पवित्रो वा : आलोक पाण्डेय
BY Suryakant Pathak18 Jun 2017 11:18 AM GMT

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Suryakant Pathak18 Jun 2017 11:18 AM GMT
यह तो मुझे याद नहीं कि बात कब की है पर है सोलहो आने सच कि भोजनोपरांत जब पहली बार स्टील के कटोरे में बैरा पानी में तैरते कटे नीबू लेकर आया तो मैं उसपर मन ही मन बहुत झल्लाया फिर भी शराफ़त दिखाते हुए मैंने उन कटे नीबुओं को चम्मच से निकाला, तो कुछ गरम सा लगा पर इसकी परवाह न करते हुए, निचोड़ कर जब एक दो घूँट पी गया तो बैरे ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह हाथ धोने के लिये था सर!
मुझे पब्लिकली बहुत झेंप हुई फिर भी मैंने उससे पूछा कि कैसे धोना था बताओगे?
उसने कहा कि कटोरे में हाथ डुबोकर।
तब मुझको मेरे दादाजी याद आए। नेवता खाने की शिक्षा मैंने उन्हीं से ग्रहण की। हाथ पैर धो के पंगत में दौड़ते हुए नहीं, धीरे-धीरे जाकर बैठना और जब सबके पत्तल में परोसा जाए तो एकसाथ भोजन करना आदि। तब शुरूआती गलती अक्सर मुझसे यह होती थी कि जब भी मैं पूड़ी मांगता था तो उसे बजाय पत्तल में गिरने देने के हाथ से पकड़ लेता था जिसपर संगत में खाने वालों से लेकर चलाने वाले तक चिल्लाने लगते थे। उस जमाने में छक कर खाने खाने की परम्परा थी। लोग होड़ लगाकर खाते थे, एक पाँत घंटे भर तक की हुआ करती थी और खिलाने वाले बड़े आदर और आग्रह के साथ खिलाते थे।
आज जैसा थोड़े था कि गिफ्ट ले के आओ और ऐरे गैरे नत्तू खैरे के साथ गरीबों की तरह लाइन में लग जाओ और बैरे पर गरमाओ, दो-चार प्लेट या दो-चार बार किसी मनभावन ब्यंजन को खा क्या लो कि मेजबान के जासूस तुमको खधोकड़ कह के मुँह बिचकाने लगें।
खैर, तब हम बच्चे थे, जल्दी खा लेते थे पर तबके खाने वाले बहुत उत्साह के साथ भोजन करते थे। जिसको कोई ब्यंजन खाने का मन करता था तो वह बड़ी सदाशयता के साथ किसी किसी अगल-बगल वाले महाशय के पत्तल में दिलवाता था और उसे इसका भरपूर लाभ मिल जाता था। कभी-कभी मनभावन ब्यंजन को अपनी तरफ आता देखकर इधर-उधर देखने लगने की शैली भी कम रोचक नहीं थी कि परोसने वाला आपको इधर-उधर देखता देखकर चुपके से वह ब्यंजन आपकी थाली में डाल दे और आप बेबस जैसा मुँह बनाकर सफाचट कर जाएं।
किंतु इस मानमनौवल वाली भोजन परम्परा से बेखबर हम बच्चे झटपट खाकर कुल्हड़ में हाथ धोकर मुँह दोनों कंधों से और भीगा हाथ जब अपने पेट पर या पैंट पर पोंछने लगते थे तो दादाजी और अन्य बड़े बुजुर्ग हमको बहुत डांटते थे।
पर आज जब बैरा कटोरे में नीबू डालकर लाया और जब मैंने उसमें अपना हाथ डुबकाया तो दादाजी बहुत आए। विकास परम्परा का है कि गँवरपन का मुझे नहीं पता पर कुछ तो है जो अभी जिंदा है... आपकी वह शिक्षा दादाजी...... हाथ तो फिर जूठा का जूठा ही रहा न।
आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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