अपने अपने गीत...
BY Suryakant Pathak29 Jun 2017 11:16 AM GMT

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Suryakant Pathak29 Jun 2017 11:16 AM GMT
अपने विद्यालय के पास एक पेड़ के नीचे छांह में खड़े हुए, तो बैठे बुजुर्ग ने बात छेड़ने के लिए कहा- धूप देख रहे हैं मास्टर साहेब, ऐसे मौसम में क्या खेती होगी?
मेरी आँखे यूँ ही आसमान की तरफ उठ गयीं। आसाढ़ का महीना और आकाश से आग बरस रही है। युगों पूर्व ऐसे ही किसी आसाढ़ में कालिदास के यक्ष ने एक मेघ से अपनी प्रिया को पाती भेजी थी।
संतप्तानां त्वमसि शरणम तत्पयोद प्रियायाः....
सोचता हूँ, कितना निश्चिन्त होगा वह यक्ष, न खेती की चिंता न बेटी की चिंता। न बेटे की पढ़ाई, न धान की बुआई। सिर्फ प्रेयसी को याद करना ही काम था। सो आये हुए मेघ को भी भगा रहा था।एक यह बूढ़ा किसान है, जिसे न प्रेम का समीकरण पता है न यादों की परिभाषा। इसे यदि मेघ साक्षात मिल भी जाये, तो पैर पकड़ कर कहेगा- "पहले हमरे खेत में बरस जाइये बादल देवता, हम आपको अपने खेत की पहली बाली चढ़ाएंगे। इस साल जदि फसल न हुई तो सिमवा का बियाह न हो पायेगा।" कालिदास का यक्ष देवराज के दरबार का अधिकारी था, उस युग का आईएस। यह बेचारा किसान है, सदा का दलिद्दर।
मैं खेतों की तरफ निगाह उठाता हूँ, दूर तक बाँझ हुई परती सूखी पड़ी है। परती के उस पार दो ऊँचे ऊँचे टावर खड़े हैं, लगता है जैसे आसमान को छेद कर बरखा बरसाने का प्रयास कर रहे हों। मैं सोचता हूँ, सरकारी मानकों के अनुसार यह गांव तो पूर्ण विकसित है। सारी सड़कें पक्की हैं, हर गली में नालियां हैं, अठारह घण्टे बिजली रह रही है, गांव में हर चीज की दुकान है। विकास और क्या होता है? हाँ! नहीं है तो इस बूढ़े के जेब में पैसा नहीं है, और इसके खेत में पानी नहीं है। बूढ़े का सपाट और भावहीन मुह देख कर लगता है जैसे पीसीसी सड़क बनाने वाले ठेकेदार ने इसके मुह को भी सीमेंट बालू से ढाल दिया हो। मैं सोचता हूँ कि कहूँ- सुनो काका, गोंयड़ा वाले खेत में एयरटेल का 2जी रोप दो, चँवर वाले खेत में आइडिया का 3जी रोप दो और उसराहवा में जियो का 4जी। सब बिना पानी के चकाचक उग जायेगा। पर कौन जाय बूढ़े की भावनाओं से खेलने, यह तो सरकारों का काम है वही करें।
कितना अजीब है न, दुनिया में सबसे अधिक नदियों वाले देश के आधे खेत हर साल सूखा झेलते हैं। तकनीक के बल पर लोहे के जहाज को मंगल ग्रह पर भेज देने वाली सरकारें नदी के पानी को दस कोस दूर खेत तक नहीं भेज पातीं। मैं दिमाग पर जोर डाल कर याद करता हूँ, खेतों में सिंचाई की व्यवस्था करना पहली पंचवर्षीय योजना के मुख्य उद्देश्यों में था, उसके बाद की किसी पंचवर्षीय योजना में इसका जिक्र नहीं। हर साल आत्महत्या करते हजारों किसानों की लाशें भी सरकारों का ध्यान इस तरफ नहीं मोड़ पायीं।
मैं देखता हूँ, बूढ़ा उदास है। मैं उसके चेहरे का भाव बदलने के लिए कहता हूँ- तोहार बियाह हुए कितने साल हुए होंगे काका?
बूढ़ा सपाट भाव से कहता है- पचास साल से कम तो नहिये हुए होंगे बाबू।
मैं लुत्ती लगाता हूँ- जानते हो, बियाह हुए पचास साल हो जाएं तो बूढ़ा-बूढी को दुबारा बियाह करना पड़ता है। फिर बियाह करो और दही चिउड़ा खिलाओ नहीं तो पाप लगेगा।
बूढ़ा मुस्कुरा उठा है, और दूर खड़ी उसकी बहु भी आँचल से मुह दबा कर खिलखिला उठी है। बूढ़े की बहू गांव के नाते मेरी भौजाई है, मैं उसे भी छेड़ता हूँ- और भउजी, काका के बियाह की तैयारी करो, लड़िका सब देखा रहेगा तभी न तुम्हारा भी बियाह कराएगा। उ गरियाते हुए भाग चली है- भक साले...
इस महिला का पति कहीं बाहर रहता है। पता नहीं यह किसी मेघ से उसके पास सन्देश भेजती होगी या नहीं। कालिदास ने इसके जैसों के लिए नहीं लिखा था शायद, इसके लिए तो वह देहाती कवि "भिखरिया" गाता था-
अइलें आसाढ़ मासे, दुःख कहीं केकरा से,
बरखा में पिया घरे रहितन बटोहिया.......
इसके जैसी हजारों लाखों स्त्रियों का हृदय आसाढ़ में आज भी चुपके चुपके यही गीत गुनगुनाता है।
सबके अपने अपने आसाढ़ हैं, अपने अपने गीत हैं। किसी के हिस्से में कालिदास आते हैं तो किसी के हिस्से में भिखारी ठाकुर।
यही दुनिया है शायद!
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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