भोजपुरी कहानी : फिसड्डी
BY Suryakant Pathak17 May 2017 6:18 AM GMT

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Suryakant Pathak17 May 2017 6:18 AM GMT
भारत में शायद ही कोई गांव, टोला, कस्बा या शहर हो जहाँ क्रिकेट की महामारी न फैली हो। आप यहाँ के हर पाचवें घर से सचिन, विराट और धोनी सरीखा बैट्समैन आसानी से ढूंढॅ सकते हैं। यह एक ऐसा खेल है जहाँ न्यूतम संसाधनों में भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की उत्तेजना देखी जा सकती है वैसे भारत के अन्दर क्रिकेट की ऐसी सर्वसुलभता और लोकप्रियता के बावजूद मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मैं इस क्रिकेट के खेल में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का फिसड्डी रहा हूँ।
बल्लेबाजी में अपना मामला बस यूं रहा कि जब अपने हाथ में बल्ला रहता था तो बॉल, बल्ले से इतना शरमाती और दूरी बनाकर चली जाती कि जितना कोई पुराने जमाने की भयहु अपने भसुर को देखकर और कभी टकरायी भी तो बस इतना कि जितना पर्दा से निकलते भसुर से टकरायी और सकुचाई भयहु.....
मुहल्ले की टीम में मेरा चयन केवल दो आधार पर ही होता था, पहला- जब दोनों टीम में संख्या बराबर न हो रही हो और दूसरा-जब खिलाड़ी बहुत कम हों। मेरे चयन के बाद मेरे टीम का कप्तान मुझे इस शर्त पर अपने टीम में रखता कि वह अपनी टीम से एक औसत खिलाड़ी भेजकर दूसरे टीम से अपने मन का खिलाड़ी चुनेगा जैसे कोई सेब तौलने वाला एक किलो सेब में एक कम वजन का निकालकर अधिक वजन वाला सेट करता हो।
सच कहूँ तो मैं बचपन से ही इस खेल के झांसे में नहीं फसता था बस यह समझें कि मित्रों की मुहब्बत में खेल में हिस्सा ले लेता और हर बार बेइज्जत होकर लौटता। इसलिए जब भी चन्दा लगाकर बॉल या बैट खरीदने की बात आती तो सबसे ज्यादा मुझे ही खलता था अब आप ही बतायें कि हम इनकी किस मोहब्बत पर पैसा लगाते ? तुम बल्ले पर आओगी नहीं, कैच हम लोक नहीं पायेंगे बालिंग हमको मिलेगी नहीं तो हम क्यों लगावें पैसा ? अरे ! मेरा एक आना भी पैसा लगाना एकदम पानी में डालने के बराबर था।
वैसे, मेरा जितना अपमान इस फिरंगी खेल ने किया शायद किसी ने किया हो। मैं ज्यों ही बल्ला थामता त्यों गेंद और बल्ले की बेवफाई का ड्रामा शुरु हो जाता। वैसे मैं यह मानकर चलता था कि विकेट पर मैं तभी तक जीवित हूँ जबतक बॉलर का निशाना विकेट पर नहीं लग रहा अगर एक गेंद भी साध के फेंक देता तो बिन अवरोध वह विकेट चूमकर ही मानती।
फिल्डिंग पर मुझे वहीं खड़ा किया जाता जहाँ बॉल आने की न्यूनतम संभावना हो लेकिन नामुराद बल्लेबाज़ जानबूझकर वहीं मारता जहाँ मैं खड़ा होता कसम से गेंद जैसे-जैसे करीब आती मेरा आत्मविश्वास लूटती जाती और मुझे चकमा देकर हाथ से फिसल जाती और मुझे सुनने के लिये छोड़ जाती अपने खिलाड़ियों के नुकीले तंज।
कुल मिलाकर मेरे जीवन में क्रिकेट को लेकर एक उपलब्धि को छोड़ दिया जाये तो फिर नील बटा सन्नाटा ही रहा।
तो आइए इस फिसड्डीपन की चर्चा के साथ वो हसीं वाकया भी सुना दूं-
2004-05 के दौरान मैं लखनऊ के एक कालोनी में रहता था कालोनी में कुछ अधिकारी कुछ कर्मचारी और कुछ विद्यार्थी एक साथ रहते थे अधिकारी लोग अपने पद और आय के हिसाब से अपने आप बड़े भैया बन गये और चालीस वर्ष के विद्यार्थी हेयर-डाई लगाकर मित्र बने रहे।
कालोनी में भी यह क्रिकेट-महामारी अपने भीषण प्रकोप में थी और वहाँ पर भी मुझे छोड़कर सब आला दर्जे के जूनूनी खिलाड़ी थे। वहाँ पर भी मेरी आवश्यकता बस उपरोक्त जैसी ही थी। टीम दो भागों में विभक्त थी जहाँ हार जीत की उत्तेजना का स्तर भारत-पाकिस्तान मैच के जैसा ही था खिलाड़ियों की भाव-भंगिमा और खेल आचरण अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों को स्पर्श करती थी। बल्ला भले एक ही रहा हो लेकिन विकेट चटकाने के बाद हाथ लड़ाना, विकेट गिराने के लिये गोला बनाकर मंत्रणा करना, छक्का लगने के बाद बॉलर का अवसाद ग्रस्त होना यह सभी होता था बस जीत हार के बाद बस शैम्पेन नहीं उड़ायी जाती थी नहीं तो कुछ बचता भी नहीं था।
ऐसे ही एक महत्वपूर्ण मैच में विषम को सम करने के चक्कर में मुझे भी शामिल किया गया और मैं श्री संजय सिंह जी के कप्तानी में एक परिक्षार्थी के छठवीं पेन के रूप में चयनित हुआ। मेरे प्रतिद्वंद्वी टीम के कप्तान अमित मल्ल जी थे। मुझको छोड़ दोनों टीमें और खिलाड़ी आत्मविश्वास से लबरेज़ थे।
पहले बल्लेबाजी का मौका मेरे प्रतिद्वंद्वी टीम को मिला और उन्होंने दस ओवर के मैच में बासठ रन का विशाल और सम्मानित स्कोर खड़ा किया। दूसरी पारी हमारी थी और जिसके ओपनर थे, हमारे कप्तान जो कि एक धुरन्धर बैटमैन थे। लेकिन दुर्भाग्य कि मेरे कप्तान तीसरी गेद में ही बॉलर के निशाने पर आकर विकेट गवां दिये जो कि यह हमारे टीम की बड़ी क्षति थी उसके बाद प्लेयरों का आना जाना लगा रहा और मेरी टीम लगभग बीस रन बनाकर, मेरे भरोसे चली गई। मैं बचा अकेले (प्लेयर की कमी के कारण अन्तिम खिलाड़ी बिना रनर खेलने के लिये मान्य था) और सामने रनों का पहाड़। प्रतिद्वंद्वी टीम जीत का जश्न मना रही थी क्योंकि मैदान पर केवल औपचारिकता ही शेष थी। हमारी टीम पराजय के अपमान में डूबकर भी खेल भावना के साथ अपने एक मात्र और अन्तिम फिसड्डी से भी कुछ आस लगा रही थी। वैसे मैं बिल्कुल दबाव मुक्त था क्योंकि आज हार की जबाबदेही का तनिक भी भय मेरे अन्दर नहीं था। मेरे कप्तान मेरे पास आये और एक समर्पित सेनापति की तरह कान में गोपनीय मंत्र बताया वैसे मेरे लिये उनका टिप्स बस ऐसे ही था जैसे अखरोट पर दांत फिसल जाये।
प्रतिद्वंद्वी टीम जीत को लेकर इतनी आश्वस्त थी कि बस दो-चार गेंदो की देर हो और वे निश्चय ही कुछ लापरवाह भी हो गये। उधर से गेंद फेंकी जाने लगी और इधर से ईश्वर की अनुकम्पा से बैट-बाल में मिलन भी होता गया और ठुक-ठाक करते धीरे-धीरे आठ-दस रन निकल गये लेकिन लक्ष्य अभी भी तीस-बत्तीस रन दूर था बस पराजय अन्तर घट रहा था। लेकिन हार का विशाल मुख अभी भी जबड़े खोले हुए था वैसे विरोधी घबराये तो नहीं थे लेकिन मुस्कान जरूर कुछ कम हो गयी। मेरा आत्मविश्वास थोड़ा लहर मारने लगा और मामला बारह, पन्द्रह, अठारह करते-करते पच्चीस रन तक पहुंच गया। अब विपक्षी टीम के चेहरे पर बेचैनी साफ झलकने लगी थी और मैं भी मझदार पार करके, किनारे से बस कुछ ही दूर था वैसे डूबने के आसार अभी भी पूरे थे। मेरी टीम का चलता तो लाठी पकड़ा कर किनारे खींच लाती खैर, खेल आगे बढ़ा और साथ में रन भी धीरे-धीरे मामला चार-छह रन का ही शेष बचा था। दोनों तरफ चिल्लाहट मचने लगी और मेरे दिल में घबराहट.. यकीनन उस दिन मैं नहीं खेल रहा था शायद कोई दैवीय शक्ति रही होगी और उन्हीँ ने आगे भी बल्ला चलावा दिया और मैं दसरथ मांझी बन गया। मेरी टीम ने मुझे कन्धे पर बिठा लिया और जयकारे लगने लगे। विपक्षी टीम को दो आघात पहुंचे पहला जीता हुआ मैच हारने का और दूसरा मेरे जैसे फिसड्डी के हाथों हारने का।
मैं रातों-रात चैम्पियन बन गया, लोगों को मेरे भीतर संभावनाएं दीखने लगी। अगले कुछ मैचों में मैं बतौर ओपनर ट्राय किया गया लेकिन वह एक महज संयोग और दुर्घटना ही थी क्योंकि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि मैं क्रिकेट में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का..
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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