फिर एक कहानी और श्रीमुख "सेनापति"
BY Suryakant Pathak20 May 2017 11:50 AM GMT

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Suryakant Pathak20 May 2017 11:50 AM GMT
गंगा के किनारे बसा एक गांव, पहलवान जैसे चार व्यक्तियों की पकड़ में छटपटाता एक बालक चीख रहा था- मेरे पिताश्री को छोड़ दो, मेरी माँ को छोड़ दो... आठ साल का वह मासूम वेदपाठी वटुक ब्राम्हण चिल्लाता रहा,पर उसके सामने ही उसकी माँ और पिता की हत्या हो गयी।
मृत पति पत्नी का दोष बस इतना था कि उन्होंने यवन क्षत्रप को प्रणाम नही किया था।गांव की अधिकांस जनसंख्या बौद्ध थी, और अहिंसा की अर्गला में बधें लोगों ने हत्यारों से निरीह ब्राम्हण की रक्षा के लिए एक पग भी आगे नही बढ़ाया।
हत्यारे जब चले गए तो गांव के अनेकों स्त्री पुरुष शव के पास एकत्र हो कर चर्चा करने लगे, पर बच्चे की आँखों में रक्त उतर आया था। उसे जैसे संवेदना के शब्दों से घृणा हो गयी थी।
अगले बारह दिनों तक माता पिता की मृत्यु का शोक मनाने और श्राद्ध करने के बाद वह गांव से गायब हो गया था। कुछ लोगों ने उसे घने जंगलों की ओर जाते देखा था।
तात्कालिक विश्व् की सबसे सुंदर और वैभवशाली राजधानी पुष्पपुर(पाटलिपुत्र,पटना) यहां से कुछ हीं दूर थी। सिकंदर की सेना के साथ भारत आये यवनों की एक अच्छी संख्या भारत में बस गयी थी। चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक के काल तक तो ये यवन शांत थे, पर अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने और उसके बाद अहिंसक विचारों के कारण अप्रासंगिक हो चुके उनके उत्तराधिकारियों के काल में यवनों का अत्याचार आम जन पर बढ़ गया था। मगध का बौद्ध मौर्य नरेश अकर्मण्य हो चूका था, और शासन की डोर जैसे उसके हाथ से दूर हो चुकी थी। आम जन पर यवनों के अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।
गंगा तीर पर खड़े एक बरगद की पत्तियां हमेशा उदास रहती थीं।
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दस वर्ष बीत गए।
वसंत के दिन थे, मौर्य नरेश बृहद्रथ प्रतिवर्ष की भांति वन में आयोजित बसंतोत्सव में सपरिवार सम्मिलित होने वन में आया था। उल्लास के पर्व में मदिरा पी कर मत्त राजा और अमात्यों का दल इधर उधर झूम रहा था। अचानक एक सिंह की भयानक गर्जना से वन कांप उठा। सबकी निगाहें उठीं, सिंह सम्राट से कुछ पग की दुरी पर ही था। मदिरा के नशे में धुत्त सम्राट को संभलने का भी होश नही था। सिंह सम्राट की ओर झपटा किन्तु उसे बीच में ही दो वलिष्ट बांहों ने रोक लिया। सबने देखा, एक बलिष्ट ब्राम्हण कुमार ने सिंह को अपनी भुजाओं में जकड़ रखा है। उसका अद्भुत हस्तलाघव, अतुल्य वीरता, और अदम्य साहस सबको अचंभित कर रहा था। कुछ क्षण में ही सिंह मृत पड़ा था।
चकित सम्राट ने पूछा- तुम कौन हो बीर?
- एक ब्राम्हण हूँ सम्राट।
-नाम?
-पुष्यमित्र
बौद्ध सम्राट ने तनिक सोचा और कहा- अगर ब्राम्हण नही होते तो तुम्हे आज सेनापति बना देता।
ब्राम्हण कुमार ने कुछ सोंचा, फिर आकाश की तरफ देख कर किसी अदृश्य को प्रणाम किया, और पास खड़े किसी आमात्य का उत्तरीय खिंच कर अपने माथे पर लगा तिलक पोंछ कर बोला- प्रस्तुत हूँ सम्राट। अब मैं ब्राम्हण नहीं।
अचंभित सम्राट ने युवक का हाथ हवा में उठा कर कहा- आज से योद्धा पुष्यमित्र मगध के उपसेनापति हैं।
चारो ओर से साधू साधू की ध्वनि गूंजी।
युवक की आँखों में आज भी रक्त उतरा हुआ था।
गंगा तीर के बरगद की पत्तियां अब हिलने लगीं थीं।
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मगध अब पहले जैसा बड़ा साम्राज्य नही रह गया था, चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार के विजित प्रदेश धीरे धीरे स्वतन्त्र हो चुके थे।प्राची, कोशल,वत्स, अवन्ति, तक्षशिला, पंजाब, कान्यकुब्ज,आदि स्वतंत्र रूप से छोटे छोटे राज्यों में बट गए थे। पश्चिम में यवन पुनः शीश उठाने लगे थे, किन्तु शांतिप्रिय बौद्ध शासक को जैसे इससे कोई फर्क नही पड़ता था।
पुष्यमित्र अब मगध का उपसेनापति था और सम्राट का मुख्य सलाहकार भी। दरबार के मामलों में सम्राट उसकी राय अवश्य लेते थे। किन्तु अहिंसा के मुद्दे पर उसके विचार हमेशा सम्राट से भिन्न रहते थे।वह यवनों के आक्रमण के खतरे से चिंतित रहता तो सम्राट शांति की उपासना में मग्न।
दो वर्षों में पुष्यमित्र मगध का मुख्य सेनापति था।
पश्चिम में सिंधु नदी के आसपास के यवन अब गंगा के क्षेत्र में बढ़ने लगे थे। मगध पर आक्रमण का खतरा अब सर पर आ चूका था। निश्चिन्त पड़े सम्राट की ओर से निराश पुष्यमित्र ने एक दिन स्वयं हीं सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। यह एक तरह से सम्राट को खुली चुनौती थी। पुष्यमित्र सेना की परेड में सेना को संबोधित कर रहा था, तभी सम्राट की पालकी आयी।
सम्राट ने गरज कर पूछा- सेना की तैयारी किसके आदेश से हुई?
पुष्यमित्र ने सर झुका कर कहा- मेरे आदेश से।
सम्राट गरजा- तुम कौन? और क्यों?
- मगध की रक्षा के लिए।
- मगध की रक्षा की जिम्मेवारी तुम्हारी नही सेनापति, मेरी है। हम निरर्थक रक्तपात का आदेश नही दे सकते। हम शांति और अहिंसा के पुजारी हैं।
-अहिंसा की पूजा किसी व्यक्ति के लिए सही हो सकती है, सम्राट के लिए नहीं। यह किसी व्यक्ति का नहीं एक साम्राज्य का मुद्दा है।
-निरर्थक प्रलाप बन्द करो सेनापति, साम्राज्य मेरा है तुम्हारा नहीं।
- साम्राज्य किसी का नही होता सम्राट, बल्कि हम साम्राज्य के हैं। हम अपनी नकली विचारधारा पर आमजन को वलि नही चढ़ा सकते।
सम्राट का क्रोध बढ़ा, वे गरजे- चुप कर मुर्ख, हम अहिंसा का पथ नही त्याग सकते।
सेनापति पुष्यमित्र का हाथ उसके तलवार की मुठ पर था। उसने कहा- किन्तु अहिंसा का भ्रम मैंने नही पाला सम्राट, मुझे क्षमा करें। इससे पहले कोई कुछ समझे, सेनापति की तलवार सम्राट का शीश उड़ा चुकी थी।
पुष्यमित्र ने रक्त से नहाया अपना शस्त्र हवा में लहराया और कहा- न बृहद्रथ महत्वपुर्ण था, न पुष्यमित्र शुंग। महत्वपुर्ण है मगध, और उसकी प्रजा। महत्वपूर्ण है आर्यावर्त। हमें यवनों को रोकना ही होगा। आप तैयार हैं?
हजारों सैनिकों ने मुक्तकंठ से कहा- हाँ सम्राट।
पुष्यमित्र ने कहा- सम्राट नहीं सेनापति। पुष्यमित्र मगध का सेनापति था, और सेनापति ही रहेगा।
उसकी आँखों में आज भी रक्त उतरा हुआ था।
गंगा तीर के पुराने बरगद की पत्तियां युगों बाद मुस्कुरा उठी थीं।
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दो महीने बाद ही मगध की सेना यवन सम्राट दमित(डेमेट्रीयस) की सेना के सामने खड़ी थी। विगत चालीस वर्षों से यवनों का अत्याचार सह रही सिंधु देश की प्रजा के लिए आज भारत का सेनापति शासक खड़ा था। युगों से झूठी अहिंसा के छलावे से मुक्त सैनिक आज पुरे आत्मविश्वास के साथ खड़े थे। आज युगों के बाद भारत की धरा मुस्कुरा रही थी।
और यही कारण था कि युगों से यवनों के हाथ पराजित होने को अभ्यस्त भारतीय सेना ने दिन भर में ही यवनों को काट कर रख दिया। शाम होते होते डेमेट्रियस और उसकी सेना से सारे सेनापति मारे जा चुके थे।
आज तीन वर्ष बाद जब युद्धभूमि में पुष्यमित्र ने यवन आक्रांता सैनिक के रक्त से अपना तिलक लगाया तो दूर गंगातट के बरगद की पत्तियां खिलखिला का हँस उठीं।
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समय साक्षी है, सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने युगों बाद भारत में भारत को स्थापित किया। तीन सौ वर्षों तक भारत में रहने बाद भी भारतीयता को नही स्वीकारने वाले यवन पुष्यमित्र के काल में ही भारत में घुल पाये।
उसने सिद्ध किया कि भारत की धरती झूठी अहिंसा के पुजारियों को नहीं योद्धाओं को पुजती है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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