नाको-6 प्रीत कि रीत
BY Suryakant Pathak18 Jun 2017 11:02 AM GMT

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Suryakant Pathak18 Jun 2017 11:02 AM GMT
बात दादाजी ने शुरू की- देखिए नेता जी (आने सुभाष मने निंदक जी)!
कन्या अपने वादे जैसी ही ढूढिएगा एकदम सुंदर और सुशील। लहरी गुरु जानने न पाएँ ऐसी गोपनीयता बनाए रखियेगा।
उस दौर में शादी ब्याह अगुवाओं पर ही निर्भर होता था। लड़का-लड़की तो काठ के होते थे, लोटे तक को दूल्हा मान लिया जाता था। जिस की शादी तिस से, इस की शादी उस से तय कराना अगुवाओं का काम होता था। योग, लगन, वार, तिथि, ग्रह आदि की गणना भी इनके ही जिम्मे होता था। लेन-देन, दान-दहेज-दक्षिणा सब पर इनकी ही मनमानी चलती थी। तब शादियाँ पर्दों में होती थी और पर्दे की कठोरता का आलम यह था कि दुल्हन का मुख दूल्हा भी शादी के कई दिन बाद ही देख पाता था। शादी से पहले तक इन अगुवाओं की बड़ी इज्जत होती थी पर पर माँग में सिंदूर पड़ते ही सबसे अधिक गाली भी वही सुनते थे। इस सच को जानते हुए भी निंदक जी कुछ दिन का समय लेकर निकल पड़े।
एकाएक एकदिन प्रकट हुए और दादाजी को समस्त वृतांत बताया, कन्या पक्ष का कुल गोत्र खानदान बताया और शादी की तिथि भी बताया- 31 जून।
दादाजी ने पूछा कि कन्या पक्ष की कोई इच्छा है? हमारी उनकी कोई समानता है?
निंदक जी ने कहा कि एक समानता और एक ही इच्छा है- Lahari Guru Mishra, इनसे ही बचना है। कन्या पक्ष इनसे बचने के लिये लड़की की बुआ के यहाँ से विवाह करना चाहते हैं।
माता जी ने तुरंत सहमति दी, दादाजी ने सुभाष जी को शाबाशी दी और गणेशजी की तीनों ने जय घोष कर मांगलिक कार्यक्रम का अनुमोदन किया।
सर्वेश को जब यह सब पता चला तो वह रो पड़ा। माँ ने समझाया। आज सर्वेश को लग गया कि वह कायर है। मजबूर है। डरपोंक है। पर वह कहे भी तो क्या कहे कि मैं उससे शादी करना चाहता हूँ जिसका नाम तक नहीं जानता। वह उससे प्यार कर बैठा है जिसके खानदान तक से खानपान का सम्बन्ध नहीं है। माँ! क्या जिसके बिना मेरी हरेक साँस अटकी है उससे ब्याह नहीं हो सकता? वह रोता रहा। तभी उसकी पीठ पर एक जोर का मुक्का पड़ा - नाको?
दो, तीन, चार मुक्के पड़े - नाको-नाको-नाको???????
क्या हुआ? तुम नाक पर अंगुली क्यों नहीं रख रहे? अरे तुम तो मेरी तरह रो रहे हो? हे भगवान ये किसकी पीठ से प्रीत लगा बैठी?
- अब आप हमसे नाको कटा लीजिए।
सर्वेश की आवाज में जो रुदन के कम्पन की भरभराहट थी उससे काँप उठी मानिनी- क्यूँ?
मानिनी के धड़कन को साफ सुन रहा था सर्वेश- यह पीठ नहीं रही।
वह चीख पड़ी - अभी तो मैं तुम्हे देखकर मुस्कराई भी नहीं कि रुलाने वाले आ गये? रोने लगी।
दोनो रो रहे थे। जब पीड़ा मर्मान्तक हो न तो वह या तो मौन बन जाती है या बड़बड़ाहट बन जाती है। जैसे राधा मौन हो गयी और कृष्ण मुखर हो गये। यहाँ सर्वेश मौन हो गया और मानिनी मुखर हो गयी- इसीलिये सुहागिनें अपने पति का नाम नहीं लेतीं। यह संसार झूठा नहीं, कठोर है। यदि यह जान जाएगा कि तुम्हे वह पसंद है तो यह तुम्हे उससे कभी नहीं मिलने देगा। यह संसार चाह की हत्याओं पर खड़ा है।
मेरे प्रेम की हत्या कैसे हो सकती है? न तुमसे नाम पूछी न तुमको अपना नाम बताई?
वह अपने घर की ओर चल पड़ी कि फिर मुड़ी - हमारी तपस्या भंग नहीं हो सकती। हमारा नाको टाँगें से भी नहीं कट सकता।
वह रोते हुए चली जा रही थी। सर्वेश गिर पड़ा।
जब उसकी आँख खुली तो वह तेलहवा बाबा के स्थान पर लेटाया गया था और एक Ojha उसको खरहरे खरहर मार रहा था।
माँ ने बताया कि बेटा तुम पर किसी गन्धर्व कन्या की नजर लग गयी थी। अब घर चलो। सबको नेवता भेजना है। सारी तैयारी करनी है। देखो ना तुम्हारी पत्नी का नाम कितना सुंदर है? पढ ना कार्ड में?
सर्वेश ने कार्ड झटक दिया।
शेष फिर..............
आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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