ये जो कहानी मैं शुरू करने जा रहा हूँ, ये इतिहास की वो सच्ची कहानी है, जिसको जानबूझ कर भरतवंशियों को नीचा दिखाने के लिए इतिहास से हटा दी गई है। (आइये, अपना इतिहास पुनर्जीवित करें!)
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भूमिका- आप सबने पढ़ा, सुना ही होगा कि अफगानिस्तान की गजनी का महमूद गजनी, वहां से विजय करता हुआ चला और सोमनाथ मंदिर को तोड़कर, लूटकर चला गया। हमने भी उसकी वीरता के किस्से ही पढ़े हैं। वो निस्संदेह साहसी था, हिम्मती था। लेकिन ये सच नहीं है कि वो जीत कर ही वापस गया था। दरअसल कहानी कुछ और है, जिसको गुजरात के ही लेखक स्व. के. एम. मुंशी जी ने अत्यधिक शोध कर के लिखा है। उन्होंने अपनी पुस्तकों में जगह जगह 'उद्धरण (रिफरेन्स)' भी दिया हुआ है, कि कहाँ कहाँ से उन्होंने तथ्य लिया है।
मुंशी जी का संक्षिप्त सा जीवन परिचय- यंग इंडिया के संपादक, आजीवन भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष, मृत्युपर्यंत संस्कृत विश्व परिषद् के अध्यक्ष, १९५२-१९५७ तक उत्तरप्रदेश के राज्यपाल, १९५७ में ही भारतीय इतिहास काँग्रेस की अध्यक्षता भी किया। और भी बहुत से सम्मानित पदों पर वे आसीन होते रहे। अनेकों 'प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ' हैं, जिनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति 'कृष्णावतार' को जीना (पढना) शुरू किया है मैंने आजकल, जो कि सात खण्डों में है।
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कहानी-
घोघागढ़ के मजबूत कदकाठी और विकराल से दिखने वाले, चालीस वर्षीय सज्जन चौहान अपनी ही प्रतिछाया जैसी दिखने वाले अपने बीस वर्षीय सुपुत्र सामंत के साथ मंदिर के प्रांगण में वयोवृद्ध मुख्य पुजारी सर्वज्ञ जी के सम्मुख, पूजा के लिए खड़े थे। सर्वज्ञ जी अपने प्रमुख शिष्य शिवराशी, जो मंदिर के होने वाले उत्तराधिकारी भी थे, से अत्यधिक निराश थे। शिवराशी की कापालिक और तांत्रिक विधियों की आड़ में बढती लिप्सा, जुगुप्सा को मुख्य पुजारी की तेज और अनुभवी आँखें साफ़ साफ़ पहचान रही थीं। इसी लिए वो इस इस मंदिर और पाशुपत मत के इस संप्रदाय के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे थे। लेकिन आज उनकी चिंता का केंद्र बिंदु शिवराशी न होकर कोई और था।
सर्वज्ञ जी को सूचना मिल चुकी थी, कि गजनी का अमीर, महमूद इस विश्वप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर पर अपनी दृष्टि वक्र कर चुका था। मंदिर की समृद्धता के किस्से उसको ललचा रहे थे। इस मंदिर को भंग करके लूटने के लिए वो गजनी से निकल चुका है, और ज्यादा से ज्यादा एक पखवाड़े के भीतर, वो अपनी विशाल जलराशि जैसी सेना के साथ यहाँ पहुँच जाएगा। चिंता इस लिए भी बढती जा रही थी कि भारत के ज्यादातर राजा अपनी छद्म और तुच्छ अहम् की आपसी लड़ाइयों में अपनी अपनी शक्ति हार चुके थे। इसलिए महमूद और सोमनाथ मंदिर के रास्ते में आने वाला हर राजा या तो उससे संधि कर लेता था, या फिर अगर किसी ने अपनी मुट्ठी भर सेना के साथ प्रतिरोध करने की भी कोशिस की, तो महमूद ने जो हैवानियत का नंगा खेल रचाया, उसको सुन कर ही आगे आने वाले राजाओं ने उसको हाथ जोड़ कर मार्ग दे दिया।
हार कर समर्पण कर चुके राजाओं का वो सरेआम सिर कलम कर देता था। उसके सैनिक उस राज्य की हर वय की नारी के साथ बलात्कार करते थे, फिर उनको मार देते थे। प्रत्येक छोटे छोटे बच्चों के सीने में भाले घुसा कर, उसके सैनिक चौराहों से पाशविक अट्टहास करते हुए गुजरते थे। फिर उस राज्य की सारी कीमती वस्तुएं, और सुन्दर स्त्रियों को लूटकर वो उस राज्य में आग लगवा देता था। कुओं में इंसानों और जानवरों के मृत शरीर फिंकवा देता था, ताकि सारा जल प्रदूषित हो जाय। ये उसकी रणनीति भी थी, ताकि जब वो यहाँ से सारा धन लूट कर अपने देश वापस जा रहा हो, तब किसी बड़ी सेना के उसका प्रतिरोध करने की सम्भावना ही न बचे। जब सारी सम्पदा, पेड़ पौधे, बची हुई अन्न की कोठरियों इत्यादि को आग लगा दिया गया, तो कैसे कोई 'बड़ी सेना' वहां रुक कर उसका प्रतिरोध कर सकती थी, जहाँ घोड़ों, ऊँटों, खच्चरों इत्यादि के लिए घास, पत्ते, पानी ही न मिलें। सैनिकों के लिए अन्न न मिलें।
संधि कर लिए हुए राजाओं से भी इतना धन और सैनिक वो छीन लेता था, ताकि निकट भविष्य में कोई प्रतिरोध के लायक ही न बचे। जब धन ही नहीं रहेगा देने के लिए, तो क्यों सैनिक अपनी जान देने के लिए किसी राजा की ओर से लडेगा? उन सैनिकों के शस्त्रों को छीन कर महमूद हमेशा उनको अपनी सेना में, दोयम दर्जे में रखता था, ताकि सेना में कभी विद्रोह पनपने की गुंजाईश ही न बचे। हिन्दू सैनिकों के जिम्मे, साफ़ सफाई, घोड़ों खच्चरों के चारा पानी, और सैनिकों के लिए भोजन बनाने जैसे गैर महत्वपूर्ण कार्य ही थे। महमूद के सैनिक, खाना भी पहले बावर्चीयों के सारे प्रमुखों को चखवाने के कुछ देर बाद ही शुरू करते थे।
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"तुम लोग यथाशीघ्र पवन जैसी तीव्र गति से जाओ, और रेगिस्तान के पार तुम्हारे घोघागढ़ के सैनिकों को लेकर, महमूद को रोकने की सफल कोशिस करो वत्स। समय कम बचा है। बाबा सोमनाथ के इस पवित्र स्थल को यवनों के अत्याचार से बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ तुम पर है।" सर्वज्ञ जी ने चिंतित लहजे में कहा।
सज्जन सिंह ने सर्वज्ञ की चरण रज माथे से लगाते हुए कहा, "बाबा, घोघागढ़ में अगर एक बूंद भी रक्त शेष रहेगा, तो गजनी का अमीर वहां से एक पग आगे नहीं बढ़ा पायेगा। हमारे पूज्य पिता घोघाबापा इस रेगिस्तान के सम्राट कहे जाते हैं। हम कोशिस करते हुए जायेंगे कि पडोसी राजाओं पाटन और झालोर से सहायता मिल जाए। लेकिन नहीं भी मिली सहायता तो,.. या तो अमीर महमूद नहीं इस धरती पर, या हम नहीं। हम जीते जी तो उस मलेच्छ यवन को रण में प्रवेश नहीं करने देंगे। ये हमारा प्रण है। हम दोनों यथाशीघ्र वहां जाते हैं।"
"वत्स, इस युद्ध का परिणाम चाहे जो निकले, लेकिन घोघागढ़ की यशगाथा सदियों तक गाई जाएगी।" सर्वज्ञ जी ने भावुक होकर कहा।
पिता पुत्र दोनों वीरों ने पुनः दंडवत प्रणाम किया उस धवल केश धारी बुजुर्ग पुजारी को, और पीछे मुड़ कर चलते गए।
सर्वज्ञ जी तब तक उन दोनों की पीठ देखते रहे, जब तक दोनों मंदिर के प्रांगण से निकल कर नजरों से ओझल न हो गए। सर्वज्ञ जी की आँखें पद्मासन में बैठे बैठे ही आकाश की और उठ गईं। ऐसा लग रहा था, कि जैसे वो होनी को प्रत्यक्ष अपने सामने देख रहे हों।
कापालिकों के बढ़ते कुकर्मों ने सर्वनाश को न्योता देना ही था। उनकी स्थिति ये थी कि वो किसी को रोक नहीं पा रहे थे ! जितने भी नए साधक थे, वो सब शिवराशी के साथ होकर सर्वज्ञ जी को अपदस्थ करके, मंदिर की व्यवस्था अपने हाथों में लेने के लिए चालें चल रहे थे !! ताकि वो स्वच्छंद रूप से भोग विलास में लिप्त हो सकें और उन्हें कोई रोकने वाला न हो!!
सर्वज्ञ जी, पड़ोस के राजाओं की सहायता से इस षड्यंत्र को रोक सकते थे, लेकिन अब इससे भी बड़ी विकराल समस्या, महमूद के रूप में सिर पर आन खड़ी हो गई !! अपनी लाचार परिस्थिति को महसूस करते हुए, बूढी हो चली किन्तु अभी भी तेज आँखों से दो बूंद आंसूं निकल कर उनकी सफ़ेद दाढ़ी मूंछों में विलीन हो गए, और वे बुदबुदा उठे, "जैसी सोमनाथ की इच्छा।"
(क्रमशः)
इं.प्रदीप शुक्ला
गोरखपुर