माझी (कहानी)

Update: 2017-12-05 14:45 GMT
जेठ की तपती गर्मी में भी 'सरजू जी' इतना नहीं घटतीं कि कोई गांव का तैराक या डेंगी वाला सरजू जी की धारा को मजाक में ले... उस समय भी नाव के एक खेवा में पूरे आधे घंटे से चालीस मिनट तक लगते थे...दोनों ओर बालू के पाटों से जब सूरज की किरणें बिछती थीं तो ऐसा लगता था मानों नदी के दोनों ओर चांदी बिछायी गयी हो....दोपहरी में परिन्दों तक के न तो बैठने की जगह न ही छांव लेकिन एक घाट से जब नाव छूटती तब तक दूसरे घाट वाले चाय- तम्बाकू खा पीकर घाट की मड़ईयों से नाव की राह जोहते... सुबह से लेकर सांझ तक.. गांव के लड़के, पुरनिया, दुल्हिन, नात-रिश्तेदार से नाव कभी खाली न रहती.. साईकिल, बोरा, बकरी, गठरी...क्या नहीं लदता था नाव पर । उस पार के छोटे-मोटे व्यापारी विसाता, साड़ी, कपड़ा लेकर रोज इस पार उतरते और शाम को उस पार लेकिन जब शाम का एक खेवा नाव लेकर लौटती थी तो उसमें आठ-दस गांव के ज्यादातर विद्यार्थी अपनी साईकिल लेकर नाव में सवार रहते। नदी इस पार घर, खेती बाड़ी, बाग-बगीचा और उस पार स्कूल... गांव के जमींदार से लेकर भूमिहीन तक का बच्चा अपना झोला-बस्ता लेकर सरयू नदी की पैलगी करके नाव से रोज इस घाट से उस घाट उतरता।

गांव जवार के पच्चीसों विद्यार्थियों में एक सांवला सा दुबला-पतला विद्यार्थी "गोविन्द साहनी" गोविन्द की मड़ई एकदम सरजू के घाट पर लगी थी... गोविन्द और गोविन्द की अम्मा के साथ उसकी मड़ई में दो चौकी, थोड़े से गृहस्थी के सामन और गोविन्द की कुछ किताबें। गोविन्द की अम्मा तो अंगूठाटेक थीं लेकिन चाहती थीं कि गोविन्द मन लगाकर पढ़े.. इसलिए तो पूरा दिन गांव-घर मजदूरी में गुजार देती गोविन्द की अम्मा! घाट पर बहुत रात तक अगर लालटेन जल रही हो तो गांव वाले समझ जाते थे कि गोविन्दवा हाईस्कूल की तैयारी में लगा है।

आज गोविन्द की साइकिल दोपहर में ही नाव से उतरी। साइकिल की आवाज़ खनखनाते ही उसकी अम्मा गोबर लीपते अपने हाथ रोकर आवाज़ लगायीं - "का रे गोविन! काहें पहिले चला आया रे? "

"अम्मा! सर जी कहे हैं कि जब तक बोर्ड की फीस नहीं जमा होगी तब तक परीक्षा का फार्म नहीं भरने को मिलेगा। अम्मा सब लड़िके फार्म भर रहें हैं और हम वहां अकेले बईठ के टुकुरटुकुर देख रहें हैं। एही हफ्ता में लास्ट डेट खतम हो जायी त अबकी हमार पूरा साल बेकार हो जाई!" गोविन्द खिन्नता भरे भाव से खटिये पर बैठ गया।

"तूं कहले नाहीं कि एही हफ्ता में अम्मा पांच सौ रूपया भेजवा दीहं। एतना बड़ा आदमी हवं अऊर एतनो सबर नाहीं बा पंडीजी के...."

"अम्मा! प्रिसिंपल साहब से कल से पांच बार मिल के कहि चुकलीं लेकिन प्रिन्सिपल साहब सुनते नाहीं बाटें... का करीं बतावs ?" गोविन्द कुछ चिड़चिड़े लहजे में बोला।

"अच्छा! चल...कल हमहीं चलत बानीं। जरूर हमरे बाती क ख्याल करिहें तोहरे मास्टरसाहब"।

सुबह जल्दी जल्दी चार रोटी बना-खाकर गोविन्द और उसकी अम्मा नाव के दूसरे खेवा में सवार हो गयीं...
सरयू पार होने के बाद गोविन्द साईकिल चला रहा था और उसकी अम्मा करियर पर दोनों हाथ जमाकर बैठ गयीं। साईकिल रेत और खड़ंजा पर डगमग-डगमग करते पांच किलोमीटर दूर "सीताराम चौबे मेमोरियल इंटरमीडिएट कालेज" की गेट पर रुकी। गोविन्द गेट में साईकिल घुसाते हुए अपनी अम्मा को अन्दर आने को कहा। इतनी भीड़भाड़ देखकर अम्मा चुपचाप स्कूल गेट के किनारे खड़ी हों गयीं... "आवs अम्मा" साईकिल खड़ा करके गोविन्द ने आवाज़ लगायी। गोविन्द की अम्मा गोविन्द के पीछे हो लीं तभी गोविन्द ने एक कमरे का पर्दा उठाकर पूछा- " मे आई कम इन सर" 
"आओ गोविन्द" प्रिसिंपल साहब रजिस्टर से सिर उठाकर ऐनक के ऊपर से बोले। उसी वक्त गोविन्द अपने पीछे झांककर अपनी अम्मा को आगे बुलाकर खुद उनके पीछे हो गया।
प्रिसिंपल साहब अपनी कलम वहीं रजिस्टर पर छोड़कर अपनी पीठ कुर्सी पर टिकाकर बोले " हां बताईये!"

"हम गोविन्द क अम्मा हईं ...... बाबू कहत रहल की कवनो फारम भरात बा...अऊर ओकरे बिना इमतिहान नाहीं देवे के मिली। पंडीजी हमके एक हफ्ता क मोहलत दे दीं हम पांच सौ रूपया भिजवा देब। पंडीजी बिन बाप क लईका ह केतना जतन से एक एक रूपया जोड़के एके पालत और पढ़ावत बानीं कि इ हमार करेजा बूझत बां। पंडीजी एकर फारम भरवा दीं नाहीं त एकर एक बरीस खराब हो जायी" आंख से भरभर-भरभर आंसू और हाथ स्वतः विनती की मुद्रा आ गये।

"देखिए! हम आपकी मजबूरी समझ रहे हैं लेकिन हम भी इस विद्यालय के एक कर्मचारी हैं। यह आदेश प्रबंधक जी का है आप अपनी बात उनसे कहें, यदि वह आदेश दे दें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।" प्रिसिंपल साहब बिल्कुल साफ़-साफ़ बोलकर अपना पल्ला झाड़ लिये।
"गोविन्द! अपनी अम्मा को प्रबन्धक जी से मिला दो" प्रिसिंपल साहब आदेशात्मक लहजे में गोविन्द की तरफ मुखातिब हुए।

"जी सर!"
प्रबन्धक प० दीनानाथ चौबे धूप में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। तभी चपरासी बोला " महाराज! स्कूल के एक विद्यार्थी की मां आपसे मिलना चाह रहीं हैं।

"किस मसले में" प्रबंधक जी बिन सिर उठाये पूछे..."

"कुछ फीस का मामला लग रहा है...महाराज।"

"अरे यार कितनी बार कहा कि फीस का मामला तिवारी जी खुद निपटा लिया करें।"

"महाराज....तिवारी जी ही आपके पास भेजे हैं।"

"अच्छा भेजो! देखते हैं क्या बात है"

गोविन्द की अम्मा प्रबन्धक जी का पैर छूकर उनकी कुर्सी के किनारे बैठ गयीं तभी प्रबंधक जी गोविन्द की अम्मा की तरफ झांक कर पूछे " हां! का समस्या बा तुहार"
गोविन्द की अम्मा अभी कुछ कहतीं कि उनकी निगाह प्रबन्धक जी के चेहरे पर ठहर गयी....जुबान बिल्कुल शब्द का साथ छोड़ दिये। आंसू बिन बोले ही गालों पर रेंगने लगे

अम्मा की ऐसी हालत देखकर गोविन्द खुद आगे बढ़कर बोला " पंडीजी अभी फार्म के पैसे की व्यवस्था नहीं हो पायी है। अम्मा कहने आयीं हैं कि आप फार्म भरने का आदेश कर देते तो हम एक हफ्ते में पैसा जमा कर देंगे।

"बेटा ऐसे कैसे चलेगा? सभी लोग ऐसे ही फार्म भर लिये तो 'चल चुका स्कूल'और 'हो चुकी परीक्षा'... और अभी फार्म भरने में तीन दिन बाकी है तीन दिन के भीतर पैसा जमा करके फार्म भरके जमा कर देना।" प्रबन्धक जी बड़ी निष्ठुरता से अपनी बात कहकर, अखबार में लीन हो गये।

"महाराज! आप हमके चीन्हत हयीं?" घूंघट से सिसकती हुई आवाज़ में एक प्रश्न प्रबन्धक साहब के कानों गूंजा..
प्रबन्धक जी गोविन्द की अम्मां की तरफ घूमे तो जरूर लेकिन चेहरे पर ऐसे कोई भाव नहीं उभरे जिसके लगे कि वो गोविन्द की अम्मा को पहचान रहे हों।

"पंडीजी! हम आपके चीन्हत बाटीं! आज से चौदह बरीस पहिले क बात बतावत हईं.....भादो क महीना रहल। ओ समय सरजू जी अपने ऊफान पर रहलीं हम अपने मड़ई में खाना बनावत रहलीं इ हमार बाबू गोविन्द, दू साल क रहल। मड़ई के बहरे हमार माझी नाव क अन्तिम खेवा लगाके खटिया पर लेटकर रेडियो में गाना सुनत रहलं... सरजू के धारा से पूरे घाटे पर केवल घनघन-घन घन के आवाज़...मानों करेजा फार द। पछुआ एतना जोर रहल की चूल्ही के आग तावा के बाहर निकर जात रहल।
तबले मड़ई के बहरे एक बैलगाड़ी रुकल और हम आवाज़ सुनलीं कि "के हवे माझी" हमार माझी खटिया छोड़ उठके खड़ा हो गईलं और हमहूं तावा, चूल्ही पर छोड़ मड़ई के दुआर पर आ गईंली...
एक ठो बड़ मनई बैलगाड़ी से ऊतरलं अऊर उनकर मेहरारू वही बैलगाड़ी पर लेटावल रहलीं... ऊंहा के कहलीं कि हमरे मेहरारू क तबियत बड़ी खराब बा अ एही बेला हमके घाट उतरे क ह... हमार माझी कहलं कि " मालिक पछुआ बहुत तेज बा अऊर अन्हरिया रात में सरजू जी के धारा में वो घाटे उतरल रात में कठिन हो जाई। मलिकार भिन्नहीं ले अगोर लेतीं त हम पहिले खेवा आपके उतार देतीं। लेकिन ऊ मलिकार हमरे माझी क सामने हाथ जोड़ लेहलीं.... महाराज ऊ पहिली बार रहल कि हमार जीव बहुत डेरात रहल...हम नाहीं चाहत रहलीं कि हमार माझी नाव पर सवार होवें। जब हमरे माझी मड़ई में कुर्ता पहिरे अईलं त हम उनकर हाथ पकर के कहलीं कि न जायीं ए बेला। लेकिन हमरे माझी हमके समझईलं कि ऊ मेहरारू बड़ी बीमार बाटीं अगर एही बेला नाहीं उतारब त कुछ बिगड़ले पर बहुत जी पछताई... जाये द हमके।
महाराज अपने माझी के त हम नाहीं रोक पयिलीं लेकिन हम खाना बनावल छोड़के ओही खटिया पर बईठ के अपने माझी क राह जोहे लगलीं... थोड़ी देर त नाव लौऊकल लेकिन फिर अन्हरिया में हेरा गईल...जब डेढ़ घंटा बीतल त हमार मन बैठे लगल ... केतनो देखीं लेकिन कुछ बुझईबै नाहीं करे ओहर घाटे पर एक ओर सरजू जी चिल्लात रहलीं दूसरी ओर हम... महाराज पूरी रात रोवत चिल्लात भिन्नही हो गईल लेकिन हमारे माझी ना लऊटलें नाव लेके....महाराज अब त आपके याद आ गईल होई कि हमार माझी आपके पार लगा दिहलं लेकिन हमके सरजू में डूबा गईलं... हमके मझधार में छोड़कर अपने पता नाहीं कवने घाट उतरलं... हमार माझी..."

पूरे विद्यालय प्रांगण में गोविन्द की अम्मा की आवाज़ सरजू की धारा की तरह गूंजने लगी कितनों की पलकें भींग गयीं लेकिन प० दीनानाथ चौबे कुर्सी पर पत्थर की तरह जड़ हो गये तभी गोविन्द की अम्मा रोते हुए बोलीं - "महाराज हमरे गोविन्द के पार लगा दीं महाराज...हमरे गोविन्द के पार लगा दीं.."

प्रबंधक जी रुमाल से अपनी आंख पोंछते हुए चपरासी को आदेशित किये- "प्रिसिंपल साहब को बुलाइए"!

पांच मिनट के बाद प्रिसिंपल साहब को अपने सामने देखकर बोले " तिवारी जी नामांकन रजिस्टर में गोविन्द के पिता वाले कालम के नीचे एक लाइन और जोड़िए! वहां लिखिए कि अभिभावक "दीनानाथ चौबे"
फिर प्रबंधक जी खुद जमीन पर गोविन्द की अम्मा के बराबर बैठकर बोले " माझिन.....हम तोहरे माझी के त ना बोला पाईब लेकिन उनके एहसान भी न भुलाइब" तोहरे गोविन्द के हम पढ़ाईब माझिन हम.... आज से गोविन्द के पढ़ाई क खर्चा हमरे माथे माझिन..."

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर

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