Update: 2016-01-01 00:00 GMT

जिस पार्टी में एक पत्ता भी मायावती के बिना नही हिलता वहां ऐसा प्रदर्शन किसके इशारे पर। खैर, इसका उत्तर मायावती ने खुद ही दे दिया जब उन्होंने कहा कि दयाशंकर के परिवार को उस टिप्पणी पर चुप रहने की सजा मिली है और उन्हें भी औरत के अपमान की पीड़ा को झेलना होगा। ये एक राज्य की पूर्व महिला मुख्यमंत्री के शब्द थे जो अपने खिलाफ इस्तेमाल हुए शब्दों पर आहत थीं।


लेकिन उस भीड़ से एक और आवाज आ रही थी और वो आवाज ये चीख-चीखकर ये कह रही थी कि मुद्दा चाहे राजनीति से जुड़ा हो और एक औरत के प्रति अपमानजनक शब्दों के प्रयोग पर विरोध का हो, यहाँ भी वही होगा और औरत की अस्मिता को तार-तार करने में ये भीड़ भी किसी दयाशंकर से कम नही।


दयाशंकर सिंह की बेटी को पेश करो‘ जैसे नारे भीड़ में गूंज रहे थे और ये आवाज ना तो मायावती तक पहुंची और ना ही प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक जिन्होंने मायावती के खिलाफ अपमानजनक शब्द बोलने वाले दयाशंकर सिंह को 36 घंटे में गिरफ्तार करने का फरमान दिया था।


ये सब सुनकर दयाशंकर सिंह की पत्नी अपनी बेटी की खातिर आगे आयीं और उन्होंने कहा कि’ मायावती बता दें कि उनकी बेटी को कहाँ और किसके सामने पेश करना है?’ स्वाति सिंह ने हजरत गंज में अपनी माँ के साथ जाकर मायावती और नसीमुद्दीन सिद्दीकी सहित अन्य बसपा समर्थकों पर मुक़दमा भी दर्ज कराया और अपने परिवार की सुरक्षा की गारंटी भी मांगी। आईजी जोन सतीश गणेश स्वाति सिंह और उनके परिवार को आश्वासन दिया है कि उन्हें जिस प्रकार की सुरक्षा चाहिए, प्रदान की जाएगी।


इस पुरे प्रकरण पर 36 घंटे तक चुप्पी साधे रहने वाली भाजपा ने अंतत: स्वाति की लड़ाई में साथ देने की बात की लेकिन सवाल ये है कि आखिर बीजेपी को 36 घंटे क्यों लग गए एक 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की के सम्मान में, उसके हक और उसकी अस्मिता पर आंच ना आये, इसको सुनिश्चित करने के प्रयास में उसके साथ खड़ा होने के लिए।


पुरे प्रकरण में बीजेपी का आलाकमान, दयाशंकर को बर्खास्त करने के बाद क्या ये नही देख रहा था कि दयाशंकर की पत्नी और लड़की की हालत क्या होगी। क्या बीजेपी इस मामले पर अपनी हार मान चुकी थी। प्रदेश का कोई शीर्ष नेता सिर्फ मुख्यमंत्री के पद की दावेदारी जताने के लिए खुद को जमीन से जुड़ा बताने के लिए तैयार रहता है या फिर एक औरत की अस्मिता और उसके सम्मान की लड़ाई सिर्फ उस औरत की लड़ाई है।


आज पुरे देश में स्वाति सिंह के प्रति सहानुभूति इसलिए नही है कि वो बीजेपी नेता कि पत्नी है, बल्कि लोगों ने स्वाति के इस साहसिक कदम की सराहना इसलिए की क्योंकि स्वाति सिंह ने एक माँ होने का मतलब बताया है और साथ ही स्वाति सिंह ने अकेले दम पर अपनी बेटी की हालत देखते हुए और उसपर बुरी नजर रखने वाली बसपा समर्थक भीड़ के खिलाफ आगे आकर थाने में मुकदमा दर्ज कराया।


बीजेपी इस मुद्दे पर चुप रही, इसकी एक खास वजह ये रही कि प्रदर्शन के अगले दिन पीएम का गोरखपुर दौरा था और वो दौरा असफल ना हो जाये और उस दौरे पर सवाल ना उठें इसलिए बीजेपी प्रदेश इकाई के नेताओं ने स्वाति सिंह का साथ नही दिया। प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या ने मायावती से तो माफी मांग ली, लेकिन वो भी स्वाति सिंह के साथ सहानुभूति नहीं दिखा पाये और ना ही स्वाति सिंह की बेटी के लिए बसपा समर्थकों की भीड़ द्वारा लगाये शर्मनाक नारों के खिलाफ आगे आने की हिम्मत जुटा सके। बीजेपी के प्रदेश इकाई से लेकर केंद्र तक किसी ने स्वाति सिंह का तब साथ नही दिया जब इनको जरुरत थी।


ऐसे में ये संकेत काफी है कि बीजेपी अपने शीर्ष नेतृत्व के लिए रैलियों का आयोजन कराने और उसे सफल बनाने के आगे किसी अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को आसानी से नजरअंदाज करने में भी माहिर है। जबतक बीजेपी को अपना राजनीतिक मकसद सिद्ध होता हुआ नहीं दिखता तब तक बीजेपी भी किसी माँ, किसी बेटी, किसी पत्नी की लड़ाई को अपनी लड़ाई नही मानती।



लक्ष्मीकांत बाजपेयी जैसे शीर्ष और अनुभवी नेता की अनुपस्थिति भी बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है और पार्टी में कोई ऐसा चेहरा नही दिखता है जो जनता की समस्या और जनता की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर उसके साथ चल सके।

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