कांग्रेस पार्टी की विधानसभा चुनावों में हार की समीक्षा

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। देश की आजादी के संदर्भ में उसका एक गौरवशाली इतिहास है। आजादी के बाद भी करीब 70 साल तक इस पार्टी ने देश की सत्ता चलाई। सम्पूर्ण देश में इस पार्टी का एक वृहद संगठन है। जिसके सहारे यह पार्टी आज भी भारतीय जनता पार्टी को डराती है, ऐसा उसके नेताओं के बयानों को सुन कर लगता है। आज भी कांग्रेस का इतना खौफ है कि बिना नेहरू, इन्दिरा और राहुल गांधी का नाम लिए बगैर न तो कोई बात शुरू होती है, और न समाप्त होती है। अभी हाल में ही देश के पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। जिसमें कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। अपनी परिपाटी के अनुसार जब-जब देश में कहीं चुनाव होता है, तो जीत हो या हार हो, कांग्रेस में परिणामों पर चर्चा होती है। इस समय कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। इसलिए उन्होने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कमतर प्रदर्शन पर मंथन करने के लिए बैठक बुलाई है। आज भी कांग्रेस इस देश की सबसे बड़ी पार्टी है। अभी पाँच राज्यों में जो चुनाव हुए। सभी राज्यों में उसका प्रदर्शन शर्मनाक रहा । यह तब था, जब वह असम और केरल की सत्ता में वापसी के लिए चुनाव में उतरी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां जब सत्ता के लिए किसी राज्य के चुनाव में उतरती हैं, तो उसके लिए उसकी एक निश्चित रणनीति होती है। चुनाव में धन की भी कमी न पड़े, इसका भी प्रबंध किया जाता है। इसके अलावा स्टार प्रचारकों की एक सूची जारी होती है। जिनका उस राज्य या राज्य के किसी विशेष क्षेत्र में व्यापक प्रभाव होता है। जो इस प्रकार प्रचार करते हैं, भाषण देते हैं, जिससे जनमानस को अपनी तरफ मोड़ा जा सके। यह सारी व्यवस्था की गई थी। असम और केरल की सत्ता में आना तो दूर, वहाँ उसका प्रदर्शन भी किसी रूप में सराहनीय नहीं कहा जाएगा। हद तो तब हो गई, जब पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में उसका खाता भी नहीं खुला । कुल मिला कर तमिलनाडु में कांग्रेस का प्रदर्शन ठीक रहा। यहाँ जिस राजनीतिक दल के साथ गठबंधन करके वह चुनाव लड़ी। वह जीता। किन्तु तमिलनाडु में डीएमके-कांग्रेस गठबंधन को जो जीत मिली, उसका श्रेय न तो राहुल गांधी को मिला और न ही कांग्रेस को, उसका श्रेय स्टालिन को गया।
इस चुनाव परिणाम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि इस हार से सबक लेने की जरूरत है। इसी संदर्भ में वह आज कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के साथ असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के चुनाव नतीजों की समीक्षा कर रही हैं। अपने सम्बोधन में उन्होने आगे कहा कि सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सभी राज्यों में हमारा प्रदर्शनक निराशाजनक रहा है और मैं यह कह सकती हूं कि यह अप्रत्याशित है। एक पार्टी के तौर पर सामूहिक रूप से हमें पूरी विनम्रता एवं ईमानदारी के साथ इस झटके से उचित सीख लेनी चाहिए। लेकिन इन चुनाव परिणामों से व्यथित कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि पार्टी को बंगाल में एक भी सीट नहीं मिली। असम और केरल में भी पार्टी विफल रही। पुडुचेरी भी कांग्रेस के हाथ से निकल गया, ऐसे में पार्टी को अपने अंदर झांकने की जरूरत है। इसके लिए कांग्रेस की लचर व्यवस्था ही जिम्मेदार है। अब जब पार्टी की ओर से आवाज उठाई जा रही है, तो इस मामले पर गौर किया जाना चाहिए। इसके बाद उन्होने अपनी बात का ट्रैक बदल दिया। आगे वे कोरोना महामारी से त्रस्त समाज की पीड़ा व्यक्त करने लगे। उन्होने कहा कि वे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन पर आगे कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। उचित समय पर इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखेंगे। आज सभी दलों के सभी लोगों को कोरोना वायरस के बीच लोगों के जीवन को बचाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।पीएम को यह कहना चाहिए कि हम महामारी के खिलाफ इस संघर्ष को जीतेंगे। हम सबको साथ आना चाहिए। चुनाव अलग बात है, लेकिन यह जीवन और मृत्यु की लड़ाई है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने पिछले साल अगस्त में सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होने संगठनात्मक सुधार के लिए अनुरोध था। संगठन में सुधार न होने की वजह से वे व्यथित दिखे।
लेकिन कुछ कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि अभी हाल में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन न करने के पीछे भी एक रणनीति थी। चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद उन्होने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया। जिसमें उनका मकसद चुनाव जीतना नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी को चुनाव हराना था। पश्चिम बंगाल इसका एक उदाहरण है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अपील करने के बाद कांग्रेस बैकफुट पर आ गई। तीसरे चरण से जहां उसका जनाधार था। उसने भाजपा को हराने और ममता बनर्जी को जिताने के लिए अपने मतदाताओं को वोट देने को कहा। उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी चाहे केंद्र का चुनाव हो, या राज्य का। हिंदुओं के ध्रुवीकरण में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देती है। अगर वह इसमें सफल होती है। तो वह सत्ता प्राप्त कर लेती है। इस ध्रुवीकरण को रोकने के लिए ही कांग्रेस ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए ममता बनर्जी के पक्ष में आ खड़ी हुई। ममता बनर्जी की जीत का ऐसे दलों को श्रेय जाता है। कांग्रेस का यह भी मानना है कि वह इस बात को अच्छी तरह जानती है कि अगर गैर भारतीय जनता पार्टी के दलों में मतों का अगर बंटवारा हो जाता तो इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलता । इसी कारण मतों का बंटवारा न हो। कांग्रेस उन दलों के पक्ष में जाकर खड़ी हो गई। जो सत्ता में पुनर्वापसी कर रहे थे। उसके पक्ष में मतदान की अंदर ही अंदर अपील कर डाली। इसका परिणाम भी देखने को मिला। कांग्रेस भले ही पश्चिम बंगाल में अपना खाता न खोल पाई हो। लेकिन उसने भारतीय जनता पार्टी के पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने के मंसूबे पर पानी फेर दिया। इसी कारण पाँच राज्यों में बेहद कमजोर प्रदर्शन करने के बाद भी कांग्रेस की टॉप लीडरशिप खुश है। कांग्रेस की रणनीति से पार्टी के कुछ नेता खुश नहीं हैं। उनका मानना है कि हमें चुनाव जीतने के लिए लड़ना चाहिए। मोदी हारे या जीतें, उस तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए। अगर हमारी पार्टी की इस नीति पर चलने लगेगी कि सिर्फ मोदी को हराना है। तो फिर ऐसी मंथन सभाओं में हम मंथन किस विषय पर करेंगे ?
बिहार कैडर के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने तो यहाँ तक कह दिया कि दूसरे के घर में बच्चा पैदा होने की बहुत ख़ुशी मना लिये, अब खुद भी कोशिश करनी चाहिए जिससे अपना घर भी खिलखिलाए।
लेकिन कांग्रेस के अधिकांश नेता इस बात को स्वीकार करते हैं कि हार-जीत, उतार-चढ़ाव राजनीति का हिस्सा है। ऐसा सिर्फ कांग्रेस के साथ नहीं हो रहा है, अतीत में जाएं तो तमाम दूसरी पार्टियों को भी ऐसे दौर से गुजरना पड़ा है। दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक देशों में भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। सबसे अहम यह होता है कि मुश्किल दिनों में भी आप अपनी विचारधारा के साथ कितनी मजबूती से खड़े हैं। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि वे हर चुनाव से सबक लेते हैं और आगे के चुनावों के लिए अपनी रणनीति में बदलाव करते हैं। हाल-फिलहाल में कांग्रेस तीन चुनाव हारी है। 2014 और 2019 और अभी हाल में सम्पन्न हुए पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव । अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के
के बड़े नेता माने जाते थे। कांग्रेस ने 2004 और 2009 में उनके नेतृत्व वाली सरकार को परास्त करते हुए लगातार दो चुनाव जीते थे। लगातार दो चुनाव हार जाने से क्या बीजेपी खत्म हो गई थी? नहीं। रही बात विधानसभा चुनाव कि 2014 के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस कुछ राज्यों में हारी, तो कुछ राज्यों में जीत भी दर्ज की। कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है। इस कारण इसके कुछ नेता कभी कभार पार्टी लाइन से अलग हट कर भी बोलने लगते हैं। जिससे समाज में नकारात्मक संदेश जाता है। ऐसे नेताओं पर लगाम लगाना चाहिए। उनसे यह अपील करना चाहिए कि जो बातें फोरम में उठाने लायक हों, उसे वहीं उठानी चाहिये। उस पर सार्वजनिक रूप से अपनी निजी राय प्रकट नहीं करना चाहिए। कांग्रेस यह मानती है कि बंगाल का चुनाव महज सीट हासिल करने का चुनाव नहीं था। वहां इस बात का फैसला होना था कि देश का आगे का सफर किस विचारधारा के राजनीतिक दल के साथ आगे बढ़ेगा। भारतीय जनता पार्टी ने बंगाल को प्रयोगशाला बनाया था, अगर वह कामयाब हो जाती तो दूसरे राज्यों में भी वही प्रयोग दोहराती। उसके बाद देश का जो राजनीतिक मिजाज होता, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। बंगाल के नतीजों को लेकर अगर कांग्रेस खुश है तो मोदी की हार की वजह से नहीं बल्कि देश के बचने की वजह से खुश है। पश्चिम बंगाल के संदर्भ में कांग्रेस की अपनी विचारधारा काम कर रही थी। उसका मानना है कि पश्चिम बंगाल को लेकर कांग्रेस के सामने देश और पार्टी में किसे बचाया जाए ? यह विकल्प था। ऐसे में कांग्रेस ने पार्टी को न चुन कर देश को चुना। भारतीय जनता पार्टी धार्मिक ध्रुवीकरण करने में पूरी ताकत लगा रखी थी। हम सीटें जीत सकते थे, लेकिन उस स्थिति में भाजपा के मंसूबे पूरे हो जाते। वह तो यही चाह रही थी। वोटों का जितना ज्यादा से ज्यादा से बंटवारा होता, उतना ही अधिक भारतीय जनता पार्टी को लाभ मिलता । कांग्रेस ने उस चाल को विफल कर दिया।
अपनी इसी रणनीति के कारण कांग्रेस के असरदार नेताओं ने वहाँ सभाएं भी नहीं की। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी और स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी, राहुल गांधी के प्रचार के लिए न जाने का एक संदेश समाज और पार्टी में गया। जिसकी वजह से कांग्रेस का वोट बैंक ममता बनर्जी के पक्ष में चला गया। कांग्रेस ने यह जो यह बलिदान किया है। उसके पीछे 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव हैं। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में मजबूत हैं। वह जितनी मजबूत रहेंगी, उसका लाभ परोक्ष रूप से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भी मिलेगा। जब हम कांग्रेस की इस पूरी रणनीति को 2024 में होने वाले लोकसभा को केंद्र में रख कर देखते हैं, तो अभी हाल में ही पाँच राज्यों में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में हार का कारण समझ में आ जाता है। इसी प्रकार शेष अन्य राज्यों में हुए चुनावों में भी कांग्रेस के हार के इसी प्रकार के कई कारण हैं।
एक राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद उन राज्यों में कांग्रेस अपना पैर फिर से नहीं जमा पा रही है। जहां पर क्षेत्रीय पार्टियां है। उसके अपने कारण हैं। अधिकतर राज्यों में जो क्षेत्रीय राजनीतिक दल प्रभावी हैं। वे सेकुलर राजनीतिक दल ही हैं। और किसी न किसी रूप में वे कांग्रेस के मददगार रहे हैं, या मददगार बनते हैं। इसी कारण कांग्रेस के आलाकमान की ओर से ऐसे राज्यों में पुनर्स्थापित होने में कांग्रेस की ओर से ढिलाई होती है। इस कारण भी कांग्रेस विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। अगर कांग्रेस को फिर से अपना वजूद प्राप्त करना है, तो उसे लचर नीति नहीं अपनाना चाहिए। अन्यथा वह लाचार दिखेगी और लाचार बनी रहेगी। उसे अपने जमीनी स्तर तक के संगठन की मजबूती पर ध्यान देना चाहिए और अपने नेताओं को निर्देश देना चाहिए कि वे जनता के बीच में ज्यादा रहें। जिससे एक बार फिर उनकी जन स्वीकार्यता हो सके।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी/समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट