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भोजपुरी कहानिया

वोट फाॅर दुलारी भौजी ...

वोट फाॅर दुलारी भौजी ...
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कोईरी टोला की दुलारी भौजी ने बीडीसी का पर्चा भर दिया है। पूरा गाँव दुलारी को भौजी ही कहता है। और गांव के बड़े - बूढ़े ही नहीं, खुद भगवान जी भी दुलारी भौजी के साथ मजाक करते हैं। भौजी की कहानी में रहस्य, रोमांच, करुणा, हास्य सब है।
आज से लगभग तीस साल पहले कोईरी टोला के मानिकचंद के घर एक डोली आई उसी में से उतरी थी दुलारी भौजी। सांवली रंगत बड़ी-बड़ी आँखें, भरा- भरा शरीर। आवाज़ इतनी पतली और सुरीली जैसे कोईलर बोल रही हो। तब जमाना दूसरा था। गाँव को गाँव ही कहा जाता था भिलेज नहीं। दुखी साह को चंद्रशेखर मिसिर और बाबू रामावतार सिंह मुखिया मान दिए, तो पूरा गाँव मान लिया। और यही दुखी साह रामावतार सिंह पर पाँच रुपया जुर्माना लगाए थे, कालीचरना के बकरी वाले केस में। वो समय ही दूसरा था। तब कभी स्कूल का मुँह न देखने वाले कवल बाबा के मुँह से सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने के लिये पूरा गाँव इकट्ठा होता था। और जब बाबा का शंख बजता था तो गांव के चारों टोले के सिर सरधा से झुक जाते थे।
मानिकचंद दुलारी भौजी के रूप पर कुर्बान तो थे ही गाहे-बगाहे चिरौरी भी करते थे कि ए दुलारी तनी वो वाला गनवां सुनाओ। तब भौजी साड़ी का आँचल कपार पर रखकर गाने लगती-
पनियाँ के जहाज से पलटनिया बनि के अइहऽ हो पिया।
ले ले अइहऽ हो पिया सेनुरा बंगाल से।।
इसी गाने पर तो मानिकचंद का दिल दरिआव हो जाता था। समय के साथ साथ दुलारी भौजी के चार बच्चे भी हुए। भौजी अब खेतों में काम भी करने लगी। रोपनी सोहनी से लेकर कुटिया पिसिया तक भी। फिर भी पेट नहीं भर पाता था। वो समय ही दूसरा था। हालांकि गाँव के लोग सबकी मदद करते थे, लेकिन चार साल से बारिश न होने से सबकी दशा वही थी। मानिकचंद बिदेश चले गए कमाने। तब बंगाल को बिदेश कहा जाता था और तब बंगालिनें जादू टोना करती थी।
दुलारी भौजी का मन तो नहीं मानता था पर घर- गृहस्थी चलाने के लिए पैसा भी जरूरी था। भौजी अब उदास रहने लगी। लेकिन तीन चार महीने पर मानिकचंद की चिट्ठी और पैसा आ जाता तो भौजी खुश हो जाती। तीन चार साल बीत गए। अब बारिश भी होने लगी और खेतों में भरपूर अनाज भी होने लगा तो भौजी ने चिट्ठी भिजवाया कि-सिन्टुआ के बाबूजी को मालूम कि अब खेती ठीक हो गई है। अब बहरी कमाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन उधर से जवाब नहीं आया। दो महीने बाद भौजी ने फिर से चिट्ठी भेजी। चार पाँच चिट्ठियों का जवाब नहीं आया।
चैत का महीना था जब चारों ओर गेंहू की कटाई चल रही थी। कौए खपरैल पर कांव कांव कर रहे थे । और इसी बीच आखिर चिट्ठी आ ही गई। लेकिन उस चिट्ठी को पढ़कर दो दिन चूल्हा नहीं जला गाँव में। भौजी के चीत्कार और रुदन से ठकुराइनों का कलेजा भी फटने लगता था। दुखी साह ने ही रोते- रोते चिट्ठी पढी थी कि - "मानिकचंद वल्द सीताराम कोईरी। हाल मुकाम ग्राम मिसिरचक पोस्ट सिकंदरपुर जिला बलिया। कंपनी के इंडेक्स केबिन में आग लगने के कारण जल कर मर गए। बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका" ।
अब लाश लाने के लिए जाए कौन? मानिकचंद की न माँ थी न बाप। पट्टीदारी का चचेरा भाई दीपचनवां और चन्द्रशेखर मिसिर तथा राधिका सिंह गए थे। तय हुआ कि मिट्टी को गाँव ले जाने से क्या फायदा? यहीं अन्तिम संस्कार कर दिया जाए। चन्द्रशेखर बाबा तो लाश देखकर ही बेहोश हो गए। वो तो राधिका सिंह ने मामला संभाला था। इधर भौजी का खाना पीना सब छूट गया। चेहरे का पानी उतर गया। कलाइयों की चूड़ियाँ टूटकर जख्म दे गई थीं। चौथे दिन दिनेश सिंह की मेहरारू रोटी और पालक का साग लेकर गईं और कहा कि - 'ए भौजी तनिके खा लो ऐसे कैसे चलेगा' ।
इसके पहले दिनेश सिंह के मेहरारू की परछाई तक लोगों ने नहीं देखी थी। बटेसर बाबा की नातिन गर्म पानी लेकर गई थी।तब गाँव , गाँव होते थे भिलेज नहीं। बहुत मनुहार के बाद भौजी ने रोटी का दो कौर मुँह में डाला था।
चन्द्रशेखर बाबा तो मानिकचंद के ब्रह्मभोज में खाते हुए चिल्ला कर रोने लगे। उन्होंने ही बियाह भी कराया था अब वही ब्रह्मभोज भी करा रहे थे।
कुछ दिनों के बाद ही भौजी के नैहर से लोग भौजी को ले जाने आ गए। पर भौजी ने साफ साफ कह दिया कि मैं पूरे गाँव की भौजी हूँ। यहां से बस मेरी मिट्टी ही जा सकती है।
समय का काम है बीतना। परिस्थितियाँ भी बदलती हैं और लोग भी। दुलारी अब भी पूरे गाँव की भौजी थी, पर अब कोई मजाक नहीं करता था उससे। रामावतार सिंह पूरे गांव में बकरी मारने के लिए प्रसिद्ध थे पर देखते हैं कि भौजी की बकरी उनके खेत में चर रही है, फिर भी मुँह फेर कर चल देते थे।
सावन भी बीत गया भादो भी कुआर भी। अब कार्तिक का महीना चल रहा था। इस महीने में ठंड पडने लगती है। चट्टी चौराहे की दुकानें भी जल्दी ही बंद हो जाती थीं। इसी ठंड के महीने में हनुमान जी के मंदिर के पास अलाव ताप रहे लोगों से एक परदेशी आदमी ने माचिस माँगा बीङी सुलगाने के लिए। एक आदमी ने माचिस दिया भी। पर जैसे ही परदेशी ने तीली जलाकर चेहरे के पास की, लोग चिल्लाते हुए भाग गए कि - अरे भागो मानिकचनवां का भूत आया है। पाँच मिनट में ही पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। मानिकचनवां का भूत चारों तरफ से घेर लिया गया। चन्द्रशेखर मिसिर लोटा का जल छिड़क कर भस्म ही करने वाले थे। दूसरी ओर रामावतार सिंह दोनाली तान कर तैयार थे। तभी मानिकचनवां ने कहा - चन्द्रशेखर बाबा पांव लागेनीं।
बस फिर यहीं कहानी बदल गई। मानिकचनवां उस दिन कंपनी में काम करने गया ही नहीं था बुखार के कारण। और जो मर गया उसे मानिकचंद समझ कर हेड आफिस ने चिट्ठी भेज दिया। कंपनी बंद हो गई थी तो मानिकचंद ने दूसरी कंपनी में काम ढूंढ लिया था।
इधर विधवा बनी दुलारी भौजी मानिकचंद का पैर पकडे रो रही थी। मानिकचंद घर जाते इसके पहले ही बैजनाथ बाबा ने फरमान जारी कर दिया कि - मानिकचनवां का ब्रह्मभोज हो चुका है, इसलिए अब वो अपनी पत्नी के साथ नहीं रह सकता। दुलारी भौजी ने बाबा के पैर पकड़ लिए। तब बाबा ने ही उपाय बताया कि अब फिर से बियाह करना होगा इसके अलावा कोई उपाय नहीं।
उसी रात भौजी गाँव भेज दी गई।और एक महीने बाद फिर से बियाह हुआ। यह अनोखा बियाह था गाँव का। जिसमें फेरे के समय चन्द्रशेखर मिसिर अपने आँसू पोछ रहे थे। और रामावतार सिंह ने लगातार एगारह फायर किया था अपने दोनाली से। यही नहीं दूल्हा-दुल्हन के चारों लडके भी बियाह में पूड़ी पत्तल चला रह थे।
अचानक दुलारी भौजी मुझसे कहती है - ए सोनू बाबू! हमहूँ बीडीसी का पर्चा भरे हैं। वोट देंगे न हमको?
मैं चौंक कर भौजी को देखता हूँ। भौजी अब पचपन साल की हो गई है। गाल धंस गये हैं बाल सफेद हो गया है चेहरा झुर्रियों से भर गया है पर ललका सिन्दूर अभी भी माथे पर लाईट मार रहा है। मैं कहता हूँ - ए भौजी एक्के शर्त पर वोट देंगे तुमको।
भौजी कहती हैं- क्या?
मैं कहता हूँ - बियाह करेगी न मुझसे जीतने के बाद।
भौजी लजा के मुस्कुरा रही है....
हां, हां। जानता हूँ कि भौजी का बड़ा लड़का मुझसे पूरे सात साल बडा है। पर भौजी तो भौजी ही है आखिर..... वोट फार दुलारी भौजी।


असित कुमार मिश्र
बलिया
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