नवोदय विद्यालय में मेडिकल स्टाफ के तौर पर नियुक्त होने के कारण मेरा ज्यादातर वक्त, कुर्सी पर खाली ही बीतता। खाली समय में कुछ किताबें, इन्टरनेट और सोशल मिडिया एक अच्छा माध्यम है वक्त काटने का। एक दिन मैं फेसबुक पर यूं ही टहल रही थी कि मेरी निगाह एक फ्रेंड रिक्वेस्ट पर ठहरी.. "रजत श्रीवास्तव" प्रोफाइल में किसी बच्चे की डीपी लगी थी लेकिन जब प्रोफाइल खोला तो देखा 'स्टडिज जवाहर नवोदय विद्यालय।' ओह! 'रजत'.. बस मोटा हो गया लेकिन अभी भी वैसा ही शरारती चेहरा...वक्त का तो जैसे पता ही नहीं लगता मुझे नौकरी में आये बारह वर्ष गुजर गये और रजत को यहाँ से निकले दस वर्ष लेकिन अभी भी उसको याद है उसकी डाक्टर मैंम..
मुझे तो कुछ पता ही न चला कि मैंने कब हँसते-खेलते स्नातक किया... फिर नर्सिंग कोर्स और तेईस साल की उम्र में नवोदय विद्यालय में नियुक्ति पा गई। घर से बाहर रहना, मेरे लिये भी पहली बार था। मैं जरूर कुछ डरी-सहमी सी थी वह इसलिए भी कि नवोदय विद्यालय शहर के हटकर, दूसरे छोर पर था और परिवार से अलग रहना कचोटता था मुझे। ऐसा लगता था मानों मैं किसी बड़े पिंजरे में कैद हूँ.. जिसमें बिल्ली के झपट्टे का डर भले न हो लेकिन पंख खोलकर उड़ने की आजादी भी नहीं। वैसे भी जब आप विद्यार्थी जीवन में होते हैं तो आपके खेलने-कूदने और शरारत के लिये परिधि बड़ी होती लेकिन नौकरी लगते ही कुछ बंदिशें जरूर लग जातीं हैं। मैं स्नातक से अब तक कुछ न बदली लेकिन बाहर से बदलाव लाना और दिखाना मजबूरी हो गई और वह भी तब, जब आपकी नियुक्ति एक विद्यालय कैंपस के भीतर हो जहाँ शिष्टाचार और अनुशासन पहली शर्त रखी जाती हो।
वैसे अपने जॉब की बुराई नहीं की जाती लेकिन मेरा जॉब थोड़ा बोरिंग जरूर था. इसलिए नहीं कि मेरा उस काम में जी नहीं लगता था बल्कि इसलिए की वहाँ काम ही बहुत कम था और रहना भी नवोदय विद्यालय के कैंपस में ही था। परिवार की याद बहुत आती थी। दिन में कभी दो चार विद्यार्थी किसी छोटी-मोटी समस्याओं के लिये आ जाते लेकिन अध्यापक तो ज्यादातर बाहर ही दिखाते दरअसल उम्र बढ़ने पर रोग भी सामान्य नहीं रह जाते। कुल मिलाकर हल्की-फुल्की स्वास्थ्य समस्या या प्राथमिक उपचार हेतु कोई आ गया तो आ गया नहीं तो पूरा दिन खाली...
मेरी समझ से रजत मुझे जानता रहा होगा क्योंकि उससे जब मेरी पहली मुलाक़ात हुई तो उसके आंखो की शैतानियों से यह समझा जा सकता था कि वह मुझे पहले से जानता या पहचानता था। बेहद हाजिरजवाब और बातूनी पहली ही मुलाक़ात में वह मुझसे कुछ अधिक बात करना चाहता था लेकिन मैं सिर्फ़ काम की।
रजिस्टर पर "रजत श्रीवास्तव, कक्षा- 11 A दर्ज करने के बाद मैंने पूछा- " क्या परेशानी है रजत"
मुस्कुराकर बोला- " मैम! गले में तकलीफ़ है बोलने पर गला चुभ रहा है और आवाज़ भी फंस रही है।"
मैंने हँस कर कहा " जितना बकबक कर रहे हो उससे तो नहीं लगता कि तुम्हारे गले में कोई तकलीफ है।"
रजत अपने गले को अपनी चुटकी से पकड़ कर बोला " सच्ची! गला बहुत चुभ रहा है मैम।"
मैंने दराज से एक विक्स की गोली निकालकर उसे थमाते हुए कहा कि दिन में तीन बार गुनगुने फिटकरी के पानी से गार्गलिंग करो दो तीन दिन में ठीक हो जायेगा। उसने विक्स वाली गोली तुरन्त फाड़कर मुंह में रखी और क्लिनिक से बाहर निकल गया लेकिन दो मिनट बाद फिर हाजिर "एक्सक्यूज मी मैम" मैं रजिस्टर से सिर उठाकर पूछी "यस"
मैम "क्या नाम है आपका"
मैंने चार-पांच सेकंड उसे घूरा और थोड़ा रूखेपन से बोली
"ज्योति"
पुनः सिर नीचे करके रजिस्टर में लग गई।
ग्यारहवीं का शायद ही कोई विद्यार्थी मेरे क्लिनिक पर आया हो जिसके साथ अटेंडेंट के रूप में रजत न रहा हो.. हफ़्ते में दो बार वह जरूर आता, टेबल पर रखा सामान छूता और मौका देखते ही विक्स की एक गोली मांग लेता। वह अपने दोस्तों को यह बताने का प्रयास करता कि मैं 'मैम' से मैं ज्यादा घुला-मिला हूँ।
मुझे याद है उस समय पढ़ाई से लेकर हर तरह के एक्ट्रा एक्टिविटीज में रजत सबसे अव्वल था.. वार्षिक कार्यक्रम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना, सिंगिंग, डांसिंग, नाटक, स्पोर्ट्स सब में सबसे आगे... पढ़ता तो कम था लेकिन इन्टेलिजेंट था। पूरे ठंड बैडमिंटन के पीछे दीवाना। बैडमिंटन की नेट भी मेरे आवास के सामने वाले मैदान में.. एक बार सैटल कॉक को हिट करता और तब तक नजर घुमा लेता...उसे तो केवल बहाने चाहिए था शरारत का।
दरअसल रजत उमर की उस दहलीज़ पर था जहाँ वह अपने को बच्चा मानने को तैयार नहीं था और हम सब उसे बड़ा होने नहीं देते थे। सच तो यह है कि हम अपने बचपने में उड़ना चाहते थे लेकिन उस पर पर्दा डालकर रखते थे और वह अपने बचपने की बंदिशों को तोड़कर खुले आकाश में उड़ना चाहता था। सच! मेरा भी मन होता कि मैं भी बच्चों के साथ बैडमिंटन खेलूँ लेकिन खुद को रोक कर उन्हें समझाना पड़ता था कि केवल खेलने से जिन्दगी नहीं बनती बहुत पढ़ना पड़ता है।
एक बार मैं क्लिनिक पर बैठकर 'पोहा' खा रही थी कि अचानक रजत आ गया मैंने सिर्फ़ औपचारिकता वश उससे पूछा "पोहा खाओगे" मुझे यह विश्वास ही नहीं हुआ कि वह बेबाकी से बोल देगा " जरूर मैम! मुझे तेज भूख लगी है।" उस वक्त मैं बहुत शर्मिंदा हुई हांलाकि मेरे पास अलग से पोहा तो नहीं था लेकिन एक पैकेट बिस्कुट और एक चाकलेट देकर अपनी शर्म छुड़ायी। दरअसल मेरी यह उम्मीद थी कि वह मना कर देगा लेकिन मैं भूल गई कि वह रजत है...बिल्कुल बेबाक, बिन्दास.....
मैं यह मानती हूँ कि रजत किशोरावस्था के संवेगों के गिरफ्त में था वैसे उसकी हरकतें ऐसी भी नहीं थीं कि उसे डांटा जा सके और शायद इतनी कम भी न थी कि नजरअंदाज किया जाये... निसंकोच, उसमें कुछ विशेष था...इसलिए बिल्कुल भी नहीं कि मैं उसके लिये "विशेष" थी। उसका व्यवहार, रचनात्मकता, विलक्षणता सभी को आकर्षित करने वाले थे सो मुझे भी आकर्षित करते थे वो बात अलग थी कि उसकी नादानी भरी नजरें कुछ अलग ढूंढती थी...
विद्यालय के वार्षिक कार्यक्रम में उसकी इच्छा थी कि मैं उसके कार्यक्रम में मदद करूँ या वह मेरे निर्देश में कोई कार्यक्रम करे लेकिन शुरु से मैं ऐसे कार्यक्रम में हिस्सा लेने से भागती रही इसलिए यहाँ भी मेरी जगह दर्शकदीर्घा ही रही फिर भी मुझसे जो बन पड़ा किया भले उसके मन लायक मेरा सहयोग न रहा हो।
जनवरी का महीना था उस समय रजत का नवोदय में आखिरी वर्ष था। मेरे पिताजी की अचानक तबियत खराब होने के कारण मुझे घर निकलना था। मैं अपना बैग पैक करके अभी रूम का ताला बंद कर रही थी तभी मैंने देखा रजत मेरे पीछे मेरा बैग उठाये खड़ा है।
मैंने थोड़ी तल्खी में पूछा-
"तुम यहाँ कैसे ?"
"मैम अभी पता चला है कि आप घर जा रहीं हैं इसलिए आपको टैम्पो तक छोड़ने आ गया" रजत ने सकुचाते हुए बोला।
"कोई जरूरत नहीं है रजत... तुम मेरी चिन्ता छोड़कर बोर्ड परीक्षाओं मे मन लगाओं समझे! तुम्हारा यही हाल रहा तो तुम बारहवीं पास नहीं होगें ...बैग रखो और अपने कमरे में जाओ" मैं बेहद रूखेपन से पेश आई....
रजत, मेरे व्यवहार और रूखेपन से स्तब्ध रह गया। वह बिन कुछ बोले, बैग छोड़कर तेजी से अपने कमरे की तरफ मुड़ा और मैं बैग लेकर गेट की तरफ...दोनों लोग पश्चाताप में जल रहे थे वो मेरा बैग उठाकर मैं उससे बैग छीनकर। उस वक्त मै गुस्से में थी और तेज कदमों से बढ़ीं जा रही थी। उस पूरे एक सप्ताह घर पर रही लेकिन मेरा मन कचोटता रहा। मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए था। शायद पापा की तबियत या मेरी श्रेष्ठता का प्रभाव या उसकी किशोरावस्था की गलतियां....जाने क्या वजह थी कि मैंने उसे डांटा।
इस बार जब नवोदय लौटी तो सब कुछ वैसा ही था सिवा 'रजत' के। वो बिल्कुल बदल चुका था। मेरे लौटने के बाद वह शायद ही कभी दिखा हो.. ऐसा नहीं कि मुझे यह भान नहीं कि वह अब मुझे दिखता क्यों नहीं और ऐसा भी नहीं कि मेरी नजरें उसे ढूंढती नहीं थीं।
वक्त का सिर्फ एक ही काम है और वह है 'बीतना' आगे की ओर भागना। देखते ही देखते मार्च आ गया और साथ ही बोर्ड की परीक्षाएं। सभी बोर्ड के विद्यार्थी अपनी परीक्षा में लग गये वो ऐसा वक्त जब हर कमरे की लाइट बहुत देर तक जलती थी। मुझे नहीं पता कि रजत ने कैसी तैयारी की लेकिन मुझे यह सूचना मिली कि रजत पूरे नवोदय में टॉप किया हांलाकि मैं उसे बधाई न दे पायी लेकिन मेरी प्रसन्नता को उसने महसूस अवश्य किया होगा।
रजत अन्तिम बार नवोदय, अंकपत्र और अपना सामन लेने पहुँचा। मुझे सुबह से उसका इन्तज़ार था...जिस दिन वह नवोदय आया उस दिन उसने कुछ विभागीय कार्य किये और अपने सामनों की पैकिंग... सिर्फ नहीं किया तो मुझ पर गौर... मैं चाहती थी कि एक बार मुझसे मिल लेता और जाते वक्त अपने मैम के प्रति उसके हृदय में कोई कड़वाहट न रह जाती। अगले दिन दस बजे उसकी रवानगी थी लेकिन नौ बजे सुबह तक वह नहीं दिखा। चाहती तो मैं भी उससे मिल सकती थी लेकिन एक ईगो आड़े आ रहा था कि वो बारहवीं का विद्यार्थी है और मैंने ऐसी भी कोई गलत बात नहीं की थी कि वो इतना भी बुरा मान जाये। वैसे वो होता कौन है कि वह मुझ पर इतना अधिकार जताए.. शायद मैं भीतर ही भीतर कुढ़ रही थी।
सुबह नौ बजे तक मैं क्लिनिक का फाटक खोलकर बैठी थी या यूं कहूँ की उसका इन्तज़ार कर रही थी लेकिन मुझे पता नहीं क्या हुआ कि अचानक उठी और फाटक बंद करके फिर वापस कुर्सी पर बैठ गई। कुछ किताबें उलट-पलट रही थी कि पौने दस बजे के आसपास मेरे कमरे के दरवाजे पर जूतों की आहट हुई.....
मैंने पूछा "कौन ?"
"मैम ...रजत"
रजत ! सुनते ही मैंने झट से दराज से एक विक्स की गोली निकाली और फाटक खोलकर उसे अन्दर बुलाया-
"अन्दर आओ रजत..आज सच में मैंने तुम्हारे लिये पोहा बनाया है।
हांलाकि वो कमरे के भीतर प्रवेश नहीं किया और रुआंसा होकर बोला "मैम! बैठाइए मत... ग्यारह बजे मेरी ट्रेन है..लेट हो रहा हूँ.. उसका गला आज पहली बार फंस रहा था और मेरा भी... फिर भी मैंने उसके लिए हंसते हुए कहा- "रजत तुम, मेरी उस दिन की बात का बुरा मान गये थे।" उस वक्त रजत का बोल पाना कठिन था.. उसने अपना सिर झुका लिया लेकिन आंसू उसके गालों पर लकीर बनाकर दौड़े। वह एक पहला मौका था कि, सच में उसे विक्स की जरूरत थी लेकिन न तो उसने मुझसे मांगा और न मैं उसकी तरफ बढ़ा पायी मैंने अपनी मुट्टी में विक्स की गोली बन्द कर रख थी। रजत चुपचाप मुझे नमस्ते करके आगे बढ़ा और मैंने उसे हंसते हुए विदा किया।
"रजत" मैं तुझसे झूठ नहीं बोलूंगी कि उस दिन तेरे हिस्से की विक्स की गोली मुझे खाने पड़ी थी लेकिन उसके बाद भी मुझसे बोला नहीं जा रहा था...
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर