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बसंत पंचमी के दिन ही अवतरित हुई थी वाणी की देवी मॉं सरस्वती।

बसंत पंचमी के दिन ही अवतरित हुई थी वाणी की देवी मॉं सरस्वती।
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या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता ।

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ॥

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता ।

सा माम् पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।

बसंत पंचमी का पौरारिणक महत्व =-पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों मंत भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है।

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहम ऋतूनां कुसुमाकरः।।

भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है -

मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ ।

महकने और मधुमय पराग लिए उड़ाते भौरों के गुनगुना उठाने की ऋतु है वसंत। प्रकृति के श्रृंगार की ऋतु। वसंत तो सृजन का आधार बताया गया है। सृष्टि के दर्शन का सिद्धान्त बन कर कुसुमाकर ही स्थापित होता है। यही कारण है कि सीजन और काव्य के मूल में तत्व के रूप में इसकी स्थापना दी गयी है।

सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की ही शरण ली है। शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल के मधुर गुंजन से झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती सूर्य की रशिमयां, कामदेव की ऋतुराज 'बसंत' का सजीव रूप कवियों की उदात्त कल्पना से मुखरित हो उठता है।

उपनिषद, पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत)के अतिरिक्त हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य धारा में भी बसंत का रस

भलीभांति व्याप्त रहा है। अर्थवेद के पृथ्वीसूत्र में भी बसंत का व्यापक वर्णन मिलता है।

महर्षि वाल्मीकि ने भी बसंत का व्यापक वर्णन किया है।

किष्किंधा कांड में पम्पा सरोवर तट इसका उल्लेख मिलता है- अयं वसन्त: सौमित्रे नाना विहग नन्दिता।

बुध्दचरित में भी बसंत ऋतु का जीवंत वर्णन मिलता है। भारवि के किरातार्जुनीयम, शिशुपाल वध, नैषध चरित, रत्नाकर कृत हरिविजय, श्रीकंठ चरित, विक्रमांक देव चरित, श्रृंगार शतकम, गीतगोविन्दम्, कादम्बरी,रत्नावली, मालतीमाधव और प्रसाद की कामायनी में बसंत को महत्त्वपूर्ण मानकर इसका सजीव वर्णन किया गया है।

कालिदास ने बसंत के वर्णन के बिना अपनी किसी भी रचना को नहीं छोड़ा है। मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों के आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा कवि बसंत का स्मरण करता है। कवि को बसंत में सब कुछ सुन्दर लगता है।

कालिदास ने 'ऋतु संहार' में बसंत के आगमन का सजीव वर्णन किया है:-

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रीय: पवन: सुगंधि:।

सुखा प्रदोषा: दिवासश्च रम्या:सर्वप्रियं चारुतरे वतन्ते॥

यानी बसंत में जिनकी बन आती है उनमें भ्रमर और मधुमक्खियाँ भी हैं।

'कुमारसंभवम्' में कवि ने भगवान शिव और पार्वती को भी नहीं छोड़ा है।

कालिदास बसंत को शृंगार दीक्षा गुरु की संज्ञा भी देते हैं:-

प्रफूल्ला चूतांकुर तीक्ष्ण शयको,द्विरेक माला विलसद धर्नुगुण:

मनंति भेत्तु सूरत प्रसिंगानां,वसंत योध्दा समुपागत: प्रिये।

वृक्षों में फूल आ गये हैं, जलाशयों में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियाँ सकाम हो उठी हैं, पवन सुगंधित हो उठी है, रातें सुखद हो गयी हैं और दिन मनोरम, ओ प्रिये! बसंत में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठा है।

हरिवंश, विष्णु तथा भागवत पुराणों में बसंतोत्सव का वर्णन है। माघ ने 'शिशुपाल वध' में नये पत्तों वाले पलाश वृक्षों तथा पराग रस से परिपूर्ण कमलों वाली तथा पुष्प समूहों से सुगंधित बसंत ऋतु का अत्यंत मनोहारी शब्दों वर्णन किया है।

नव पलाश पलाशवनं पुर: स्फुट पराग परागत पंवानम्

मृदुलावांत लतांत मलोकयत् स सुरभि-सुरभि सुमनोमरै:

प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब की खिलती पंखुड़ियाँ विरह- वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।

महाकवि विद्यापति कहते है -

मलय पवन बह, बसंत विजय कह,भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।

ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।

तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।

विद्यापति की वाणी मिथिला की अमराइयों में गूंजी थी।

बसंत के आगमन पर प्रकृति की पूर्ण नवयौवना का सुंदर व सजीव चित्र उनकी लेखनी से रेखांकित हुआ है:-

आएल रितुपति राज बसंत,छाओल अलिकुल माछवि पंथ।

दिनकर किरन भेल पौगड़,केसर कुसुम घएल हेमदंड।

हिन्दी साहित्य का आदिकालीन रास-परम्परा का 'वीसलदेव रास' कवि नरपतिनाल्हदेव का अनूठा गौरव ग्रंथ है। इसमें स्वस्थ प्रणय की एक सुंदर प्रेमगाथा गाई गई है। प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव से विरह-वेदना में उतार-चढ़ाव होता है। बसंत की छमार शुरू हो गई है, सारी प्रकृति खिल उठी है।

रंग-बिरंगा वेष धारण कर सखियाँ आकर राजमती से कहती हैं:-

चालऊ सखि!आणो पेयणा जाई,आज दी सई सु काल्हे नहीं।

पिउ सो कहेउ संदेसड़ा,हे भौंरा, हे काग।

ते धनि विरहै जरि मुई,तेहिक धुंआ हम्ह लाग।

विरहिणी विलाप करती हुई कहती है कि हे प्रिय, तुम इतने दिन कहाँ रहे,कहाँ भटक गए? बसंत यूं ही बीत गया, अब वर्षा आ गई है।

आचार्य गोविन्द दास के अनुसार:-

विहरत वन सरस बसंत स्याम। जुवती जूथ लीला अभिराम

मुकलित सघन नूतन तमाल। जाई जूही चंपक गुलाल पारजात मंदार माल। लपटात मत्त मधुकरन जाल।

जायसी ने बसंत के प्रसंग में मानवीय उल्लास और विलास का वर्णन किया है-

फल फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बंधि कै पंचम गाई।

बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादक तूर झांझ चहुं फेरी।

नवल बसंत नवल सब वारी। सेंदुर बुम्का होर धमारी।

भक्त कवि कुंभनदान ने बसंत का भावोद्दीपक रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है:-

मधुप गुंजारत मिलित सप्त सुर भयो हे हुलास, तन मन सब जंतहि।

मुदित रसिक जन उमगि भरे है न पावत, मनमथ सुख अंतहि।

कवि चतुर्भुजदास ने बसंत की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है-

फूली द्रुम बेली भांति भांति,नव वसंत सोभा कही न जात।

अंग-अंग सुख विलसत सघन कुंज,छिनि-छिनि उपजत आनंद पुंज।

कवि कृष्णदास ने बसंत के माहौल का वर्णन यूं किया है:-

प्यारी नवल नव-नव केलि

नवल विटप तमाल अरुझी मालती नव वेलि,

नवल वसंत विहग कूजत मच्यो ठेला ठेलि।

सूरदास ने पत्र के रूप में बसंत की कल्पना की है:-

ऐसो पत्र पटायो ऋतु वसंत, तजहु मान मानिन तुरंत,

कागज नवदल अंबुज पात, देति कमल मसि भंवर सुगात।

तुलसी दास के काव्य में बसंत की अमृतसुधा की मनोरम झांकी है:-

सब ऋतु ऋतुपति प्रभाऊ, सतत बहै त्रिविध बाऊं

जनु बिहार वाटिका, नृप पंच बान की।

जनक की वाटिका की शोभा अपार है, वहां राम और लक्ष्मण आते हैं:-

भूप बागु वट देखिऊ जाई, जहं बसंत रितु रही लुभाई।

पं.अनन्त पाठक - वसंत उत्तर भारत तथा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी मार्च और अप्रैल के मध्य इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ महीने की शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र मास वसंत ऋतु के माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम मास है और चैत्र पहला । इस प्रकार हिंदू पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ वसंत में ही होता है। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है।

वसंत के रागरंग:-

भारतीय संगीत साहित्य और कला में इसे महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है जिसे राग बसंत कहते हैं। वसंत राग पर चित्र भी बनाए गए हैं। ठंड के अंतिम पड़ाव के रूप में वसंत ऋतु का आगमन प्रकृति को वासंती रंग से सराबोर कर जाता है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते है, फूल वस्त्र पहनाते हैं पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।अंगारों की तरह दिखते पलाश के फूल, आम के पेड़ों पर आए बौर, हरियाली से ढंकी धरती और गुलाबी गुनगुनी धूप, स्नेहिल हवा,यह एक सन्तुलित मौसम है। इस मौसम मे चारो ओर हरियलि होति है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। और खेत सरसों के फूलों से भरे पीले दिखाई देते हैं अतः राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है और इसे ऋतुराज कहा गया है। इस रितु मै कइ लोग उद्यनो तालाबो आदि मै घूमने जाते है।

वसन्त ऋतु वर्ष की एक ऋतु है जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः सुखद रहता है। भारत में यह फरवरी से मार्च तक होती है। अन्य देशों में यह अलग समयों पर हो सकती है। इस ऋतु की विशेष्ता है मौसम का गरम होना, फूलो का खिलना, पौधो का हरा भरा होना और बर्फ का पिघलना।भारत का मुख्य त्योहार है होली और महाशिवरात्रि, गुप्त नवरात्रि, बसंत पंचमी जो वसन्त ऋतु मे मनाया जाता है। वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है।

'पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। कवि देव ने वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है कि रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है।

कामदेव की 'मार' : वसंत कामदेव का मित्र है, इसलिए

कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वरविहीन होती है।

यानी जब कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं तो उसकी आवाज नहीं होती है। कामदेव का एक नाम 'अनंग' है यानी बिना शरीर के यह प्राणियों में बसते हैं। एक नाम 'मार' है यानी यह इतने मारक हैं कि इनके बाणों का कोई कवच नहीं है। वसंत ऋतु को प्रेम की ही ऋतु माना जाता रहा है। इसमें फूलों

के बाणों से आहत हृदय प्रेम से सराबोर हो जाता है। यह ऋतु कामदेव की ऋतु है। यौवन इसमें अंगड़ाई लेता है। दरअसल

वसंत ऋतु एक भाव है जो प्रेम में समाहित हो जाता है। दिल में चुभता प्रेमबाण : जब कोई किसी से प्रेम करने लगता है तो सारी दुनिया में हृदय के चित्र में बाण चुभाने का प्रतीक उपयोग में लाया जाता है। 'मार' का बाण यदि आपके हृदय में चुभ जाए तो आपके हृदय में पीड़ा होगी। लेकिन वह पीड़ा ऐसी होगी कि उसे आप छोड़ना नहीं चाहोगे, वह पीड़ा आनंद

जैसी होगी। काम का बाण जब हृदय में चुभता है तो कुछ-कुछ होता रहता है। इसलिए तो वसंत का 'मार' से संबंध है, क्योंकि काम बाण का अनुकूल समय वसंत ऋतु होता है। प्रेम के साथ ही वसंत का आगमन हो जाता है। जो प्रेम में है वह दीवाना हो

ही जाता है। प्रेम का गणित मस्तिष्क कीपकड़ से बाहर रहता है। इसलिए प्रेम का प्रतीक हृदय के चित्र में बाण चुभा बताना है।पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा।प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं ||

पं.अनन्त पाठक-

वसंत पंचमी को श्री पंचमी तथा ज्ञान पंचमी भी कहते हैं। बसंत पंचमी हिन्दू त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन स्त्रियाँ पीले वस्त्र धारण करती हैं।

प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों मे सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है।

बसन्त पंचमी का पौराणिक महत्व:-

पं.अनन्त पाठक - इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।

सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और यूँ भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है।

आज के दिन प्रातः काल ही मां सरस्वती की पूजा अर्चना करनी चाहिए।

मां सरस्वती की पूजा संपूर्ण विधि :-

पं.अनन्त पाठक - सरस्वती माता की पूजा करने वाले को सबसे पहले मां सरस्वती की प्रतिमा अथवा तस्वीर को सामने रखकर उनके सामने धूप-दीप और अगरबत्ती जलानी चाहिए। इसके बाद पूजन आरंभ करनी चाहिए। सबसे पहले अपने आपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्घ करें-

"ऊं अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥

इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें-

ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥

शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें

'चन्‍दनम् महत्‍पुण्‍यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्‍यम् लक्ष्‍मी तिष्‍ठतु सर्वदा।

बिना संकल्प के की गयी पूजा सफल नहीं होती है इसलिए संकल्प करें। हाथ में तिल, फूल, अक्षत मिठाई और फल लेकर '

यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः भगवत्या: सरस्वत्या: पूजनमहं करिष्ये|' इस मंत्र को बोलते हुए हाथ में रखी हुई सामग्री मां सरस्वती के सामने रख दें। इसके बाद गणपति जी की पूजा करें।

गणपति पूजनहाथ में फूल लेकर गणपति का ध्यान करें। मंत्र पढ़ें-

गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। हाथ में अक्षत लेकर गणपति का आवाहन: करें ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।।

इतना कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें।अर्घा में जल लेकर बोलें- एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:। रक्त चंदन लगाएं: इदम रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं "इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दुर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं। गणेश जी को वस्त्र पहनाएं। इदं पीत वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि।पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें: इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम:

इसी प्रकार से नवग्रहों की पूजा करें। गणेश के स्थान पर नवग्रह का नाम लें।

कलश पूजन :- घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें। कलश के गले में मोली लपेटें। नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें।

ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥)

इसके बाद जिस प्रकार गणेश जी की पूजा की है उसी प्रकार वरूण और इन्द्र देवता की पूजा करें।

सरस्वती पूजन सबसे पहले माता सरस्वती का ध्यान करें:-

या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता।या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।।या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।1।।

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं ।वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।।हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम् ।वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।

इसके बाद सरस्वती देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें "ॐ भूर्भुवः स्वः महासरस्वती, इहागच्छ इह तिष्ठ। इस मंत्र को बोलकर अक्षर छोड़ें।

इसके बाद जल लेकर 'एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।" प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ श्री सरस्वतयै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। 'ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, सरस्वतयै नमो नमः।। ॐ सरस्वतयै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।'इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब सरस्वती देवी को इदं पीत वस्त्र समर्पयामि कहकर पीला वस्त्र पहनाएं।नैवैद्य अर्पणपूजन के पश्चात देवी को "इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं सरस्वतयै समर्पयामि" मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: "इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं सरस्वतयै समर्पयामि" बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं सरस्वतयै नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं सरस्वतयै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर सरस्वती देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं सरस्वतयै नम:। इसके बाद एक फूल लेकर उसमें चंदन और अक्षत लगाकर किताब कॉपी पर रख दें।

पूजन के पश्चात् सरस्वती माता के नाम से हवन करें। इसके लिए भूमि को स्वच्छ करके एक हवन कुण्ड बनाएं। आम लकडी की अग्नि प्रज्वलित करें। हवन में सर्वप्रथम 'ऊं गं गणपतये नम:' स्वाहा मंत्र से गणेश जी एवं 'ऊं नवग्रह नमः' स्वाहा मंत्र से नवग्रह का हवन करें, तत्पश्चात् सरस्वती माता के मंत्र 'ॐ सरस्वतयै नमः स्वहा' से 108 बार हवन करें। पूर्णाहुति करे तर्पण मारजन करें हवन का भभूत माथे पर लगाएं। आरती करें ‌छमा प्रार्थना करके श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण करें इसके बाद सभी में वितरित करें।

_______पं. अनन्त पाठक

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