आलोक पुराण १३ "इश्क का पोस्टमार्टम"
BY Suryakant Pathak19 May 2017 11:50 AM GMT

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Suryakant Pathak19 May 2017 11:50 AM GMT
शाम का समय था, आलोक पाण्डेय खटिया पर बैठ कर खजुअट खजुआ रहे थे। खजुअट आलोक पाण्डेय का सबसे विश्वस्त और निष्ठ साथी है। प्रत्येक वर्ष कातिक के महीने में आता है तो फिर आसाढ़ की बरसात बिता कर ही जाता है।आलोक पाण्डेय जब मग्न हो कर खजुआने लगते हैं, तो उनके चेहरे पर पसरी शांति देख कर लगता है जैसे किसी कब्ज के मरीज को महीनों बाद किरान्ति हुई हो। उस समय वे एक महान पादरी की तरह दीखते हैं।
आज आलोक पाण्डेय के विद्यालय में छुट्टी थी, सो घर के काम जल्द ही निपटा लिए थे। झाड़ू पोंछा करने में तो उन्हें बिलकुल भी समय नहीं लगता है, और बर्तन धोने में तो वे ऐसे सिद्धहस्त हैं जैसे झूठ बोलने में केजरीवाल साहब। आज छुट्टी का दिन था सो चार दिन से पड़े सभी कपड़े भी धो दिए थे, और बदले में चार झाड़ू का आशीर्वाद पा कर जैसे तृप्त हो गए थे। उनके चेहरे पर तृप्ति देसाई जैसी तृप्ति झलक रही थी।
डेढ़ घंटे तक पूरी तन्मयता के साथ खुजलाने के बाद आलोक जी की तन्द्रा भंग हुई, उन्होंने सुना घर से नीतू के खिलखिलाने की आवाज आ रही थी। खिलखिलाहट धीरे धीरे बढ़ते बढ़ते जब ठहाकों में बदल गयी तो आलोक बेचैन हो उठे। उन्होंने आवाज लगाई- क्या हुआ नीतू? ऐसा क्या देख लिया जो हँसी रुक नहीं रही?
अंदर से अर्धांगिनी ने हँसते हुए ही जवाब दिया- आपकी चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र देख कर हँस रही हूँ मिस्टर चरित्रहीन पाण्डेय। इसे आपके 'इश्क का पोस्टमार्टम रिपोर्ट' कहूँ या 'थेथरई का महाकाव्य', यही समझ में नहीं आ रहा।
भौंचक हो कर आलोक पाण्डेय नीतू का मुह निहारने लगे। नीतू ने हँसते हुए एक कागज का टुकड़ा उनके मुह पर फेंक कर कहा- लीजिये, आपकी प्रेयसी का प्रेमपत्र है। आपके मित्र सिद्धार्थ प्रियदर्शी आये थे, वही दे कर गए कि भइया को दे दीजियेगा। वह तो मैंने यूँ ही खोल कर पढ़ लिया वरना...
नीतू हँसते हुए घर में चली गयी तो आलोक पाण्डेय ने कांपते हुए पत्र उठाया और पढ़ने लगे। लिखा था...
आदरणीय आलोक जी
सादर प्रणाम।
यह पत्र मैं अपनी उन सारी गलतियों की माफ़ी मांगने के लिए लिख रही हूँ जो मुझसे हुई हैं। मैं जानती हूँ कि आप मेरा विश्वास नहीं करेंगे, पर इसमें आपका कोई दोष नहीं मैंने अपराध ही ऐसा किया है। आप तो प्रेम के देवता हैं, बस मैं ही आपको समझ नहीं सकी। मेरे प्यार में सौ सौ बार कोड़े की मार खाने के बाद भी आपके हृदय में मेरा प्रेम बचा है, यह क्या छोटी बात है। जितनी मार आपने मेरे प्यार के लिए खाई है, उतना तो कोई क्लर्क अपने जीवन में घूस भी नहीं खाता। जितना नीचे आप मेरे प्रेम में गिरे हैं, उतना नीचे तो कोई नेता भी नहीं गिरता। मेरे प्रेम के लिए जितनी आसानी से आपने खुद को बेच दिया, उतनी आसानी से तो देश की आम जनता अपना वोट नहीं बेचती। जितनी बेइज्जती आपने मेरे लिए सही है, उतनी तो केजरीवाल साब ने कुर्सी के लिए भी नहीं सही।
कितना कहूँ, जब आपके बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि आपके जैसे सूफी व्यक्ति का अपने पति से तेल निकलवा कर मैंने जो पाप किया है, उसकी सजा में ईश्वर अगले जन्म में मुझे किसी मानदेय वाले मास्टर की बीबी बना कर ही देगा।
सच पूछिए तो मैंने दिल से कभी नहीं चाहा कि बीडियो साहब आपका बोखार झारें, पर जाने कैसे हर बार आप उनके चंगुल में फंस जाते हैं, और वे आपको मौलाना बरकती बना देते हैं।
उस बार जब बीडियो साहेब आपको खंभे में बांध कर आप पर कोड़े बरसा रहे थे तो मेरा दिल कैसे तड़प रहा था यह कैसे बताऊं। हर कोड़े के बाद जब आप उई उई करते तो मेरे दिल में जैसे सुई चुभ जाती। मुझे लगता था जैसे कोड़े आपके इस्लामाबाद पर नहीं, मेरे दिल की दिल्ली पर गिर रहे हों। कोड़े गिरने पर जब आप दो दो फिट ऊपर कूदते थे तो मेरा दिल तड़प उठता था, और मन करता था कि आपको चूम लूँ। जो आदमी मेरे लिए इतनी मार खा रहा हो उसके लिए प्यार नहीं आएगा? पर क्या करती, बीडियो साहेब के डर से हर बार चुप रह गयी।
और उस बार जब बीडियो साहब आपका हाथ पैर बांध कर आपके सामने तलवार में धार लगा रहे थे, तो आपने जो राग सुरसुरी में हनुमान चालीसा पढ़ा था उसको मैंने चुपके से रिकार्ड कर लिया था। आजकल जब भी आपकी याद आती है तो वही सुन लेती हूँ।
ज्यादा क्या कहूँ, बस यह समझिये कि मुझसे अबतक जितने भी अपराध हुए हैं सबके लिए आपसे बार बार क्षमा मांगती हूँ। मेरे पति ने आपका जो चरित्रहीन पाण्डेय नाम रख दिया था, मैं उसके लिए भी क्षमा चाहती हूँ।
मैंने 5 जून को एक छोटी सी पार्टी रखी है, मैं चाहती हूँ कि आप उसमें आएं, और डॉ नित्यानंद शुक्ला को भी लेते आइयेगा। आप आएंगे तो मुझे लगेगा कि आपने हमें माफ़ कर दिया।
आपकी
बबिता ठाकुर
पत्र समाप्त होते होते आलोक पाण्डेय के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी थी। उन्होंने तुरंत डॉ शुक्ला का नम्बर डायल किया, और फोन रिसिभ होते ही शुरू हो गए- अरे नित्य, आज बबिता का पत्र आया था। तुमको बुला रही थी। उसकी बहन आयी है।
पर हा रे दुर्भाग्य! फोन डॉ शुक्ला की अर्धांगिनी ने उठाया था। उसने सब सुनने के बाद कहा- आप तो साफ थेथर हैं जेठ जी, आपको शर्म भी नहीं आती? अभी तक तो नित्य का पुराना दर्द ही ठीक नहीं हुआ, आप दुबारा बुलाने लगे? ये अब भी रात को सोते समय हुई हुई हुई हुई कहते हुए उठ जाते हैं, आज भी रोज इनके कमर में झंडुबाम मलती हूँ। अभी तक इनके पीठ के दाग नहीं मिटे और आप दुबारा बुलाने आ गए?
आलोक पाण्डेय ने झट से कान से मोबाईल हटाया, उनके कान लाल हो गए थे। पर अचानक उनके दिमाग में कुछ खटका और वे बेचैन हो उठे।
उन्होंने झट से बबिता को फोन लगाया और छूटते ही पूछा- तुमने हमें पत्र लिखा था बबिता?
बबिता पिनक कर बोली- मैं भला आपको चिट्ठी क्यों लिखूंगी? आपका दिमाग सटक गया है क्या।
आलोक समझ गए कि यह सारा रायता सिद्धार्थ का फैलाया हुआ है। मन ही मन बोले- तू मिल जा हरामखोर, तेरी तो वह थुराई करूँगा जो करणी सेना वालों ने भी न की होगी।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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