जून का महीना, दोपहर का समय। धूप इतनी कि जैसे आग बरस रही हो। इसी धूप में एक पुरानी सी स्प्लेंडर मोटरसाइकिल पचासी- नब्बे की स्पीड में दौड़ती जा रही थी। सवार के चेहरे पर बेचैनी साफ झलक रही थी। उसे देख कर लगता था जैसे वह किसी बड़े संकट में है और जल्द से जल्द कहीं पहुँचना चाहता है। वह गाड़ी ऐसे चला रहा था जैसे सत्रह-अठारह वर्ष का नवसिखुआ लड़का गाड़ी को हवा में उड़ाना चाहता है।
उसकी उम्र कोई 35-40 की होगी पर वह पचास का लग रहा था। जीवन ने उसके साथ कुछ अच्छा नहीं किया था शायद, तभी वह जल्दी बूढ़ा हो रहा था।
घण्टे भर बाद उसकी गाड़ी राँची के जंगलों में घुस चुकी थी। जंगल के बीच से निकली सड़क पर अब धूप नहीं लग रही थी। पसीने से भीग चुके उसके कपड़े अब ठंढी हवा से सूखने लगे थे।
लगभग दस मिनट तक चलने के बाद उसने अपनी गाड़ी की गति तनिक कम कर दी, और अपनी दायीं ओर सड़क के किनारे ध्यान से कुछ खोजता हुआ आगे बढ़ने लगा। कुछ ही समय बाद जैसे उसे वह संकेत दिख गया जिसे वह ढूंढ रहा था, सो उसने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी।
गाड़ी से उतर कर वह सड़क किनारे एक सागवान के पेड़ के पास गया और पेंड़ पर वन- विभाग द्वारा लगाए गए नम्बर को देख कर निश्चिंत सा हो गया। फिर उसने अपनी घड़ी निहारी जिसमें अभी बारह बज के पचपन मिनट हो रहे थे। वह बुदबुदाया," थैंक्स गॉड! 346 नम्बर पेंड़ भी मिल गया और समय से पाँच मिनट पहले पहुँच भी गए। अब बस आम मिल जाय तो छुटकारा मिले।"
वह पेंड़ के पास से वापस सड़क पर आया और मोटरसाइकिल की सीट पर ही कुर्सी की तरह बैठ गया। यह एक गंवई सड़क थी जिसपर गाड़ियां कम ही चला करती थीं, उसमें भी गर्मी की दोपहर थी, सो सड़क सुनसान थी।
अभी उसे बैठे तीन-चार मिनट ही हुए थे कि पीछे से एक कड़कती हुई आवाज आई," सुबह हो गयी?"
उसने पीछे मुड़ कर देखा तो एक सवा छह फुट लम्बा पहलवान जैसा मनुष्य मुह पर नकाब डाले खड़ा था। उसने अपनी घड़ी निहारी, जिसमें ठीक एक बज रहा था। उसने आश्चर्य के साथ कहा- आप तो समय के बड़े पक्के हैं।
नकाबपोश ने जैसे डाँटते हुए कहा,"सुबह हो गयी?"
इसने हड़बड़ा कर कहा- "लड़की सो गई"
नकाबपोश में फिर पूछा- " तो गुच्छे में कितनी लीचियाँ थीं?"
- उतनी ही, जितने पेंड़ पर आम थे।
- ठीक है। झोला लाये हो?
- हाँ! लेकिन आप आम लाये हैं?
- झोला दो मुझे, और याद रखो कि तुम्हे ज्यादा बोलने का अधिकार नहीं है। हम चाहें तो तुमसे झोला भी लेंगे और आम भी नहीं देंगे।
उस मोटरसाइकिल सवार ने अब कोई उत्तर नहीं दिया, जल्दी से मोटरसाइकिल की डिक्की खोली और उसमें से एक डायरी निकाल कर नकाबपोश की ओर बढ़ा दिया। जाने क्यों उसकी आँखें भीगने लगी थी।
नकाबपोश ने डायरी के एक दो पन्नो को खोलकर देखा और निश्चिन्त हो कर उसे अपने कपड़ों में छिपा लिया। फिर कहा, " अब जाओ मनोहर! आधे किलोमीटर बाद 301 पर तुम्हारे आम की टोकरी होगी, ले लेना। और हाँ! किसी को पता न चले..."
अचानक पीछे कहीं दूर से एक स्त्री आवाज आई, " पता तो मुझे चल गया, और अब बहुतों को चल जाएगा।"
मनोहर और नकाबपोश दोनों बेचैन हो गए और अपने चारों ओर देखने लगे, पर कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। नकाबपोश ने कहा- तुम जाओ, मैं देख लूँगा।
मनोहर लगभग दौड़ कर अपनी मोटरसाइकिल तक पहुँचा और गाड़ी स्टार्ट कर हवा की तरह भागा। लगभग आधे किलोमीटर बाद वह सड़क किनारे के 301 नम्बर पेंड़ के पास रुका। वहाँ जमीन पर एक चिट्ठी गिरी हुई थी। उसने झट से चिट्ठी उठाई और खोल कर देखा, उसमें एक चाभी रखी हुई थी। उसने चाभी अपनी जेब में डाली और दस- पन्द्रह सेकेंड में उस चिट्ठी को पढ़ लिया। चिट्ठी पढ़ते ही उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान फैल गयी। वह फिर गाड़ी पर बैठा और वापस चल पड़ा।
उधर मनोहर के निकलने के बाद नकाबपोश ने धीरे से आवाज लगाई, " आ जाओ... "
कुछ ही सेकेंड में बृक्षों की झुरमुट से निकल कर एक नकाबपोश स्त्री उसके पास आ गयी। दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा उठे।
आपको बता दूं, यह वही स्त्री थी जिसने मनोहर और नकाबपोश को सुना कर कहा था कि पता तो मुझे चल गया और अब बहुतों को पता चल जाएगा। अब प्रश्न यह है कि जब दोनों एक साथ थे तो फिर स्त्री ने डराया क्यों था? खैर! इसका उत्तर समय देगा...
दोनों ने एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखा और सड़क से नीचे जँगल में उतरने लगे। तभी पीछे से एक तीसरी आवाज आई, " तो इतना करने के बाद भी तुमलोग मनोहर को छोड़ोगे नहीं?"
दोनों भय से कांप गए। पहले नकाबपोश ने मुड़ कर देखा, एक 24-25 साल का साँवला सा बलिष्ट युवक खड़ा था। नकाबपोश ने पूछा- कौन हो तुम? और हमें कैसे जानते हो?
युवक मुस्कुराया, "जानने को तो हम तुम्हारी पूरी जन्मकुंडली जानते हैं बेटा! क्योंकि हम तुम्हारे बाप हैं। नाम है गङ्गा, सुने तो होंगे ही...
नकाबपोश ने अपना हाथ अपनी जेब की ओर बढ़ाया तो युवक ने डपट कर कहा, " खबरदार! जेब की हाथ बढ़ाया तो खोपड़ी उड़ा दूँगा। मैं खूब अच्छे से जानता हूँ कि तुम्हारी जेब मे पिस्तौल है।" नकाबपोश ने देखा, युवक के हाथ मे पिस्तौल आ गयी थी।
नकाबपोश गिड़गिड़ाया- तुम चाहते क्या हो?
- चाहता तो बहुत कुछ हूँ पर अभी तुम्हे बताऊंगा नहीं। अभी तुम दोनों भाग ही जाओ तो ठीक है। पर हाँ, यह जो तुम्हारे साथ खड़ा है न! इसे कह दो कि स्त्री बनने का नाटक तनिक ठीक से करे। केवल आवाज बदलने से कुछ नहीं होता, चाल-ढाल भी बदलनी पड़ती है।
दोनों नकाबपोश भय से काँपने लगे और वहीं थस से सर झुका कर बैठ गए। छन भर बाद नकाबपोश ने सर उठाया तो गङ्गा का कहीं पता नहीं था। दोनों ने एक दूसरे को देखा और झट से उठ कर दोनों जंगल मे भागने लगे।
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क्रमशः
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।