"पिता" फिर एक कहानी और श्रीमुख
BY Suryakant Pathak18 Jun 2017 2:19 PM GMT

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Suryakant Pathak18 Jun 2017 2:19 PM GMT
उन दोनों को भागते भागते दो दिन और तीन रातें बीत चुकी थीं। उनके दोनों घोड़े एक दिन पहले ही गिर गए थे, तबसे वे बिना रुके पैदल ही जंगलों में भागे जा रहे थे। पर अब उनके शरीर और साहस दोनों ने जवाब दे दिया था। पिता ने कहा- रुक के कुछ देर विश्राम कर लो पुत्र, हम इतनी दूर आ गए हैं कि अब कम से कम प्राणों का कोई भय नहीं।
पुत्र ने कोई उत्तर नहीं दिया, उसने बिना कुछ कहे अपना उत्तरीय जमीन पर बिछा दिया और अधेड़ पिता को सुला कर पैर दबाने लगा। आंसुओं से भरी पिता की आँखों में जल्द ही नींद आ गयी, तो पुत्र भी जमीन पर लोट गया। एक हारे हुए युद्ध से भागे और तीन दिन के जगे दोनों देर तक सोते रहे।
अगली सुबह जब दोनों की नींद खुली तो देखा- उनके चारो ओर हजारों सैनिकों की फ़ौज है, और हाथ में नँगी तलवार लिए खड़ा "शाह" मुस्कुरा रहा है। दोनों के रोंगटे खड़े हो गये।
शाह जैसे उनकी नींद खुलने का ही इंतजार कर रहा था। वह नँगी तलवार लिए पिता की ओर बढ़ा तो पुत्र ने झपट कर पिता को पीछे कर दिया,और स्वयं आगे आ गया। शाह के चेहरे पर क्रूर मुस्कुराहट फ़ैल गयी। वह पिता से बोला- तेरा बेटा तो बड़ा वफादार है जुझारसिंह, अच्छा तो पहले इसी का सर कटे। शाह ने अपनी तलवार का एक भरपूर झटका पुत्र की गर्दन पर दिया, उसका सिर उड़ कर पिता की गोद में गिर पड़ा। पिता चिल्ला उठा- बिक्रमजीssssत....
शाह गरजा- तेरे गुनाहों की यही सजा है जुझार! अब तू भी मरेगा, पर पहले अपने बेटे के सर से खेल तो ले।
पिता की आँखे आंसुओं से बन्द हो चुकी थीं। वह बेटे के सर को गोद में लिए तड़प उठा था। बोला- मेरी गर्दन भी काट ले शाहजहाँ, पर याद रखना! मेरा पुत्र तुम्हे हमेशा याद आता रहेगा। ऐसे बेटे सिर्फ हमारे घरों में जन्म लेते हैं। तू भी बाप है, तेरे भी बेटे हैं पर तू ओरछा के युवराज को भूल नहीं पायेगा।
शाह का हाथ फिर उठा और ओरछा नरेश की गर्दन जमीन पर लोटने लगी।
अगले दिन ओरछा के सारे मंदिर तोड़ दिए गए। राजमहल की सारी औरतों को सरदारों में बाँट दिया गया। युद्ध में बन्दी बनाये गए ओरछा नरेश के अन्य दो पुत्रों को मुसलमान बना दिया गया।
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युगों बीत गए। उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी हुआ औरंगजेब शाहजहाँ को बंदी बना कर आगरा के शाहबुर्ज में कैद कर चुका था, जहां उसे किसी से मिलने की इजाजत नहीं थी। दिन में एक बार आटे की लेई बना कर खाते शाह का शरीर रोज गलता जा रहा था। अब उसे अँधेरे की आदत हो गयी थी।
शाम का समय था, बूढ़ा शाह नमाज पढ़ कर उठ ही रहा था कि एक सैनिक ने कैदखाने का दरवाजा खोला। शाहजहाँ ने महीनों बाद किसी मनुष्य का मुह देखा था, वह मुस्कुरा उठा। सैनिक ने कहा- बादशाह आलमगीर ने तुम्हारे लिए तोहफ़ा भेजा है शाह! देखोगे?
एक अदने से सैनिक के मुह से अपना नाम सुन कर शाहजहाँ क्रोध से भर उठा, पर उसके पास क्रोध दिखाने का कोई साधन नहीं था। उसने सैनिक की तरफ निगाह उठाई तो सैनिक ने कपड़े से ढकी कोई लम्बी चीज उसकी गोद में डाल दी। शाह ने कपड़ा उठाया तो उसकी चीख निकल गयी। वह बदहवास सा जमीन पर लोट कर चिल्लाने लगा। उसकी आँखे बरसने लगीं। कपड़े के अंदर शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह का सर खंजर की नोक में फंसा हुआ था।
सैनिक ने कहा- बादशाह आलमगीर के आदेश से खंजर पर टंगा दारा का सर पुरे राज्य में तीन दिन तक घुमाया गया, और आज यह तुम्हारे पास पंहुचा है। चाहो तो इस सर से खेल लो शाह।
शाहजहाँ को अचानक ओरछा नरेश की बात याद आ गयी। उसके सामने जैसे युवराज बिक्रमजीत का कटा हुआ सर घूमने लगा।
शाहजहाँ बेहोश हो गया।
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आठ साल बीत गए। इन आठ सालों में शाहजहाँ ने अपने किसी बेटे का मुह नहीं देखा था।बीच बीच में उसे शाह सुजा और मुराद बक्श के मारे जाने की खबर जरूर मिली थी। औरंगजेब ने कभी भी शाहजहाँ से मिलने की कोशिश नहीं की थी। अपने तीन बेटों के कातिल औरंगजेब के प्रति उसके मन में बहुत घृणा थी, फिर भी वह एक पिता था और औरंगजेब उसका एकमात्र जीवित पुत्र, उसके मन में बार बार मोह उपटने लगा। शाह ने खाना पहुचाने वाले सैनिक से औरंगजेब को अनेको बार खबर भिजवाई कि वह उससे मिलना चाहता है, पर औरंगजेब एक बार भी मिलने नहीं आया। अब शाह का कलेजा जलता रहता था।
बरसात के दिन थे, कैदखाने की जमीन पर मरणासन्न पड़े शाह को लगा जैसे उसके सामने ओरछा नरेश जुझारसिंह बैठा हँस रहा हो। शाह बड़बड़ाया- तू खुशनसीब था जुझार! एक तेरा बेटा था जो तेरे लिए सर कटा गया, एक मेरा बेटा है जो.....
शाह को लगा जैसे जुझार उसे चिढ़ा रहा है। शाह फिर बड़बड़ाया- हँस ले जुझार, दुनिया के सबसे बदनसीब बाप पर तू भी क्यों न हँसे, हँस ले...
शाह बड़बड़ाता रहा- तुम काफिरों में कितनी भी बुराई क्यों न हो, तेरे बच्चे औरंगजेब नहीं होते।
शाह रातभर बड़बड़ाता रहा। अगली सुबह सब ने देखा- शाह मरा पड़ा था।
शाहबुर्ज के खादिम हिजड़ों ने चुपचाप उसकी लाश को ताजमहल में मुमताज के पास दफना दिया। औरंगजेब तब भी नहीं आया। वह सचमुच एक बदनसीब पिता था।
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