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भोजपुरी कहानिया

जब जनम लियो नंदलाल

जब जनम लियो नंदलाल
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यशोदा जब जागीं तो देखीं कि उनकी गोद में भोर के नीले आकाश में के काले बादलोँ पर जब सूर्य की पहली किरण पड़ती है और जैसा श्याम रंग उन बादलोँ का हो जाता है एकदम उसी रंग का एक अदभुत बालक अपने हाथोँ से पैर के अँगूठे को आँख मूँदे चूस रहा है,
देखा तो चौँक पड़ीँ?
प्रसव-पीड़ा नहीं हुई?
होगी भी कैसे ऐसा अनुपम और अद्भुत बालक तो सुख-निद्रा मेँ ही उत्पन्न सकता है।
रूप ऐसा मनोहारी है कि यशोदा उसकी माधुरी मेँ खो गयी। गोद मेँ ले कि, दूध पिलाये कि, नंद को बुलाये, कुछ समझ मेँ तो तब न आये जब अपनी सुध हो।
आज बड़ी देर हो गयी यशोदा इतनी देर तक क्यो सोयी हो?
नंद कमरे मेँ घुसे और बाहर का सूर्योदय यशोदा के बिछावन पर देख उनके मुँह, आँख और हाथ खुले के खुले रह गये।
हे सूर्यनारायण
अरे ए हे बनमाली
वही नीला वर्ण, अरे वही काले बादलोँ-सा रंग और सूर्योदय के कारण कमल जैसे खिले हाथ, पैर, तलवे, होठ, आँखेँ।
और पक्षियोँ का सारा समूह कमरे मेँ स्वागत का शोर मचा रखा है।
बाहर नौ लाख गायेँ वृन्दावन जाने के लिये रम्भाने लगी।
गोपियोँ का दल दूध ले कर मथुरा जाने के लिये आया है और नंद, यशोदा को न देखकर घर मेँ चला गया।
और कमरे मेँ देखा कि नंद और यशोदा मूर्ति की तरह खड़े हैँ।
तभी उनकी दृष्टि बालक पर पड़ी। उस अदभुत बालक को देखकर, पहले तो अकबकायीँ और फिर, गोपियोँ ने तान भरी, पक्षियोँ ने सुर मिलाया,
गउओँ न ताल दिया
गोकुल मेँ गूँज उठा...
अरे ऐ सुनो रे...
नंद के आनन्द भयो... ... ...
**************

ब्रज मेँ सभी उमंग मेँ ऐसे डूबे कि किसी को मथुरा दूध ले जाना है याद ही नहीँ रहा।
वैद्योँ और ज्योतिषियोँ की गणना के अनुसार गत रात मेँ ही देवकी के आठवेँ संतान को धरा धाम पर आना था।
सातवेँ गर्भ के पतन से ही कंस का मन विचलित था।
इसलिये कंस ने इसबार चाकचौबन्द व्यवस्था कर रखी थी।
किन्तु जब आठवेँ बालक का जन्म कारागार मेँ हुआ तब वसुन्धरा का कण-कण आनंद से भर उठा, मेघोँ ने जल वर्षण से, अग्नि ने अपनी उष्मा से, पवन ने शीतल, मंद, सुगंध से, बेल, विटप, तृण ने अपने रस से, नदियोँ ने अपने कल-कल नाद से अपनी-अपनी अभ्यर्चना दी।
योगी ध्यान से, भोगी विश्राम से, गृहस्थ अपने भीम कर्म से, साधकोँ ने अपनी मधुर गान से आनंद के इस अदभुत क्षण का लाभ उठाया।
कंस और उसके सहायक भोग के विश्राम मेँ ऐसे डूबे कि वसुदेव अपने भीम कर्म से बच्चे बदल लिये।
ऐसी मधुर निद्रा से कंस जब जगा तो जलपान मेँ दुग्ध पदार्थोँ को न देख क्रोधित हो उठा।
भृत्योँ ने बताया कि आज ब्रज मेँ ऐसा उत्सव हो रहा है कि मथुरा मेँ दूध आया ही नहीँ।
क्यो न हो क्षीरसागर निवासी जहाँ होगा क्षीर वहाँ से टलेगा कैसे?
कंस जैसे सुख स्वपन से जागा। कारागार की ओर लपका। यह सोचते हुए कि मुझे चैन की नीँद आयी कैसे...
कंस को लग रहा था कि उसके शरीर मेँ दो-दो माताओँ की प्रसव-पीड़ा-सा दर्द हो रहा है।
वसुदेव-देवकी के मुख पर असीम शान्ति देखकर ही समझ गया कि कुछ अनहोनी हो चुकी है।
कन्या हुई है, ऐसा सुनते ही चौँक पड़ा।
मारना चाहा तो वह हाथ से छिटक गयी और उसको मारने वाला गोकुल मेँ जन्म ले चुका है, सुनकर चिँता मेँ पड़ गया।
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इधर यशोदा रानी के कमरे मेँ गोपियोँ की भीड़ बढती जा रही है।
क्योँकि बालक का सौन्दर्य अनुपम है।
संदेश फैलने लगा कि
हमने आजतक सौन्दर्य को केवल टुकड़ोँ मेँ देखा है। पूरा सौन्दर्य तो यशोदा के बिछावन पर पसरा है।
हर कोई उस पूर्णकाम रूप के दर्शन को पाना चाहता था।
यशोदा ने बालक को नंद बाबा के कंधे पर, कान्ह पर रख दिया ताकी सब उसे देख लेँ और गोप-गोपियोँ ने सबसे पहले, उस पूर्ण परात्पर ब्रह्म का नामकरण किया- कन्हाई हो!
कन्हइया हो।
सब नाच उठे उस सुन्दर रूप को देख के।
सहज ही फूट पड़ा
ढोलक, थाली झनझना उठे
नंद के आनंद भयो
जै कन्हैया लाल की...
सोहरों, बधाइयों की झड़ी लग गयी। गोपियोँ ने महसूस किया कि ऐसी मधुर तान, ऐसी स्वर लहरी तो कभी सुनने को भी नहीँ मिली थी जो आज उनके अपने ही कंठ से मुखरित हो रही थी। ऐसा आनन्द, उत्साह, लज्जाहीनता, रोमांच तो कभी हुआ ही नहीँ था। थकान, नीरसता, ऊब का पता नहीँ था।
ब्रजमंडल मेँ कन्हाई के अदभुत सौन्दर्य की हलचल मच गयी।
कोई पुष्पहार, तो कोई बनमाला, तो कोई कमलदल, जिसके हाथ जो लगा घास, बाँस की कईन, फल, मेवा, मिसरी, मोर पंख आदि ले कर चल पड़ा उस कोटि काम कमनीय की सुन्दरता को और सुन्दर करने।
कन्हैया को अर्पित किया गया, इन उपहारोँ से सजाया गया।
मोर पंख को माथे पर बाँधा गया, कमल को हाथोँ मेँ पकड़ाया गया। दोनोँ अपने भाग्य पर इतराने लगे, नीचे गिरी बाँस की कइन पर मुस्कुराने लगे।
मोर पंख और कमल को भविष्य का राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय पुष्प होने का वरदान मिल गया।
अब तेरा क्या होगा बेसुरी?
तुम तो न फल देती हो न फूल?
बाँस की कईन से दोनो ने पूछा।
रो पड़ी बेचारी।
न जाने कैसे वह कईन कन्हैया के हाथ में आ गयी। और उसे अपने अधरों पर रख के उसमें अपनी स्वांस भर क्या भर दिया उन्होंने
गूँज उठा ब्रह्माण्ड।
ऐसी ध्वनि, कभी वर्णन मेँ भी नहीँ सुना था किसी ने। सभी विभोर हो गये। नाचने लगे गाने लगे, स्वर सप्तम से पंचम होने लगा।
बेसुरी, बाँसुरी बन गयी थी।
कईन जिस बाँस से आयी थी वह बँसवारी अमर हो गयी। जीवन मरण चिर संगिनी अँसवारी हो गयी।
जिस नदी जल से वह अभिसिँचित थी वह यमुना नदी अबतक सेवार और कीचड़ से भरी थी, उस कइन के पुण्यभाग से कमलदलोँ से भर गयी।
यमुना से पूर्व सिँचित कुंजवन अब वृंदावन बन गया।
केला, बिच्छी, बाँस।
अपने वंश से नाश।।
कहावत तार-तार हो गयी।
गोपियाँ, युवा कन्हैया की कल्पना मेँ, जब उसके अधरोँ को प्रथम बार बाँसुरी द्वारा चुम्बित पाया तो ईर्ष्या से भर उठीँ। कोई गोपी तो इस बात से ही सिहर उठी कि जब कन्हैया युवा होगा तब वे वृद्धा हो जायेँगी, तो कोई किसी की विवाहिता हो जायेगी। कई का मातृत्व कसमसा उठा क्या यह मेँरा दूध पीएगा?
उत्सव, कल्पना और मानसिक निमन्त्रण कन्हैया को समर्पित होने लगा।
अपने पराये की सुधि खो गयी। सारा ब्रज कन्हैया की रूप माधुरी मेँ गोते लगाने लगा। अलौकिक पति, पुत्र का भरपूर कुटुम्ब सामने देख कर गोपियोँ को लौकिक पति, पुत्रादि से सम्पन्न परिवार बोझ लगने लगा।
बहुत की मरणशील परिवार और पति की सेवा।
अजर, अमरपति हे कन्हैया क्या तुम मुझे अपनी सेवा मेँ न लोगे?
सोचने मात्र से गोपियोँ की दशा जल बिन मछली की होने लगी।

एकबार प्रेम से वृंदावन बिहारी लाल की जय!

आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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