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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "सांवली लड़की"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  सांवली लड़की
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चचेरे भाई की बारात निकल रही है और सुपुत्र बेचैन हैं कि बारात देखनी है। मैं उनको ऊँगली पकड़ा कर ले आया हूँ परछावन दिखाने, वे पहली बार परछावन देख रहे हैं। सामने ट्राली पर ऑर्केस्ट्रा बज रहा है, और एक लड़की नाच रही है। मैं एक पल के लिए निगाह उठाता हूँ, एक सत्रह-अठारह साल की सांवली सी, सामान्य नख-शिख वाली लड़की एक असभ्य गीत पर थिरक रही है। पछुआ हवा अपने साथ बर्फ लिए मांस छेद कर हड्डियों में घुस रही है,पर उसके शरीर पर पुरे कपडे नही हैं, और नीचे खड़े लगभग डेढ़ सौ लोग देख लेना चाहते हैं उसकी पूरी देह, सो उसे कपडा पहनने का कोई अधिकार भी नहीं। मेरी आँखे झुक गयी हैं। मैं एक पुरातन मनई हूँ , कभी आर्केस्ट्रा नही देख पाता। यूँ सैकड़ो जोड़ी वहसी आँखों के आगे तमाशा बन कर नाचती लड़कियों को देख कर मुझे अपने पुरुष होने पर लज्जा आने लगती है। स्त्री मेरे लिए पांचवे क्लास के बच्चे की वह रफ की कांपी है, जिसमे "बिदिया माई" बसती है। बच्चा उसपर हिन्दी, अंग्रेजी, पहाड़ा, गिनती लिखे या उसपर फूल बनाये, पर उसे जमीन पर गिरते या पैर से लगते नही देख सकता।
मेरे सुपुत्र पार्थ पहली बार बारात देख रहे हैं, उनके लिए यह सब कुछ नया सा है। वे अचानक पूछ पड़ते हैं मुझसे- पा, इछको थंध त्यों नही लद लही है?
मैं चुप हूँ। क्या बताऊँ इस पौने तीन साल के लड़के को, कि इस भयानक ठंढ में भी उस उन्नीस साल की लड़की को ठंढ क्यों नही लग रही है। अगर पार्थ थोड़े बड़े होते तो मैं उन्हें जीवविज्ञान की भाषा में बताता, कि जब ठंढी हवा हमारी पांचवी सेन्स ऑर्गेन त्वचा को छूती है, तो त्वचा शरीर की तंत्रिका तंत्र के माध्यम से दिमाग के पिछले हिस्से में सन्देश भेजती है, और तब हमे ठंढ का अनुभव होता है। फिर दिमाग उसी तंत्रिका-तंत्र के माध्यम से रिएक्शन का आदेश भेजता है और उसके आदेश को मान कर आदमी कांपने लगते हैं। इस लड़की के पेट में भूख की बीमारी है। भूख की निर्दयी आग ने इसकी तंत्रिका-तंत्र को ही ध्वस्त कर दिया है,सो इसे न ठंढ लगती है, न लज्जा आती है। पर इस पौने तीन साल के बच्चे को क्या समझाऊं...
मैं भी अब परछावन देखने में मग्न हो गया हूँ।
अचानक अंदर का बच्चा जग जाता है, और मैं हँसते हुए परछावन में पैसा लूटना सुरु करता हूँ। एक पांच रूपये का सिक्का और दो महालेक्टो चॉकलेट मिलता है लेकिन पीछे से जोरदार ठहाके गूंजने लगते हैं। बच्चे हँस रहे हैं, हउ देखो, सर पइसा लूट रहे हैं...........
मुझे बच्चों की हँसी के बीच में जीना सबसे अच्छा लगता है। वो पिछले जन्म का कोई पूण्य था कि ईश्वर ने इस जन्म में मुझे शिक्षक बना दिया, मैं दिन भर बच्चों के बीच में ही अपनी पसंद की जिंदगी जीता हूँ। अभी पैसा लूटने का नाटक कर, कई बच्चों के चेहरों पर खुशियाँ ला कर मैं सच में खुश हो गया हूँ।
अचानक पीछे से कोई कॉलर पकड़ कर खींचता है। मैं घूम कर देखता हूँ, गंवई नाते से भौजाई लगने वाली एक अधबुढ़ मेहरारू कॉलर खीचते हुए कह रही है- ए साले, एक लइका के बाप हो कर पइसा लूटते लाज नही आती? आइये तनिक नाचा जाय.....
मैं नई भौजाइयों से तो दूर ही रहता हूँ पर उम्रदराज भौजाइयों को छेड़ने में बड़ी मजा आता है। मैं छेड़ते हुए गाली देता हूँ- हट बुजरी, हम तोहार भतार हैं जो तुम्हारे साथ नाचें, बुला लो कतवारू भाई को।
- आय हाय हाय, त एक दिन खातिर आपही न भतार बन जाइये माहटर साहेब। मैं मजाक कर के फंस गया हूँ। वह खिलखिला उठी है और मैं भागने का रास्ता ढूंढ रहा हूँ। पर कोई उपाय नहीं, दो आतंकवादिनियों के हाथों में बेचारा मास्टर फंस गया है। वे मेरा हाथ पकड़ कर नाच उठी हैं और मैं जान बचाने के लिए छटपटा रहा हूँ। अचानक वह उन्नीस साल वाली सांवली लड़की याद आती है। उधर ट्राली पर वो नाच रही है, इधर जमीन पर ये दो चुड़ैलें नाच रही हैं। कितना अंतर है दोनों में, उधर वासना है, बंधन है, मज़बूरी है, और इधर पवित्रता है, स्वतंत्रता है, उल्लास है।

आठ दस साल पहले की बात है, मैं भादो में देवघर बैजनाथ धाम गया था। सावन का मेला ख़त्म हो जाने के बाद भीड़ कम हो जाने के कारण प्रसासनिक व्य्वस्था तनिक ढीली हो जाती है, सो बासुकीनाथ मन्दिर में लाइन नही लगी थी। शाम के समय मन्दिर के बाहर कोई दो ढाई सौ लोग ही जल चढाने के लिए खड़े थे। पतले दरवाजे के बाहर ढाई सौ लोगों की भीड़ भी ज्यादा लग रही थी। कोई इंतजार नही करना चाहता था, सब एक दूसरे पर चढ़े हुए थे। मैंने देखा, मेरे बगल में एक नवविवाहिता लड़की भीड़ में पिस रही थी। हम जब गेट पर पहुचे तो वह पूरी तरह भीड़ में दब गयी थी। लोग उसे पीछे धकेल कर अंदर घुस जा रहे थे। मैं उस समय सोलह सत्रह साल का दुबला पतला लड़का था। पता नही मेरे अंदर कहाँ से ताकत आई, मैंने अपना एक हाथ मन्दिर के दरवाजे की चौकठ पर टिकाया और पूरी ताकत से भीड़ को रोका। लड़की ने एक बार मुझे देखा और अंदर घुस गयी।
मैंने उसे फिर कभी नही देखा, पर इतना पुरे विश्वास से कह सकता हूँ, कि जब उसने मेरी ओर देखा होगा तो उसे मेरे चेहरे में अपने भाइयों का ही चेहरा दिखा होगा।
मैं सोच रहा हूँ उस उन्नीस साल की सांवली लड़की के बारे में, ट्राली के निचे खड़े लगभग ढाई सौ लोगों में, क्या किसी भी चेहरे में उसे उसके भाई का चेहरा दीखता होगा???
विश्वगुरु बनने के लम्बे लम्बे दावों का सत्य जो भी हो, पर मुझे लगता है कि भारत विश्वगुरु बनने की राह पर पहला कदम उस दिन बढ़ाएगा, जिस दिन किसी ट्राली पर नाचती लड़की को भीड़ के चेहरे में अपने भाई का चेहरा दिखने लगेगा।
पता नही कब आएगा वह दिन.......

"श्रीमुख"
गोपालगंज, बिहार।
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