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भोजपुरी कहानिया

"चिट्ठी आई है"/...... कहानी

चिट्ठी आई है/...... कहानी
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पूरे गाँव भर में एक्के ठो थे - जगरनाथ चच्चा। थे किसी और गाँव के पर इस गांव के कई लोगों ने उन्हें अपने बचपन से देखा था। जिस जमाने में मैटरिक तक स्कूल में टिक जाना ही बड़ी बात होती थी, उस जमाने के इंटर पास थे। बाइस से बासठ तक की जिंदगी सायकिल पर चिट्ठियां बांचते-बांटते गुजार दीं। पर काम से संतुष्टि इतनी कि कभी परमोसन नहीं लिया। कहते कि, "बाबू हम खुद चिट्ठी के तरह और हमारी जिनगी सायकिल के पहिया की तरह। अब चिट्ठी को लेटरबॉक्स में और साइकिल को कुरसी पर बईठा के तो नहीं रख सकते हैं ना, ये तो दौड़ेगी सड़कवे पर, गांव-गांव जाएगी, घर-घर जाएगी। और हमारी जिनगी दौड़ती रहे वही बढ़िया।"

तब ना तो कबूतर के गले में संदेश बांधते थे और ना ही तब टेलीफोन का आगमन हुआ था। वह इन दोनों के बीच का कोई दौर था - चिट्ठियों का। चिट्ठियाँ कागज़ का सिर्फ एक टुकड़ा ही नहीं, पूरी संस्कृति हुआ करती थीं। आज टेलीफोन तमाम अच्छाइयों के बावजूद एक संस्कृति को नष्ट कर देने के इल्जाम से नहीं बच सकता! खैर...

जगरनाथ चच्चा की शादी बाल्यावस्था में ही पड़ोस के गांव की लड़की से हो गई थी। गौना नहीं हुआ था इसलिए साथ रहने की मनाही थी। कुछ बड़े होने पर दोनों में पत्राचार शुरू हुआ। गांव के बड़े-बूढ़े बताते कि जगरनाथ कई बार खम्हार पर जाने के बहाने उस गांव का चक्कर लगा आता था। छुपकर पत्नी को रस्सी पर कभी अंगिया पसारते तो कभी पंसारी के यहां से कड़ू तेल लाते देख लिया करता था। एक दम फूलकुमरी सी थीं चाची। जब आदमी को प्यार का कखग नहीं आता, उस उम्र में चाची को अपना सर्वस्व सौंप चुके थे चच्चा। चिट्ठियों में अपनी यही विरह-वेदना लिख डालते। और दिन गिनते जवाब आने का। चाची को लिखना-पढ़ना नही आता था। वह गांव के डाक बाबू से चिट्ठी सुनतीं और अपना दो लाइन का जवाब कह देतीं। और साथ में यह भी बोलतीं कि, "बाबू तनि सजा कर लिखियेगा। हम तो एक्को आखर नय जानते हैं। आप अपने मने से कुछ-कुछ लिख दीजिये।" लिखाने के बाद क्या लिखा इसे सुनना नही भूलतीं। और जब अंत में डाक बाबू पढ़कर सुनाते - "आपकी चरणों की दासी, पार्वती", तो उनके गाल शर्म से टुस-टुस लाल हो जाते।

चाची ने चच्चा को नहीं देखा था। और कभी देख भी नहीं पाईं। कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। चच्चा का इंटर होने पर उनकी पोस्टऑफिस में नौकरी लग गई। इसके बाद दोनों का गौना तय हुआ था। पर गौना से कुछ दिन पूर्व ही सर्पदंश से चाची की मौत हो गई। यह चच्चा की जिंदगी का सबसे बुरा समय था। इसके बाद चच्चा का मन उठ गया हर बात से। दुनियादारी का कुछ भी होस-हबास ना रहता। एकदम फक्कड़ की तरह रहने लगे। पुत्र के दुख में उनके माता-पिता भी जल्दी ही चल बसे। चच्चा ने अपना घर-बार छोड़ दिया। चाची की चिट्ठियों का बस्ता उठाया और चल पड़े उधर जिस गांव में पोस्टिंग थी। और फिर यहीं के होकर रह गए। इसके बाद जगरनाथ चच्चा ने चालीस सालों तक ना तो चिट्ठियों का दामन छोड़ा ना ही इस गाँव का। ना दूसरी घरवाली की ना ही दूसरी सायकिल ली। अक्सर कहते, "बाबू इस जिनगी की कुल जमापूंजी यही है - चंद चिट्ठियां, यह गांव और यह सायकिल।"

पूरे गाँव मे एक जगरनाथ चच्चा ही थे जो दीन-दुखिया, अमीर-गरीब सबके चेहरे पर खुशियां लाते थे। उनके सायकिल की टुनटुनी सभी के कानों में मिश्री घोल दिया करती। कितने ही गुड्डुआ, पिंकुआ, सरवना जैसे लड़के जब दिल्ली-पंजाब से मनीआर्डर भेजते तो ना जाने कितनी बूढ़ी-पथराई आंखों से अविरल धारा बहने लगती। लड़के परदेस से मनीआर्डर की शक्ल में माँ-बाप को अपना सहारा भेजते और चच्चा उनके लिए किसी पुल का कार्य करते। जगरनाथ चच्चा ही थे जो उन बेसहारे बूढ़े माँ-बाप के घर भोर-सांझ चावल खदकता था तीसो रोज। परकास जादव की कनियां तो हर रोज दू रोज पर पूछ लेती कि कोई चिट्ठी आई है या नहीं। पूछते बखत आँचल उसके गले तक झूलता रहता। उसका खसम तीन साल पहले बंगाल गया था लेबरई करने। अब सिर्फ जगरनाथ चच्चा ही थे जो दोनों के बीच संवाद हो पाता। बिरेंदर बाबू की बड़की बेटी जब पटना शहर से अंतर्देशीय चिट्ठी भेजती तो एक चच्चा ही थे जो उसे सही तरीके से खोलना जानते थे। पूरी चिट्ठी बैठकर बिरेंदर बाबू की पत्नी को सुनाना और तुरंत जवाब भी लिखना - सबकुछ चच्चा के कपाड़ पर था। उनकी पत्नी बड़ी गपोड़ थी। स्थिति इस हद तक गंभीर थी कि अब समधिन की बातें सुनकर ना सिर्फ बिरेंदर बाबू की पत्नी बल्कि जगरनाथ चच्चा का भी रक्तचाप बढ़ जाता। फिर जब पता चलता कि बिरेंदर बाबू की बेटी ने चौथे महीने में दो रोज अचार खा लिया है तो उसकी माँ के साथ-साथ जगरनाथ चच्चा का गुस्सा भी भभक उठता। जवाब देने के क्रम में अपनी ओर से चार बातें लिख दिया करते। इसलिए बिरेंदर बाबू के यहां की चिट्ठी मतलब था - आधा दिन का हरज! सो चच्चा सभी की चिट्ठी बांटकर ही उनके दुआर पर गोड़ धरते। वही थे जो समय रहते कामेसर मास्टर की लड़की का कार्ड पूरे पंचायत भर में बंट पाया। शादी में पूरे भंडार का सम्हार अपने से किया। भोज के दिन साँझका बेरा तक पूरा कम्मर ऐंठ गया, पर उन्होंने उफ तक ना किया। वर्ना जिस तरह उसके गोतिया लोगों ने हाथ खड़े कर दिए थे, बेटी के हाथ सूने ही रह जाते। गांव के कई नए युग के छोरों की बिना टिकट लगी बैरंग प्रेम-पत्री उनके परानपियरी तक हाथोंहाथ पहुंचाया उन्होंने। सीधे-सादे गांव के लोग प्रेम के प्रदर्शन में भले कुछ अधूरे हों लेकिन प्रेम में पूरे थे। और इन सबके साक्षी थे - जगरनाथ चच्चा।

जगरनाथ चच्चा पोस्टऑफिस में ही रहते थे। अकेला पेट पालना था अतः कोई तामझाम नहीं रखते कभी। बस एक दरी, एक बाल्टी, लोटा, एक स्टोव, एक ढिबरी, दो सेट धोती-कुर्ता, और सायकिल - बस इतनी ही थी उनकी संपत्ति। डेढ़ सौ रुपया महीना जो सरकार देती थी वो पर्याप्त था उनके लिए। कभी पैसा जमा करने की कोशिश नहीं की। उल्टे जिस महीने किसी का मनीआर्डर आने में देरी होती, कुछ पैसे अपने जेब से निकाल कर दे दिया करते। अक्सर कहते कि, "डाकिया की संपत्ति तो वो आंखें हैं जो मेरे आने की बाट जोहती हैं और मेहनताना वो दो बूंदें हैं जो मुझे देखकर उन आंखों से टपक पड़ती हैं।"

जगरनाथ चच्चा आजीवन अपनी पत्नी की विरहाग्नि में जलते रहे। दशकों बीत चुके थे चाची को मरे पर चच्चा ने कभी उनको जाने नहीं दिया। साल भर में एक-आध बार चाची चिट्ठियां निकालते। ज्यादा नहीं थीं - कुल आठ-दस ही थीं गिनती में। पर इतने सालों बाद भी उनमें वही खुशबू विद्यमान थी। जब भी चिट्ठियों को खोलते तो यकायक साठ की उम्र से सीधा अपनी तरुणाई में पहुंच जाते। ढिबरी की मद्धिम रोशनी में एक चलचित्र सा चलने लगता। कैसे वो शर्म के मारे झाड़ियों में छिपकर मटर की फलियां तोड़ते अपनी पत्नी को देखते थे... कैसे सड़क पर जाती हुई पत्नी के बगल से साइकिल तेजी से निकाल कर बिना पीछे मुड़े बढ़ जाया करते थे... वो सभी दृश्य आंखों के आगे सजीव हो उठते। कई बार यह सोचते कि, "मैंने तो उसे देखा था पर क्या होता जो उसने भी मुझे देखा होता। कहीं अपना चेहरा ना दिखाकर मैंने कोई गलती तो नहीं कर दी। वो तो बेचारी यह देखे जाने बिना, कि जिससे वह प्रेम करती है वह कैसा दिखता है, निःस्वार्थ प्रेम करती रही। उसका प्रेम निश्चय ही मेरे प्रेम से कई गुणा ज्यादा गहरा है।" फिर थोड़ी देर कशमकश में रहने के बाद खुद को सम्हारते - "नहीं, यह अच्छा ही था जो उसने मुझे नहीं देखा। वरना शायद मृत्यु ज्यादा कष्टदायक होती। बार-बार मेरा चेहरा उसकी डूबती आंखों में आता। हर बार उसकी टूटती सांसें मेरा नाम पुकारतीं। मरकर भी शायद शांति ना मिल पाती उसे। अच्छा ही हुआ... मुझे भी उसे नहीं देखना चाहिए था।" जिस प्रकार मीरा ने कृष्ण की मूर्ति सामने रख कर खुद को उनकी अर्धांगिनी माना था उसी प्रकार चच्चा ने चाची की एक कल्पित मूर्ति बना रखी थी अपने इर्द-गिर्द शायद। इस वजह से सदैव उन्होंने खुद को एक प्रकार के यौनानुशासन में बंधा पाया। उनका रिश्ता शारीरिक सीमाओं से परे था, आत्मिक था। जिस प्रेम के लिए जगरनाथ चच्चा आजीवन तड़पते रहे, हमेशा कोशिश की कि दूसरों को यह सब ना झेलनी पड़े। शायद उन्हें लगता कि उनकी पत्नी की जीवात्मा को इसी से शांति पहुँचेगी... और कुछ हद तक उनकी जीवात्मा को भी।

रिटायरमेंट! एक यही चीज थी जिससे वो हमेंशा डरते थे। कैसे रहेंगे चिट्ठियों के बिना। ना... नहीं रह पाएंगे। चिट्ठियां अब उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। चिट्ठियों के बंडलों में उन्होंने अपना जीवन तह करके रख दिया है। पोस्टकार्ड के पीले रंग उनके उत्सव के प्रतीक हैं... तब, जब पार्वती जिंदा थी। अंतर्देशीय का नीला रंग उसके जाने के बाद उनकी स्थिरता और एकाकीपन का निरूपण है। चिट्ठियों पर लगी टिकटें वो पैबंद हैं जिससे उन्होंने अपने जख्मों को सिला है। उनकी जिंदगी वह पोस्टकार्ड है जहां पते के स्थान पर सिर्फ उनकी प्रियतमा का नाम छपा है। जहां पिनकोड के छह खाने उनका अधूरापन बताने के लिए आज भी खाली हैं, वहीं चिट्ठियों पर लगी पोस्टऑफिस की मुहर भी है जो यह बताती है कि इसके बावजूद उनका जीवन सम्पूर्णता का परिचायक है। बंद लिफाफों में उन्होंने अपनी आत्मकथा भर रखी है, जिसे कभी इस डर से नहीं खोला कि कहीं लिफाफों की ही तरह खोखले ना हो जाएं।

जिंदगी, जो उन्होंने जीया, वह पोस्टकार्ड की ही भांति सीमित रही। और जिंदगी, जो उन्हें जीनी पड़ी, वह अंतर्देशीय की तरह विस्तार लिए रही। चिट्ठियां तो जगरनाथ चच्चा का जीवनवृत्त रही थीं। वह उनसे अलग हो ही नही सकते थे। कोई प्राणवायु से कितनी देर विमुख रह सकता है! जगरनाथ चच्चा भी नहीं रह पाए। उनकी सायकिल का पहिया रुकने से पहले उनकी जिंदगी की गाड़ी रुक गई। रिटायरमेंट से एक रात पहले ही संसार को अलविदा कह दिया। उनकी संपत्ति... उनकी वो चिट्ठियां... जिनमें उनकी प्रियतमा थीं... उनके साथ ही चिता में जलीं। ना जाने कब से वो दोनों फंसे हुए थे... भवसागर से मुक्ति चाहते थे... दशकों बाद एक साथ ही वैतरणी पार हो गए।

सुमित सुमन
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