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भोजपुरी कहानिया

गाँव तो बेटियों के ही होते हैं...

गाँव तो बेटियों के ही होते हैं...
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जब गेहूँ की फसल देकर थक चुके खेत, चैत-बैसाख में अलसाए से पड़े रहते हैं और अचानक बारिश का एक झोंका उत्तर से आकर भिगोते हुए भाग जाता है, तब खेत चौंक कर लाल-पीले हो जाते हैं, लेकिन गुलाबी नहीं होते।
जब सड़क से टूट कर निकली पगडंडी पर अचानक धूल उड़ाते कोई 'स्विफ्ट डिज़ायर' या नेता टाईप गाडि़याँ गाँव में घुसतीं हैं, तब गाँव की रंगत हरी-भरी हो जाती है, लेकिन गुलाबी नहीं होती।
नवंबर-दिसम्बर की सरसराती सुबह में बियाह से लौट रही गाड़ियों में रखे टीवी, फ्रीज, कूलर और वाशिंग मशीन के किनारे बच-बचाकर घर में घुस रही दुलहिन को देखकर गाँव का चेहरा सतरंगी तो हो जाता है, लेकिन गुलाबी नहीं होता।
लेकिन इस गर्मी के महीने में जब तपती धूप, उमस और झुलसा देने वाली आँच में गाँव की कोई बेटी आती दिख भर जाए, तो गाँव गुलाबी हो उठता है। साल के दस ग्यारह महीने खुद में सिकुड़ता- सिमटता गाँव अचानक फैलने सा लगता है इन गर्मी की छुट्टियों में।क्योंकि गाँव से बाहर रहने वाले लोगों को इस गर्मी में ही फुरसत मिलती है गाँव आने की।पुराने पेड़ अचानक हरे-भरे हो उठते हैं, सूनी गलियाँ सुहागन बन जाती हैं और गाँव जैसे पियरी पहने चहक उठता है।
गाँव की बेटियाँ धीरे-धीरे गाँव को चीन्हते-पतियाते आतीं हैं। और गाँव के बेटे चिहुँकते-कतराते। आते दोनों हैं, लेकिन एक का आना गाँव में डूब जाने जैसा है और दूसरे का चालाकी से ऊपर-ऊपर तैरते रहना। बेटियाँ सीधे-सीधे घर नहीं आतीं, अंझुराते हुए आतीं हैं। रास्ते में किसी काकी का पैर छूते हुए तो किसी गाय को देखकर अंदाजा लगाते हुए कि एक बेरा पाँच किलो दूध तो होगा ही । यही नहीं रास्ते के पेड़-पौधों की मोटाई नापते हुए और परधान जी के दो मंजिला इमारत को आश्चर्य से निहारते हुए...
कुछ सालों पहले गाँव से कोस भर पहले बस से उतरी थी,पूरब टोला की चंपवा। स्टेशन पर रिक्शे वालों की भीड़ में से दो-चार रिक्शे लपके थे उसकी ओर। और थोड़ी देर बाद चंपवा को मय सामान और बाल-बच्चों समेत रिक्शे पर लादे दीना काका के पैर जितनी तेजी से रिक्शे के पैडल दबा रहे थे, उतनी ही तेज़ी से उन्होंने अपने मन को दबाया कि - बोलें कि ना बोलें।
तब तक बगल में रखे बैग के टंगने को एक हाथ से पकडे़ और दूसरे हाथ से साड़ी ठीक करते हुए लड़की ने खुद ही कहा - ए काका! एकदम दुब्बर-पातर हो गए हैं आप।
दीना काका जैसे चहक कर बोले - चंपवा! चीन्ह ली हमको? हम तो डेरा रहे थे कि कैसे बोलें?
फिर जो बात चल निकली तो गुड्डी, मंसवा, रधिकवा और रघुवा के साथ-साथ सैकड़ों हज़ारों यादों में डूबते-उतराते कब गाँव आ गया दोनों को पता ही नहीं चला था।
गाँव के मोड़ से रिक्शा आता हुआ देखकर हाथों को लीलार पर टोपी की तरह बनाकर चीन्हती हुई किसी बुढ़िया को डाँटा था दीना काका ने - का चीन्ह रही हो? चंपवा तो है परमारथ बाबू की मँझली ।
फिर दाहिने काट कर थोड़ा सा आगे बेकहे काली माई के चौरे पर रिक्शा रोक दिया था दीना काका ने। इधर चंपवा धीरे-धीरे उतरी, उधर दीना ने बैग और बच्चों को संभाल लिया। चंपवा ने अँचरा हाथ में धर कर मनौती माँगी - हे काली माई गाँव की रच्छा करना...।
रिक्शा दुआर पर रोक कर चंपवा के उतरते - उतरते बैग दालान में रख दिया था दीना काका ने और जोर से आवाज लगाई - परमारथ बाबूऽऽ! ए मरदे खाली घरवे में घुसे रहते हैं? चंपवा आई है!
चंपा घर में बैग लेकर जाते हुए कह गई थी - ए काका जाइएगा मत। आ रहे हैं अभी।
और पाँच मिनट बाद एक बड़के लोटे में पानी और छोटी सी कटोरी में एक लड्डू देकर कहा था चंपा ने - पानी पियो काका बहुत गर्मी है न!
थोड़े संकोच से दीना काका ने मटमैले हाथों से चमकता लोटा लेकर पानी पिया और बड़ा सा डकार लेते हुए अँगौछे से मुँह पोछ कर चलने को हुए। रिक्शे की घंटी टुनटुनाने लगी तभी अंदर से दौड़ती आई चंपा की आवाज़ ने दीना काका के पैर रोक दिए - ए काका पइसवा तो लेते जाइए।
काका क्षण भर रुके भी और हँस कर कहा - भक्कक। हम तो घर आ ही रहे थे तभी तुम दिख गई तो तुमको भी ला दिए इसमें कइसा मजूरी लेना है जी...।
यह बेटी और गाँव है, जिसके बीच में तरलता है परंपराओं की और गर्मी है सम्बन्धों की। यह सम्बन्ध मानवेतर होता है तभी तो दुआर पर अधमरी मेंहदी और गुलहड़ में बाल्टी का पानी डालते हुए चंपा ने खिसिया कर बाबू जी से कहा - हफ़्ते में एक बाल्टी पानी नहीं डाल सकते हैं मेंहदी में? देखिए तो सूख रही है।
परमारथ बाबू ने सुरती मलते हुए कहा - डालते हैं रे! कभी-कभी मिस्टेक हो जाता है।
चंपा ने माँ से पूछा - कटहल आ आम मँगा ली हो न? पिछले हफ्ते ही चिट्ठी में कहे तो थे...
आधे घंटे बाद अँगना में बिछी दरी पर चंपा गाँव की चार-पाँच औरतों के बीच में बैठी अंचार के लिए आम काटने में लग गई। कुछ बूढ़े होठों से मर रहे गीत झरने की तरह झरने लगे। उधर मूर्छित मेंहदी में जैसे जान पड़ने लगी। खपरैल पर कौए लड़ने लगे तो गौरैयों ने अँगना में फुदकता शुरू कर दिया।
झूमर के बोल थे कि दीवारों के बाहर तक सुनाई दे रहे थे -
मोरी धानी रंग चुनरिया इतर गमके...
गीत की खनक में खोए परमारथ बाबू ने परधान जी से कहा था - परधान जी! देख रहे हैं न! गाँव तो बेटियों के ही होते हैं, बेटों का तो शहर होता है। जबसे आई है चंपवा तबसे दिन - रात कब बीत जाता है समझे में नहीं आता। लग रहा है कि पूरा गाँव गुलाबी हो गया है।
परधान जी नम हो चुके आँखों के कोरों को धोती के कोने से सहलाते हुए बोले - बबुआ बहुत गंभीर बात कहे हो आज। गाँव तो बेटियों के होते हैं... जब तक बेटियाँ इस बात को याद रखेंगी तब तक गाँव इसी तरह गुलाबी रहेगा...
चंपवा ने अगले दिन पूरे घर को लीप कर नई दुलहिन बना दिया और ओसारे के पर्दे बदल कर नये लगा दिए। आम और कटहल का अँचार डाल कर आलू का पापड़ भी बना दिया था। उसको एक गोड़ पर काम करते देखकर परमारथ बाबू ने टोका भी था कि - अरे तीन बरिस बाद तो गाँव आई हो थोड़ा आराम भी कर लो।
चंपवा ने बस हँसी में भुलवा दिया था कुछ कहा नहीं था। हाँ अँगना की दीवार लीपते हुए उसके होंठ फिर गाने लगे थे -
गंगा जमुनवाँ के पियरी मटिया।
दुई अइलवा के चूल्हि हो दुइरंगी।

लेकिन गीत जो होते हैं वो गर्मियों की छुट्टियों की तरह ही छोटे होते हैं। बड़ी जल्दी खतम हो जाते हैं । फिर दो मुट्ठी चाउर में कुछ दूब की पत्तियों के बीच दो-चार हल्दी की गांठे, अंचरा में बाँधे चंपवा एक दिन चली भी गई और गाँव पीछे- पीछे थोड़ी दूर तक छोड़ आया था । उधर चंपवा सुबकती गई थी इधर गाँव सुबकता रह गया था... ये बहुत पुरानी बात थी।
आज भी गाँव में गर्मी का मौसम आता है, बारिश के झोंके अलसाए गाँव को जगाने के लिए भिगो जाते हैं, लेकिन गाँव गुलाबी नहीं होता। आज भी ऊँघ रहे गाँवों में रिक्शे हर दरवाजों पर आकर रुकते हैं लगभग सभी घरों में चंपा उतरतीं हैं लेकिन वो सीधे घर में चलीं जाती हैं। कोई दीना काका को लोटे में पानी नहीं पिलाता और दीना भी चुपचाप दस का नोट कुर्ते की जेब में घुसा कर चुपचाप चल देते हैं। मेंहदी की जगह रंग-बिरंगे पौधों ने ले ली है, जिसमें वाटर पाईप चालू रहता है। बाहर जैसे ही किसी चंपवा का बेटा गाँव के लड़कों के साथ खेलना शुरू करता है तो चंपा खिड़की से डाँट देती है - आदर्श! क्या कर रहे हो? देखो तो सारे 'क्लाथ' गंदे हो गए... चलो 'हैंड' धुलो आकर..
चौंक उठता है गाँव और चंपा की आवाज़ चीन्हने की कोशिश करता है लेकिन चीन्ह नहीं पाता।
शादी - ब्याह के मौके पर चंपा अब गीत भी नहीं गाती। साफ कह देती है कि मुझे ये सब नहीं आता..
गाँव उदास हो जाता है और सोचता है कि भला ये गीत भी आने की चीज है?
उधर कोई चंपा किसी कूलर के सामने बैठ कर भी शिकायत करती है - "उफ्फ्फ्फ़! कित्ती गर्मी है! गाँव अब रहने लायक नहीं है"।
गाँव फिर चीन्हने की कोशिश में है लेकिन चीन्ह नहीं पाता। और करवट बदल कर आँखें बंद कर लेता है, पलकों के भार से कुछ बूंदें गालों पर ढुलक आती हैं।उसके कानों में पुराने झूमर जैसे गड़ने लगते हैं -
मोरी धानी चुनरिया इतर गमके।
और गाँव उसी फटी पुरानी धानी चुनरिया में मुँह छुपाकर रोने लगता है। और सोचता है कि काश आज कोई परमारथ बाबू होता जो याद दिलाता कि - गाँव तो बेटियों के ही होते हैं...

असित कुमार मिश्र
बलिया
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