है! डॉक्टर ने भी जबाब दे दिया केवल दिन ही गिनना है बस।"
"अरे ! ऐसी बात नहीं बोलते अमर बाबू ईश्वर पर विश्वास रखिये सब ठीक हो जायेगा... सब ठीक।"
"चलिए जो प्रभु की आज्ञा होगी उसे तो मानना ही है" बात करते ही अमर बाबू ने अपने सिरहाने से दो पत्र निकाले और पोस्टमैन साहब को थमाते हुए कहा-"गुप्ता जी मैं आपको यह दो पत्र दे रहा हूँ । इसे मेरे दो मित्रों के घर पहुंचाने हैं। लेकिन शर्त यह है कि इसे आप मेरे मरने के कुछ दिन बाद उन्हें सौपेंगें!"

"अरे क्या बात कर रहे हैं अमर बाबू ? साहस रखिए सब ठीक होगा....
वैसे ठीक है ! मैं आपका यह पत्र अपने पास रख ले रहा हूँ लेकिन आप देखिएगा कि यह पत्र मुझे उन्हें देने की जरूरत नहीं पड़ेगी । मुझे परमपिता परमेश्वर पर पूरा विश्वास है।" इस झूठी दिलासा के साथ गुप्ता जी ने पत्र को अपने अगली जेब में तो रख लिया लेकिन उनका स्वर उनके दिलासे की तरह ही नितान्त खोखला लग रहा था।

डॉक्टर भी अपनी अन्तिम हद तक कोशिश करता है कि कोई मरीज उसके पास से निराश होकर न जाये । लेकिन जब वह मरीज को जबाब दे देता तो शरीर वैसे ही ढलने लगता है जैसे सांझ की बेला में क्षितिज की कोख में सूरज। अमर बाबू का स्वास्थ्य बहुत तेज़ी से गिरने लगा। खाना-पीना सब छूटने लगा। उस रात वो बहुत बेचैन थे । सभी को अपने पास बिठाकर सबका मुहँ देखते और उनके आँख के कोरों से एक पानी की लकीर लगातर बनती जा रही थी। मोह की पराकाष्ठा एवं पूर्वाभास से भयभीत अमर बाबू भोर में तीन बजे , जब घर के सभी सदस्य उनको घेर कर खड़े थे , तो अपने पत्नी की गोद में सिर रखकर अपनी अनंत यात्रा पर चले गये । हांलाकि उनकी आंखें सबको देखना चाह रही थीं किन्तु उन्हें जबरदस्ती काल हाथ पकड़कर खींच ले गया । शरीर यहीं छोड़ गया लेकिन सब लेकर चला गया... सब॥

सच सबको पता था कि अमर बाबू की जिन्दगी केवल गिनती के हैं , लेकिन सच की कल्पना और सच्चाई में एक बड़ा फर्क था। पूरे परिवार के रोने-चिघ्घाड़ने से पूरा मुहल्ला जग गया । अपनी तकलीफ़ को कम करने के लिये खुद को चिता पर जलाना भी है, क्योंकि जिसे जलाना था उसे तो कुछ खबर ही न थी।
सच तो यह है कि वक्त का मरहम न हो तो इंसान का जीवन कठिन हो जाये । लेकिन वक्त रुलाते-रुलाते अन्दर से इतना हल्का कर देता है , कि इंसान भूल तो नहीं पाता लेकिन खुद को संभाल जरूर लेता है .. कुछ कदम अपने लिए चलने लगता है।
आज अमर बाबू को गुजरे एक माह हो गये पर लगता ही नहीं कि घर के भीतर कोई रहता भी है। अमर बाबू की अम्मा ने तो बिल्कुल दाना-पानी ही छोड़ दिया है। अगर जबरदस्ती कोई दो कौर न खिलाये तो वो भी न खायें। बस गुड़िया की अम्मा सीने पर पत्थर रखकर सबको सम्भाल रहीं हैं ,क्योंकि घर की जिम्मेदारी तो उन्हीं पर है न !

शिवशंकर बाबू का वादा कुछ ही दिनों में टूट गया।अमर बाबू के वह पत्र , जिसको थामते वक्त शिवशंकर बाबू ने अमर बाबू को जीवन की झूठी दिलासा दिलायी थी ... आज बुझे मन से पत्रों को निकाल कर शिवशंकर बाबू फिर अपने शर्ट की अगली पाकेट में रखकर निकल पड़े दिये गये पते पर ।

सुबह सात बजे दिवाकर अपने घर के सामने डाकिया देखकर चौंक पड़े । 'दिवाकर बाबू का घर यही है न!' शिवशंकर जी ने ऐनक के ऊपर से नजर उठाकर पूछा ।
'जी मै ही हूँ दिवाकर त्रिपाठी'
"त्रिपाठी जी, यह पत्र आपके दिवंगत मित्र स्व० अमर बाबू ने आपको देने को कहा था।"
"अमर.....!"
"हाँ त्रिपाठी जी ! अमर बाबू ने दिया था और इस शर्त के साथ कि इस पत्र को मैं उनके मरणोपरांत आपको सौंपूँ।"
इतना सुनते ही दिवाकर के तो जैसे पैर काँपने लगे , धड़कने तेज हो गयीं। दिवाकर पत्र लेकर इतनी तेज़ी से अपने घर में दाखिल हुआ कि उसे याद भी न रहा कि बाहर डाकिया भी खड़ा है और पत्र खोलते ही सोफे पर धप्प से बैठ गये।
हाथ लगातार काँप रहे थे। उन्होंने काँपते हाथों से पत्र को खोला। पत्र के अक्षर पानी में डूबे सिक्के की तरह हिल रहे थे और अक्षर अमर की शक्ल में दिवाकर की तरफ़ देख रहे थे । 
दिवाकर ने पत्र पढ़ना शुरु किया-

प्रिय दिवाकर

मैं जानता हूँ कि यह पत्र खोलते ही तुम्हारे हाथ काँपने लगे होंगे। मेरा चेहरा तुम्हारे आँखों के सामने अवरोध बन रहा होगा। तुम्हारे मानस पटल में मेरी स्मृतियाँ,तुम्हारे हृदय से टकराकर तुम्हें व्यथित कर रही होंगी। मुझे पता है कि जब तुम यह पत्र पढ़ कर खत्म करोगे तो तुम्हारे मन में यह ख्याल अवश्य आयेगा , कि मैंने यह बात तुमसे अपने जीते जी क्यों नहीं कही ! जबकि तुम मुझसे रोज मिलने आते थे। हम घंटों बातें भी करते थे।
हाँ , मैं कह सकता था लेकिन तुम मुझे कहने नहीं देते। तुम मुझे मेरे जीवन की झूठी दिलासा देकर मेरे मुंह पर हाथ रख देते । यह भी हो सकता था कि तुम्हें अपने सामने देखकर मैं टूट जाता। मेरे आँसूओं और मेरी भावुकता के तूफ़ान में मेरे शब्द, उड़कर कहीँ बिखर जाते।
दिवाकर मैं अपने पत्र की शुरुआत एक स्वप्न से करना चाहता हूँ। कल रात मुझे एक भयानक और विचित्र सा स्वप्न दिखा। मैंने देखा कि मैं अपने हाथों में खरगोश के चार नन्हें बच्चों को लेकर जंगल में एक वीरान रास्ते से गुजर रहा हूँ। खरगोश के चारों बच्चे मुझसे बहुत घुले मिले हैं कोई मेरे कन्धे पर टहल रहा है .. कोई मेरे बाजूओं पर ...कभी कोई कच्ची सड़क पर मेरे पीछे-पीछे दौड़ रहा है। मैं बिल्कुल मगन अपने दुनिया में मस्त, उन वीरान रास्तों पर चला जा रहा हूँ। तभी मुझे पीछे से एक परछाई सी आती दिखी । अपरिचित, खौफ़नाक परछाईं...! मैं उसे देखते ही अपने नन्हे खरगोशों को अपनी बाहों और हथेलियों में सहेज कर तेज कदमों से भागने लगा । लेकिन परछाईं भी उसी रफ्तार में मेरा पीछा कर रही थी। मैं भयभीत होकर दौड़ने लगा... और घूमघूम कर पीछे देखता , लेकिन परछाईं बिल्कुल मेरे करीब थी। दिवाकर तभी मैंने देखा कि तुम और संजय दूसरी तरफ से मेरी ओर आ रहे थे। तुम दोनों मुझे देखकर ठिठके ... लेकिन परछाईं तुम लोगों से पर्दा थी। मुझे हाँफते देख तुम मुझसे कुछ पूछना चाह रहे थे, लेकिन मेरे पास न तो इतना वक्त था और न ही साहस ... मैनें अपने खरगोश के छौनों को उतारकर जमीन पर रख दिया और बिन कुछ बोले , भागने लगा । परछाई ने मुझे स्पर्श किया और घबराकर मेरी नीद टूट गयी। दिवाकर मुझे नहीं पता कि मेरे स्वप्न में जंगल खरगोश और परछाईं किस चीज के प्रतीक थे लेकिन उस स्वप्न में भी तुम लोगों का मौजूद रहना मेरे लिए एक बड़ा संकेत जरूर था मेरे दोस्त.! मैं निश्चिंत था कि उन छौनों को एक सुरक्षित अवलम्ब मिल गया होगा ।

दिवाकर तुम तो जानते ही हो कि मेरे जीवन में तुम और संजय सबसे अभिन्न रहे हो। मुझे मेरी माँ और पत्नी के बाद शायद ही कोई तुम लोगों से बेहतर समझ पाया हो।
याद है न जब आफिस में मेरे एक अधिकारी ने मुझे फटकार लगाई थी और तुम मुझे देखते ही बोले कि आफिस में जरूर कोई बात हुई है। हालांकि मैं बहुत टालता रहा लेकिन तुमने वो बात उगलवा ही ली। 
याद है न दिवाकर जब भी मैं परेशान होता या खुद को कमजोर पाता, तो तुम लोगों के पास बैठता था। तुम लोगों का सानिध्य और सम्बल मुझे दुबारा से नयी ऊर्जा प्रदान करता था। मित्र आज फिर, मैं खुद को कमजोर महसूस कर रहा हूँ लेकिन तुम्हारे पास नहीं बैठना है मुझे । मुझे तो तुमसे केवल इतना ही बताना है कि जो नाव मैं बीच मझधार में छोड़ आया हूँ , उसमें बैठे मेरे बच्चे और मेरा परिवार कहीं लहरों को देखकर हौसला न छोड़ दे। कहीं ऊंची उठती हुयी लहरें, सनसनाती तेज हवाएं और दूर तक की फैली वीरानियाँ उनके धैर्य और साहस की पतवार न डिगा दे! वो समझ ही न पायें , कि उन्हें किस घाट पर अपनी नाव लगानी है। दिवाकर तुम्हें कुछ नहीं करना है मेरे दोस्त, तुम बस किनारे पर खड़े होकर उन्हें इशारों से बताना कि पतवार कैसे चलायी जाती है। मुझे मालूम है उनके हाथ बहुत नन्हें और कोमल हैं , लेकिन उनके नन्हें हाथों को देखकर नाव को मझधार में नहीं रोका जा सकता ! उन्हें उस पार तो उतरना ही है। दोस्त, मेरे बच्चे जब तुम्हें किनारे पर देखेंगे तो खुदबखुद पार आने लगेंगे। मैं यह नहीं कहता मेरे दोस्त कि तुम बीच धार में उतर जाना ! लेकिन जब वो किनारे तक पहुंचे तो अपना हाथ बढ़ा कर पतवार खींच लेना। हो सकता है कि तुम घुटनों तक भींग जाओ ... तुम्हें थोड़ी कीचड़-मिट्टी लग जाए लेकिन मेरे बच्चे जब तुम्हारे हाथों का स्पर्श पायेंगे, तो वो कितनी भी ऊंचाई पर पहुंचे उन्हें तुम्हारा यह स्पर्श मेरी मित्रता को उनकी जेहन में जिन्दा रखेगा।
 
दिवाकर मुझे पता है कि मेरे मरने के बाद मेरे परिवार को उनके जीवनयापन के लिए पैसों की बहुत परेशानी नहीं होगी । लेकिन मैं तुमसे इतना वादा चाहता हूँ कि मेरा बेटा अगर किसी चोराहे पर बेकार खड़ा हो तो उसके मन में इतना भय और सम्मान अवश्य रहे कि कहीं मेरे दिवाकर चाचा तो नहीं न आ रहे ! मैं तुमसे इतना वादा चाहता हूँ कि जब तुम मेरे घर के आस-पास से गुजरो तो पांच मिनट रुक मेरे घर का हाल-चाल जरूर ले लेना। दो मिनट मेरी माँ के पास जरूर बैठना..मेरे बच्चों की कॉपियां खोलकर जरूर देख लेना कि नम्बर पहले जैसे हैं कि कुछ कम होने लगे हैं।
दिवाकर जब तुम गुड़िया की अम्मा से पूछोगे कि 'भाभी कोई परेशानी होगी तो बताइएगा' , मुझे मालूम है कि वह निराश होकर अपने आँखों में आँसुओं को भरकर नजर नीची कर लेगी और अपनी कोई परेशानी का जिक्र तुमसे नहीं करेगी । लेकिन तुम्हारी यह संवेदना ही उसके लिए बहुत बड़ा सम्बल होगा। तुम्हारी यह संवेदना मित्रता शब्द के मूल्य को जिंदा रखेंगी और मेरा बेटा जब अपनी माँ के सामने अपने दोस्त की बातें करेगा , तो उन्हें भी बेटे के दोस्तों में भी कोई दिवाकर और संजय दिखेगा।
दिवाकर, गुड़िया की शादी के लिये मैंने इतने पैसे इकट्ठा कर दिये हैं कि वह ईश्वर की अनुकंपा से ठीक परिवार में चली जाये । लेकिन एक जिम्मेदारी है , जिसे तुमको आगे बढ़कर निभाना होगा । सम्भव है कि गुड़िया की मम्मी गुड़िया के जीवन के लिए इतना बड़ा फैसला लेने में घबराने लगेंगी। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरुरत होगी जो उनके फैसले पर अपनी सहमति की मुहर लगा सके । जब तुम किसी लड़के पर अपनी विश्वास भरी हामी भरोगे, तो गुड़िया की मम्मी गुड़िया को निश्चिंतता से विदा कर सकेंगी। दिवाकर उसकी शादी में तुम जहाँ बैठो तो लोग तुम्हारी जिम्मेदारी को देखकर यह महसूस करें कि यह घर बिन मालिक का नहीं हैं। अमित भी अपनी बहन की शादी में तुम्हें अपने करीब पाकर हिम्मत और आत्मविश्वास से अपने पिता से हस्तांतरित जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सके।
दिवाकर मुझे पता है कि पत्र खत्म करने से पहले तुम रोने लगे होगे। मित्र आज तुम्हारे आँखों में जो आँसू हैं न ... उसकी नमी भी कुछ सालों तक बची रह गयी, तो मेरा यह पत्र लिखना सार्थक हो जायेगा।
मैंने बिल्कुल यही पत्र संजय के लिए भी लिखा है केवल तुम्हारे नाम की जगह संजय लिखा है।
दिवाकर अब मैं पत्र लिखना बंद कर रहा हूँ और तुम्हारे लिए ईश्वर से कोई भी कामना नहीं कर पा रहा क्योंकि मुझे नहीं पता कि एक मृतक के आशीर्वाद का प्रतिफल क्या होता है!
यदि कोई गलती हुई हो तो क्षमा करना मित्र! 

तुम्हारा अमर

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर

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