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भोजपुरी कहानिया

भगोड़ा : रिवेश प्रताप सिंह

भगोड़ा : रिवेश प्रताप सिंह
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डॉक्टर ज्ञानेंद्र की पदोन्नति के साथ उनकी अन्तिम पोस्टिंग उत्तराँचल के पहाड़ी क्षेत्र में हुयी। छुट्टियों में घर लौटने पर डॉ० साहब पहाड़ी जीवन एवं वहाँ के वातावरण के बारे में खूब चर्चा करते । वह हमेशा बताते कि पहाड़ का जीवन स्वास्थ्य के लिहाज से अनुकूल एवं सौन्दर्य के दृष्टिकोण से मनोहारी होता है। पहाड़ के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं भ्रमण पर आये सैलानियों के विषय में एक से एक किस्से बताते। सौन्दर्य और पहाड़ी जीवन के इतने रोचक किस्सों में डॉ० साहब का गृहप्रेम भी छलक जाता क्योंकि वह बात-बात में वह इतना जरूर कहते कि घूमने और लिहाज़ से तो पहाड़ का जीवन बढ़िया है , लेकिन जो लोग वहाँ पर ड्यूटी करने आते हैं उनके लिये वहाँ का जीवन कठिन एवं दुर्गम होता है। अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिये पहाड़ चढ़ना उतरना बहुत दुरूह है। ड्यूटी का समय तो मरीजों में कट जाता, लेकिन ड्यूटी के बाद का समय काटना कठिन होता है। निर्जन पहाड़ पर दूर-दूर बसे छोटे-छोटे मकान शाम से ही माहौल में नीरसता घोलने लगते।
डा० साहब अस्पताल के पास ही एक किराये का कमरा लेकर अपनी जरूरत के न्यूनतम सामानों के साथ रहने लगे। समान भी क्या .! एक चौकी, एक बिस्तर और कुछ बर्तन और कपड़े। खाली समय में जब डॉ० साहब का वक्त नहीं कटता तो वह मकान मालिक के पिता रामपाल जी के पास बैठकर अपना समय बिताते। मकानमालिक भी मैदानी क्षेत्र के रहने वाले थे लेकिन यहाँ अपना निजी आवास बना लिया था और अपने परिवार और सेवानिवृत्त पिता के संग रहते थे। डॉ० साहब ड्यूटी के पहले और बाद में खाली रहते और रिटायर्ड फौजी रामपाल जी के साथ ही देश दुनिया की बातों के सहारे समय काटते। दोनों लोगों के मिलने पर खूब बातें उठती, धीरे-धीरे मजाक का भी चलन हो चला ।
एक दिन डॉ साहब बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे और फौजी रामपाल बाहर चबूतरे पर नंगे बदन स्नान की तैयारी में थे। स्नान के वक्त रामपाल जी की पीठ डॉ० साहब की ओर थी तभी डॉ० साहब की नजर उनके पीठ पर लगे जख्म के गहरे निशान पर गई। डॉ० साहब अखबार से मुंह उठाकर तपाक से बोले 'क्यों साहब! आप भी कभी फौज में पीठ दिखाये थे क्या ?आपके पीठ पर तलवार या किसी धारदार हथियार का गहरा निशान दिख रहा है।'
डॉ० साहब द्वारा निकले प्रश्न पर रामपाल जी बिल्कुल जड़ हो गये और स्नान का मग्गा वहीं छोड़कर तौलिया लपेट कर डा० साहब के करीब आकर बैठ गये । गंभीर आवाज़ में कहने लगे 'डाक्टर साहब, चाहता तो मैं आपकी बात को हँसकर टाल देता .. लेकिन आपके प्रश्न के मुकुट पर आरोप की इतनी बड़ी मणि मढ़ित है कि उसको टालना मेरे लिए मृत्यु समान है ।'

रामपाल जी ने पुनः अपना स्थान परिवर्तित किया और डॉ० साहब के बराबर वाली कुर्सी पर आ गये । एक लंबी सांस खीचते हुऐ बिल्कुल शक्तिहीन भाव में बैठ गये । डॉ० साहब को शायद अपने प्रश्न की गंभीरता का अंदेशा हो चुका था। उन्होंने अखबार मोड़कर तख्त पर रखा और रामपाल जी के निस्तेज चेहरे को पढ़ने का प्रयास करने लगे। रामपाल जी अपनी पुरानी स्मृतियों के कुछ पन्ने सँजोकर फिर लौट आये । डॉ० साहब के प्रश्न का जबाब देने और फिर धीरे किन्तु गंभीर भाव से कुछ शब्द फूटने लगे।
'डा० साहब बात उन दिनों की है जब मैं फौज से नया-नया भर्ती हुआ था। उमर यही कोई इक्कीस के आस पास थी। एकदम युवा, जोशीला, गठा-इकहरा बदन.. नौकरी मिलते ही एक साल के भीतर विवाह भी तय हो गया । मेरे गांव से लगभग साठ किलोमीटर पश्चिम दिशा में। मेरी होने वाली पत्नी बहुत नाजुक, गोरी और सुन्दर थीं। मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि सिंदूरदान के समय ही मैं उनके प्रेम-डोर से जकड़ लिया गया।खैर विवाह हुआ वह विदा करके घर आयीं। मेरे लिये वह बिल्कुल अलग एहसास लिए ख्वाबों की दुनिया थी। अधिकाधिक समय उन्हीं के साथ गुजारना मेरे लिये सबसे सुखद था .. और धीरे-धीरे कब चार महीने बीत गये और मेरी छुट्टियाँ एक रात की तरह गुजर गयीं। उनकी प्रथम विदाई का वक्त भी आ गया और मेरे ड्यूटी पर जाने का। मैं उनको मायके में छोड़कर ड्यूटी पर रवाना हुआ, उनके यादों एवं एहसासों का भारी वजन लेकर।
अब मैं ड्यूटी पर भी इन्हीं के याद में खोया रहता और उन्हीं के सहारे अपना वक्त काटता। अचानक मुझे सात दिन का अवकाश मिला जिसमें मैं घर न जाकर , अपनी ससुराल पहुंच गया।'
'डाक्टर साहब, यह बात आज से चालीस वर्ष पुरानी है.. जब ससुराल में दमादों के लिये न तो कोई शयनकक्ष होता था और न ही साथ सोने की व्यवस्था । गर्मी का दिन था.. मैं पत्नी से मिलकर रात ग्यारह बजे तक, बाहर अपने बिस्तर पर आ गया। लेकिन नींद तो मेरी उन्हीं के पास छूटी हुई थी। मैं बरामदे में लेटा था , तभी मेरी पत्नी रात के बारह बजे के आसपास घर के सामने से गुजरीं । मैंने उन्हें जाते देखा तो मन में स्वाभाविक विचार आया, कि शौच के लिये निकली होगीं । और मैं चुपचाप लेटा रहा तथा उनके आने और उनके एक झलक पाने की प्रतीक्षा में उनकी राह जोहता रहा , कि आते वक्त उनका एक बार और दर्शन कर लूंगा । लेकिन लगभग एक घंटे बीत गये किन्तु तब तक वह न लौटीं । मेरी व्यग्रता बढ़ने लगी, लेकिन मैं कर भी क्या सकता था! मन में नकारात्मक और निरर्थक ख्याल घेरने लेगे। इसी बेचैनी और कसमसाहट में तीन घंटे गुजर गये और वह भोर में तीन बजे लौटीं। चाहता तो मैं उनसे वहीं रोककर पूछ सकता था , लेकिन मन में एक संदेह अंकुरित हो चुका था। यदि प्रश्न करता , तो वह कुछ भी झूठ बोल सकतीं थीं। मैं अपने इस कौतुहल और बेचैनी पर धीरज का पर्दा डालकर करवट बदलने लगा। भोर की बेचैनी मेरे मस्तिष्क में शूल की तरह चुभी थींं मैं पूरा दिन बेचैन रहा। जब मैं दूसरी रात अपनी खाट पर पहुंचा तो नींद कोसों दूर थी और मैं अपने बिस्तर पर लेटकर टकटकी लगाये बाहर देखता रहा । सोच रहा था कि काश आज वह बाहर न निकलतीं , लेकिन यह मात्र मेरा भ्रम था। उस रात भी वह आधी रात को निकलीं लेकिन आज मैं उनके पीछे हो लिया। वह सुनसान राह में जंगल के रास्ते निर्भीक बढ़ीं जा रहीं थी .. मैं उनसे कुछ दूरी बनाकर उनका पीछा करने लगा। रास्ता नदी की ओर जा रहा था बिल्कुल सुनसान, निर्जन। फौज में होने के बाद भी भय की सनसनी मुझे छूकर गुजर रही थी । लगभग दो किलोमीटर पार करने के बाद वह नदी के किनारे एक कुटिया के समीप खड़ी हो गयीं और सिर झुकाकर उसके छोटे से द्वार में प्रवेश कर गयीं। अब मेरे आगे बढ़ने का रास्ता बंद हो चुका था । मैं बाहर कुछ दूरी पर ठहर,चुपचाप उनकी प्रतीक्षा करने लगा। मन में ज्वार उठ रहा था, लेकिन न जाने वह कौन सा भय था जो मुझे रोके रखे था। शायद मेरा मन जान चुका था कि वहाँ का दृश्य मात्र ही मेरे पराजित होने के लिये पर्याप्त है। वक्त कटने का नाम नहीं ले रहा था। हताशा और हार ने मेरे पैरों की शक्ति को झीण कर दिया। लगभग तीन घंटे गुजरने के बाद मेरी पत्नी कुटिया से बाहर आयीं और साथ में एक अधेड़ साधु बाहर निकला । उसने उन्हें आपत्तिजनक स्पर्श के साथ विदा किया और मेरे विश्वास को मुझसे । फिर भी मैने खुदको सम्भाला और बहुत तेज कदम से घर की तरफ लौट गया। डॉ० साहब पहली रात तो संदेह वाली थी लेकिन दूसरी वज्रपात कर देने वाली। मेरी दूसरी रात अपमान, पराजय और प्रतिशोध की अग्नि में झुलसती रही।'

'डॉ० साहब, मेरे लिए सिर्फ एक रास्ता था.. वह था बदला। वैसे विकल्प भी क्या था ? मेरे आँखों के सामने उस साधू का चेहरा नाचता रहता और मैं उसको राह से हटाने के लिये तरह-तरह के व्यूह रचने लगा। अगले दिन मैं भरी दोपहरी में अकेले नदी के तरफ चल पड़ा और सोचते, बुदबुदाते साधु की कुटिया तक जा पहुंचा । साधु के लिये मैं सिर्फ एक राहगीर था और वह मेरे लिये राह का कांटा । साधू जब मेरे सम्मुख आया तो मैं क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था। मैं पूरी योजना और अन्तिम परिणाम सोच कर निकला था.. और हुआ भी वही। डॉ० साहब... साधु मेरे क्रोधाग्नि के सम्मुख दस मिनट भी न टिक सटा और मैंने एक अपराध कर दिया... वह भी बिना किसी अपराधबोध के! मैं तेजी से कुटिया से निकला, बेचैनी, विजय एवं पराजय तीनों को साथ लेकर।
घर लौटने पर मैंने यह पूरा ध्यान रखा कि पत्नी को तनिक भी संदेह न हो। अपने व्यवहार को और नियंत्रित किया ।'
'आज तीसरी रात थी । साधु की हत्या के बाद मेरे मन में भय समा गया था। मैं बिस्तर पर बिल्कुल शक्तिहीन लेटा था तभी मेरी पत्नी सामने से गुजरीं, आज उनको देखते मेरा दिल बैठने लगा। कुटिया का चित्र मेरे मस्तिष्क पर कौंधने लगा, लेकिन फिर भी मैं खुद को संम्भाला और और आज फिर उनके पीछे हो लिया। आज तो कुटिया में सिर्फ एक लाश थी ! मेरी पत्नी लाश को देखकर बिल्कुल विक्षिप्ततावस्था में आ गयीं। वह अकल्पनीय दृश्य मेरे लिये अकथनीय है डॉ० साहब! आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने न जाने कैसे रोते-बिलखते उस साधु की लाश को नदी में विसर्जित किया , साथ ही मेरे निश्छल प्रेम को भी। मैं उनकी यह निर्भीकता देखकर स्तब्ध था। आज पहली बार मुझे अपनी पत्नी से भय लगने लगा था । मैं अपना सबकुछ हारकर चुपचाप घर लौट आया ।
'उसी रात से पत्नी की तबियत बिगड़ गयी , लेकिन मैं बिल्कुल अनजान बन उनकी दवा और इलाज की व्यवस्था में लगा रहा । मेरे व्यवहार में जरा भी परिवर्तन मुझपर कातिल की मुहर लगा देता।'
धीरे-धीरे वक्त बीता और मैं यह राज़ अपने सीने में दफन करके अपने नौकरी पर चला गया। मैं यह नहीं कहता कि मेरे दिल में मेरे पत्नी के लिये वह जगह बची थी, लेकिन शायद वो मेरा प्रेम ही रहा होगा , जो उनके सानिध्य सुख के लिए मुझे जहर को पीने के लिए ताकत देता था।'

'डा० साहब, समय के तो पंख लगे होते हैं ! न जाने कैसे वर्षों बीत गये मेरे उनके दरमियाँ .. और न मैंने कोई आरोप लगाया और न मुझसे कभी उन्होंने ऐसा व्यवहार किया कि वो मेरी नहीं हैं । फिर भी मेरे मन में यह कसक अवश्य रहती थी कि मैं किसी को प्रतिस्थापित करके उनके जीवन में बैठा हूँ...वो जगह मेरी इसलिए है क्योंकि दूसरे को मैने हटाया । खैर ... जिम्मेदारियां बढ़ीं , दो बच्चे हो गये । मेरे जख्मों पर समय की ऐसी पपड़ी पड़ गयी कि अब ऊपर से छूने पर तकलीफ नहीं होती थी .. और मैं खुद भी नहीं खुरेदता था।
मुझे याद है डॉ साहब , उस घटना के लगभग तीस वर्ष बाद .. जब हम शहर में रहते थे और दोनों बच्चे जॉब में शिफ्ट हो गये.. एक दिन शाम का वक्त था। मैं और मेरी श्रीमती जी आँगन में बैठे थे । बिल्कुल अंधेरा घिर चुका था.. बत्ती बहुत देर से गुल थी। मैंने पत्नी से अन्दर से लालटेन जला कर लाने को कहा। पत्नी थोड़ी दूर अन्दर गयीं और वहीं से बोलीं - "आप भी आइए ! मुझे डर लग रहा है।" डॉ०साहब उस शाम पता नहीं मुझे क्या हुआ कि मेरे मुंह से तपाक से निकल गया- "आज बहुत डर रही हो! उस रात नहीं डरी जब तुम आधी रात को उस साधु की लाश को नदी में विसर्जित कर रही थी?" डॉ० साहब मेरा यह कहना न हुआ, कि एक मिनट के भीतर मेरे पीठ पर तलवार से वार हो गया । पीछे से एक प्रतिशोध भरी आवाज़ आयी कि "पिछले तीस साल से मैं तुम्हें ढूंढॅ रही थी।" हठात वर्षों से दबी ज्वाला ऐसी लहकी , कि उनके अगले वार से पहले ही मैं दूसरे हत्या का आरोपी बन गया। डॉ० साहब उस वक्त न तो मुझे तलवार के चोट की फिक्र थी ...न अपने खून बहने का पता ..और न ही कोई पछतावा! मैं अपने आवेश में काँप रहा था । मुझे तो अपने तीस वर्ष के पराजय को लेकर ग्लानि हो रही थी। मेरे सोचने समझने की क्षमता विश्वासघात के प्रहार से टूट चुकी थी । मैं सोचने लगा कि 'पिछले तीस वर्षों से मैं जिंदा होकर भी लाश की तरह इनके साथ रहा ..और वह साधु मर कर भी इनके दिल में जिन्दा था।'
मैं सबकुछ हार चुका था । यह मेरी भूल थी कि साधु के शरीर को खत्म करके मैं स्थापित हो जाऊंगा ..शायद मैं भूल गया कि उसके प्रेम की हत्या मैं न कर सका और उन दोनों को एक साथ अपने घर में पाला पूरे तीस वर्ष तक!'

अंत में एक गहरी आह भरकर रामपाल ने कहा -"डाक्टर साहब, मैंने बहुत कुछ खोया .. सब हार गया.. लेकिन मैं भगोड़ा नहीं था डॉ० साहब , भगोड़ा नहीं था।" इतना कहते रामपाल की आंखें आंसुओं से तर हो गयीं ..और डॉ साहब उनको स्तब्ध देखते हुए शून्य में चले गये ।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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