गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि ''जनमत मरत दुसह दुख होई" लेकिन पैदा होने के दुख की मुझे कोई स्मृति नहीं है, सौरमंडल की सउर (सौर) से सैर तक, अपनों से गैर तक की यह शिक्षित, प्रशिक्षित, सधी, बेसुधी, सुगढ़, अनगढ़ अनुपम यात्रा रत, विरत, निरत भाव से जब कि अनवरत जारी है ऐसे में बैठे ठाले मृत्यु के बारे में सोचना बड़ा रोचक है। माँ, बहन से बचपन में और जब किसी को बड़े प्यार से कहा था कुछ चढ़ती जवानी में तो सुना था तब एक अमृत वचन ''अरे मुअना, मटिलगना '' तब मैं इसे गाली समझा था पर जब मरने का मतलब जाना तब यह सोच-सोच के परेशान हो उठा कि वह तो खैर जाने ही दो पर माँ और बहन 'मुअना' (मर जा या मर जाने वाला) कह के क्या कहना चाहती थी, बताना चाहती थी, चेताना चाहती थी, या क्या वे इस शब्द के अर्थ के मर्म को स्वयं जानते हुए कहती थीं...... मुअना, मटिलगना।
बाबा जन्मजात दुखों को याद दिलाते हुए कहते हैं कि याद करो कि कैसे छह महिने तक करवट तक नहीं ले पाते थे, मच्छर काटते थे और तुम रोते थे खुजलाहट की बेचैनी से, पेट के दर्द से और ममतामयी माँ तुम्हारे में स्तन ठूँस देती थी और तुम तड़प उठते थे, असहाय थे। पर मुझे जन्मने के दुसह दुख की कोई स्मृति नहीं।
तो क्या मृत्यु भी दुसह दुख है, जिसके लिए लोग कभी काशी सेते थे "मुक्त जन्म महि जानि ज्ञान खानि अघ हानि कर, जँह बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न।। " सूरदास बाबा कहते हैं "लैहों करवट कासी", प्रयाग में संगम में मृत्यु का गोता लगा लेते थे, वह मृत्यु क्या वास्तव में दुसह है जिसके लिए लोग तुला दान, गोदान करते हैं, पूरी तैयारी करते हैं, उत्सवपूर्ण तैयारी करते हैं जिस मृत्यु की, दुसह है? या यह बिल्कुल वैसी ही है जैसे सोने की बेचैनी होती है और नींद न आ जाने तक जो मैं इधर उधर करवट बदलता हूँ, उतने भर की तड़प भर है?
ऐसे में कि जब जन्म का दुःख याद नहीं रहा तो मरने का दुख पालूँ बाबा तुलसी चेताते हैं कि अपने देह की अंतिम तीन गति को जान लो कि या तो यह कीड़ा बन जाएगी या किसी जीव के पेट में जा के विष्टा या आग में जल कर राख।
इसलिए सोने से पहले सजग जागरण का अभ्यास ही कर्म है, ज्ञान है, भक्ति है जिसका समस्त सार दान है गो (इंद्रिय, गाय, ज्ञान धनादि) दान करो।
आलोक पाण्डेय