कथा है, कि लंका जाने के लिए पुल बनाने के समय जब बानर समुद्र के जल में पत्थर पर राम जी का नाम लिख कर डाल रहे थे, तब राम जी ने भी एक पत्थर डाला। सबके पत्थर तैर रहे थे, पर राम जी का पत्थर डूब गया। फिर हनुमान जी ने उन्हें समझाया- जिसे आप छोड़ दें उसे तो डूबना ही है प्रभु! उसे बचाने वाला कौन है। इस कथा में मुझे राम जी का सारा जीवन दिखता है। आज के सभी सम्प्रदायों का जब जन्म भी नहीं हुआ था, तब से अरबों लोग राम जी का नाम ले कर अपना बेड़ा पार कराते रहे हैं, पर राम जी का बेड़ा कभी सरलता से पार नहीं हुआ। अपने जीवन मे तो उन्हें कभी सुख मिला नहीं, कलियुग में भी बनवास ही नियति है शायद।
इस्लाम के सबसे बड़े तीर्थ में अन्य धर्मावलम्बियों को जाने तक कि इजाजत नहीं। यहूदी अपने देश में दूसरों को जरा भी हस्तक्षेप नहीं करने देते। सहिष्णुता की नई परिभाषा गढ़ने वाले ईसाइयों के येरूसलम में दूसरे धर्मावलम्बी अपनी बात कहने की सोच भी नहीं सकते।पर भारत मे न राम की अयोध्या सुरक्षित है, न शिव की काशी सुरक्षित है, और ना ही कृष्ण की मथुरा। सब जगह की मिट्टी गुलाम है, सबके मंदिर तोड़े गए हैं, और सबकी जमीन हड़प कर अवैध ढाँचे बनाये गए हैं।
मुझे बाबर से कोई पीड़ा नहीं। वह और उसका खानदान तो आया ही था सनातन पर प्रहार करने और भारत को लूटने। उसके खानदान का लक्ष्य ही था कि भारत की धरती से सनातन धर्म को समाप्त कर इस्लाम का परचम लहराना है, और इसके लिए उन्हें जब जब मौका मिला तब तब उन्होंने मन्दिर तोड़े, कत्लेआम किया और तलवार की नोक पर लोगों से धर्म परिवर्तन कराया। मुझे पीड़ा इस कथित लोकतंत्र के शासकों से है, जिनमें इतना भी साहस नहीं कि भगवान के जन्मस्थान पर तोड़े गए मन्दिर को दुबारा बनवा सकें। जिस देश में नब्बे फीसदी जनता के आराध्य का टूटा मन्दिर नहीं बनाया जा सके, वहां का लोकतंत्र कैसा लोकतंत्र है? यह किस बात का लोकतंत्र है?
जिन दिनों को हम गुलामी के दिन कहते हैं, उन दिनों में एक विधवा महारानी ने काशी में तोड़े गए मन्दिर को दुबारा बनवा दिया था, और आज कथित रूप से आजाद भारत में हम सत्तर वर्षों से राम मंदिर बनने का स्वप्न भर देख पा रहे हैं। क्या सचमुच यह देश आजाद है? क्या सचमुच हम आजाद हैं?
क्या आजाद देश की व्यवस्था इतनी नपुंसक होती है?
भारत के शासक कहते हैं कि विवाद का फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगा। मैं पूछता हूँ, सुप्रीम कोर्ट क्यों करेगा? आप क्यों नहीं सीधे सीधे बनवाते मन्दिर? क्या सुप्रीम कोर्ट के पास सचमुच इतनी सामर्थ्य है कि वह भारत के विवादित मुद्दों पर आदेश दे सके? बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद में आज भी प्राचीन शिव मंदिर के खंभे और गुम्बद दिखाई देते हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट के पास है वह सामर्थ्य कि हिन्दुओं को वह खम्भे दिला दे? फिर ऐसी सामर्थ्यहीन संस्था के भरोसे न्याय की आशा क्यों?
1947 में जब देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ तो इस्लाम के हिस्से में पूरी ईमानदारी के साथ पाकिस्तान दिया गया। खजाने के एक एक रुपये का हिसाब हुआ और बराबर बंटवारा किया गया। उस पार की जमीन पर हजारों मन्दिर थे, जिन्हें बाद में पाकिस्तान के लोगों ने तोड़ कर मस्जिद बनवा लिया। उन हजारों मंदिरों के लिए मुझे कोई दुख नहीं, पर यह कैसा न्याय है कि हम अपने हिस्से की जमीन पर भी अपने आराध्य का मंदिर नहीं बना सकते? यह कौन सा बटवारा है कि आधा देश देने के बाद भी राम मंदिर के लिए कानून का सहारा लेना पड़ता है?
जन्मस्थान पर राम मंदिर तो बनेगा ही, न्यायालय कहे तब भी और न कहेगा तब भी। अयोध्या के हिन्दू और मुसलमान दोनों चाहते हैं कि मंदिर बने। अब तो शिया मुस्लिम खुल कर मन्दिर के पक्ष में आ गए हैं, कल सुन्नी भी आएंगे। अयोध्या का उज्वल भविष्य भगवान राम के हाथों में ही है। पर कल यदि मन्दिर कोर्ट के फैसले पर बनता है, तो यह सरकार इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने से चूक जाएगी। जनता ने दो सीटों वाली भाजपा को दो सौ अस्सी सीट तक राम मंदिर के नाम पर ही पहुचाया था। अगर मन्दिर सरकार अध्यादेश ला कर बनवाती है तो मोदी महारानी अहिल्याबाई होलकर की तरह भारतीय इतिहास में युगों तक पूजे जाएंगे, और अगर कोर्ट के फैसले से बनता है तो फिर वे भी नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव, राव, अटल की तरह मात्र प्रधानमंत्री गिने जाएंगे।
भविष्य के गर्भ में जाने क्या है, पर लोकतांत्रिक राजनीति शायद योद्धा को भी कमजोर कर देती है।
लोकतंत्र शासन की सबसे नपुंसक प्रणाली है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार