जइसे ठेहुना के घाव -अतुल शुक्ल
BY Suryakant Pathak6 Jun 2017 6:23 AM GMT

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Suryakant Pathak6 Jun 2017 6:23 AM GMT
इधर कुकर की सीटी ने 'सी..ई..ई' की आवाज दी उधर फोन की घण्टी बज उठी । उसने जल्दी से गैस धीमी की और फुर्ती से फोन की तरफ लपकी । 'दीदी मैं स्टेशन पर हूँ , आधे घण्टे में घर पहुंच रहा हूँ।' छोटा भाई मिंकू फोन पर था । 'फटाफट आ जा , बीच में कहीं रुककर नेतागिरी न करने लगना!' रुचि ने आदतन ताकीद की । मिंकू के आने की खबर उसे पहले से थी । इसीलिये उसकी पसन्द के राजमा-चावल बनाकर तैयार कर रही थी । मिंकू उससे तीन साल छोटा है और रिंकू भैया तीन साल बड़े ।
बचपन से ही मिंकू उसके पीछे पूंछ की तरह फिरता था । रिंकू भइया शुरू से ही गंभीर तबियत के थे । उनसे दोनों भाई-बहन बहुत डरते थे... और अम्माँ भी उतना ही डरती थी । छोटे से कस्बे में मकान था , पिता वहीं ग्राम विकास अधिकारी थे और तकरीबन सात साल की नियुक्ति के दौरान बचपन का सबसे सुनहला दौर उसी कस्बे में व्यतीत हुआ ।
रिंकू भैया बड़े थे , उनसे लगाई गयी अम्मा-पापा की उम्मीदें उससे भी बड़ी थीं । पांचवीं पास करते ही शहर के अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाकर उन्हें हॉस्टल रवाना कर दिया गया । भैया हॉस्टल गये तो दोनों भाई बहन थोड़े उदास हुये लेकिन मिंकू ने इस क्षणिक उदासी को ये कहकर भंग कर दिया 'चलो अच्छा हुआ दीदी अब सुबह शाम मुझे दो-दो मुक्के नही पड़ेंगे।' फिर दोनों बहुत देर तक हंसते रहे और अम्मा लाल लाल आंखों से घूरती-बिसूरती रहीं ।
दोनों कस्बे के एक ही स्कूल में पढ़ते थे । दो दर्जे आगे रुचि और दो दर्जे पीछे मिंकू । स्कूल साथ जाते , जामुन चुराने साथ जाते , पकड़े जाने पर डाँट साथ सुनते और घर शिकायत आने पर साथ ही पीटे भी जाते । यहां तक कि जुकाम बुखार भी तकरीबन साथ साथ ही आता । जब रुचि पांचवीं में पहुंचीं तो कुछ सहेलियां बन गयीं । अब वो जब सहेलियों के साथ इक्खट-दुक्खट खेलती तब भी मिंकू वहीं बैठा रहता , भगाने पर भी न भागता । लड़कियां उसे चिढ़ातीं , उसके माथे पर बिंदी लगा देतीं , बालों का गुच्छा बनाकर रबड़ बांध देतीं .. तिसपर भी रो-पीटकर गाल फुलाये वहीं बैठा रहता , हिलता न था ।
एक दिन एक सहेली ने अपने जूड़े का फीता मिंकू के बालों में बांध दिया तो उसने पास पड़ी एक टहनी उठाकर उसे दे मारी । सहेली इस आकस्मिक घात से रो पड़ी तो रुचि मिंकू को पीटते हुये घर ले आयी । अम्मा से कहा 'आज के बाद ये मेरे पीछे-पीछे खेलने आया तो इसे बेंत से पिटूंगी ।' मिंकू मुंह फुलाये निर्निमेष ताक रहा था । छह सात साल का था , लेकिन उसे अहसास था कि उससे गलती हो गयी है । अम्मा ने हंसकर कहा ''अरे पगली ! जइसे ठेहुना के घाव , वइसे बहिना के भाय!"
सच ही तो कहती थी अम्मा! घुटने के घाव की टीस के जैसे ही भाई से विछोह का दर्द भी आजीवन साथ चलता है।
दसवीं में पढ़ती थी तभी रिंकू भैया का एडमिशन इंजीनियरिंग में हो गया । होस्टल में थे तो महीने-पन्द्रह दिन पर घर भी आ जाते थे लेकिन इंजीनियरिंग में दूर एडमिशन होने के बाद साल भर में बस एक बार ही आते । होस्टल में रहने से जो एक घर से दूरी बनी , वो बाद में उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गयी । इंजीनियरिंग के बाद नौकरी .. फिर प्रेम-विवाह.. और बाद में सपत्नीक मुम्बई जाकर बस जाने तक । उनका फोन आता तो अम्मा सबकी नजर बचाकर घण्टों तक कोना पकड़कर सुबकती रहतीं । लाल-लाल आंखें देखकर सब समझते तो थे , लेकिन कुछ पूछकर उनके दुःख के किले में कोई सेंध लगाने का दुस्साहस नही करता । अम्मा अपने इसी संताप के दुर्ग में सबसे सुरक्षित महसूस करती थीं । पापा की असमय मृत्यु ने तो इस दुर्ग की प्राचीरें इतनी विशाल कर दीं , कि दूर से बस गुम्बद ही नजर आते थे.. या उस दुर्ग की पहरेदारी में बत्तियां जलाती-बुझाती अम्मा जैसी एक परछाईं ।
दरवाजे की घण्टी बजी तो तंद्रा भंग हुई , रुचि वर्तमान में लौट आयी । मिंकू आ गया है । आते ही हंसोड़पन शुरू कर दिया उसने । दोनों बच्चों के गाल सुजा भी दिए , न जाने क्या कहकर.. और फिर हंसा-हंसाकर घर सर पर उठा लिया । वो उल्लास से भरी किचन में व्यस्त रही और साथ ही साथ गुनगुनाती भी जा रही थी -
"अरे हथिया जे बइठेलें हमरे बिरन जी
बहिन घरि जाएँलें , हरियरे सावन हो..
अरे बहिना जी थरिया सजावें छपन भोग
तोरण लगावे , हरियरे सावन हो..
असों बरसेला फाटि फाटि बदरा लुभावन
बहिना बोलावे , हरियरे सावन हो...
चलि आवs निमिया के चिड़िया , डहकि नइहरवा
बोलावे , हरियरे सावन हो..."
आठ साल हो गये रुचि का विवाह हो गया । तीन साल पहले मिंकू ने दुकान खोल ली और दो साल पहले उसकी भी शादी हो गयी थी । अम्मा जैसे मिंकू के विवाह की ही प्रतीक्षा में थीं । शादी के तीन महीने बाद उन्होंने भी आंखें मूंद ली । शादी के बाद लखनऊ रहने लगी , तब भी अम्मा हर तीसरे महीने मिंकू को भेज देतीं .. इस इसरार के साथ कि 'ज्यादा नही तो बस दस दिन के लिये ही विदा कर दी जाये।' पति संकेत तो अक्सर झुंझला उठते 'तुम्हारी अम्मा और मिंकू ने न जाने तुम्हारी शादी करके विदा ही क्यों किया , जब हर महीने विदा कराने ही आ धमकना था तो! सबसे अच्छे तो रिंकू भइया हैं ... मुम्बई में हैं सो ज्यादा चोंचलेबाजी नही जानते । न उनको फुर्सत है कि आ पायें और न बुलावा भेजते हैं ।" वो चुपचाप घर का काम करती रहती । पति के इस ताने-उलाहने में भी उसे एक आत्मसंतोष मिलता था कि मायके में इतनी पूछ है , तभी तो ये झुंझलाते हैं! मिंकू के ब्याह में महीने भर रहकर आयी थी । वापस लखनऊ पहुंचने पर गृहस्थी व्यवस्थित करने में हफ़्तों लग गये । तभी अम्मा की अकस्मात मृत्यु की वजह से फिर जाना पड़ा ।
अम्मा के जाने से मिंकू एकदम ही टूट गया था । इतनी उम्र हो गयी लेकिन अबतक अम्मा को छोड़कर कहीं दस दिन भी बाहर रहा हो , याद नही आता । रिंकू भैया भी सपरिवार आये थे । पत्नी और बच्चों की तो बात ही दीगर , खुद भैया को कस्बे की सुविधाहीन जिंदगी से सामंजस्य बिठाने में समस्या आ रही थी । तेरहवीं के समय बरखी की बात चली तो लोगों ने कहा कि कम से कम चालीस दिन के अंतराल पर हो , लेकिन भैया चाहते थे की बरखी भी साथ ही कर दी जाएं । चालीस दिन बाद फिर से लौटकर आ पाना उनके लिये सम्भव नही हो पायेगा ।
अम्मा के जाने के बाद दो साल के करीब होने को आये लेकिन रुचि मायके जा नही पायी । बच्चे बड़े हो रहे थे तो उनकी पढ़ाई एक महत्वपूर्ण विषय बनी रहती , ऊपर से मिंकू की व्यस्तता दुकान में बहुत ज्यादा बढ़ती जा रही थी । व्यवहार कुशल और मृदुभाषी तो था ही , रिंकू भैया ने भी कुछ आर्थिक मदद कर दी और दुकान दौड़ चली थी ।
"अबकी चलूंगी तो कुछ दिन रुकूँगी ।" खाना परोसते हुये उसने मिंकू को सूचना जारी करते हुये कहा । मिंकू चुपचाप खाता रहा ।
"दुकान ठीक-ठाक चल तो रही न!"
"दुकान का क्या है , कुछ न कुछ झंझट लगा ही रहता है। जीजाजी कितने बजे तक आते हैं?"
"साढ़े नौ बज रहे हैं , आते ही होंगे ।"
"राखी में आओगी न!" मिंकू ने प्रश्न किया ।
जैसे धड़का सा लगा हो ! "क्यों ? अभी ले नही चल रहा क्या तू ? मैनें तो अपने और बच्चों के कपड़े भी रख लिये हैं ।"
"अभी चल के क्या करोगी दीदी ? शिल्पा भी मायके गयी हुई है । मैं दिन भर दुकान में रहता हूँ । न तुम्हे कोई एक गिलास पानी देने वाला घर पर है और न बच्चों का ध्यान रखने वाला । झेल जाओगी ।"
क्या कहे ! अन्तस् में गुबार सा उठ रहा है । पेट से निकलकर एक बड़ा सा गोला सीने तक चढ़ आता है , सांस रुकने लगती है । खुली हवा की जरूरत है , खिड़की खोल लेती है । कह नही पाती कि , 'इतने सालों तक जाती थी तो कभी अम्मा को एक तिनका हिलाने नही दिया । पहुंचते ही किचन और पूरा घर संभाल लेती थी , कभी अम्मा को अहसास तक न होने दिया कि अब बेटी ससुराल वाली हो गयी है । और ये खुद.... खुद कभी अपने हाथ से लेकर पानी नही पीता था उसके रहते । आज मुझे पानी देने की फिक्र कर रहा है ।
कैसे कहती कि इसकी शादी के समय आंगन में जो रजनीगंधा लगाए थे उनकी बाढ़ देखना चाहती है । कैसे कहे कि अपने पुराने कमरे के तख्त पर दो चार रातें चैन से सोना चाहती है । कैसे कहे कि अम्मा के ड्रेसिंग टेबल के धुंधले पड़ रहे आईने में अपनी शक्ल एक बार देखना चाहती है.. देखना चाहती है कि उसके चेहरे में अम्मा का अक्स कितना दिखता है !
संकेत लौटे तो खा-पीकर बहुत देर तक मिंकू से बतियाते रहे । रात में कमरे में पहुंचे तो बच्चे सो गये थे और रुचि बैग से कपड़े निकालकर वापस अलमारी में रख रही थी ।
"तुम जा नही रही क्या ?"
"मिंकू तो बहुत जिद कर रहा था लेकिन मैंने मना कर दिया । बच्चों की छुट्टियां भी कुछ ही दिन रह गयी हैं , स्कूल खुलने वाले हैं । बच्चे डिस्ट्रक्ट हो जाते हैं तो स्कूल जाने में आनाकानी करते हैं । मिंकू आपसे भी कहे तो सख्ती से मना कर दीजियेगा ।" आखिरी वाक्य कहते समय रुचि की आवाज गले में फंसने लगी । संकेत ने बहुत करुणा से रुचि की तरफ देखा ।
बहुत कुछ अनकहा ही रहने देना चाहिये ।।
-अतुल शुक्ल
गोरखपुर
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