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भोजपुरी कहानिया

एक कहानी ऐसी जो दिल को छू ले :...हिला दिया माट्साब ....

एक कहानी ऐसी जो दिल को छू ले :...हिला दिया माट्साब ....
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यूं तो इस फ़ानी दुनिया में ढंग का ट्यूटर मिलना ही आकाश कुसुम मिलने के बराबर है लेकिन इस मामले में हम थोड़े सौभाग्यशाली सिद्ध हुए कि आज तक जो भी मिला वो गुरु ही निकला कमबख्त शिष्य कोई मिला ही नहीं! खैर गुरु पूर्णिमा के दिन अनायास अपने संगीत के शिक्षक की स्मृति हो आई जिनकी अब स्मृतियाँ ही शेष हैं।
वो नब्बे के दशक के आखिरी साल चल रहे थे जब 'राजा हिंदुस्तानी' फिल्म के 'आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बन के' टाईप गानों से हम 'बहार' का मतलब निकालना सीख रहे थे। पढ़ाई तो करते थे कक्षा सात आठ में लेकिन हाईस्कूल और इंटर के बच्चों तक का कान काट लेने की दक्षता रखते थे। बस जिंदगी में नामुराद गणित न होती तो आज हमारा नाम स्वर्णाक्षरों क्या हीलियम और लीथियम में लिखा जाता।गाँव देहात के तमाम मंदिरों मस्जिदों में गणित के मास्टर साहब के लिए हमने बद्दुआएं मांग रखी थीं लेकिन मास्टर साहब दिन पर दिन और स्वस्थ होते जाते थे। यही वो दिन थे जब देवी-देवताओं और पीर पैगंबरों से हमारा भरोसा उठा था। आज भी देश दुनिया के तमाम नास्तिकों को देखता हूँ तो समझ जाता हूँ कि बंदा गणित का सताया है और इसकी भी मांगी बद्दुआएं पूरी नहीं हुई होंगी।
इसी बीच एक मास्टर साहब आए नाम था राजेंद्र मिश्र और उनका विषय था संगीत।एकदम गोरे और दुबले पतले लंबे से। सबसे बड़ी खूबी कि साइकिल पर उल्टा चढ़ते थे और उल्टे ही उतरते थे। लंबी मोहरी का पायजामा और कुर्ता। कुर्ते की बांहों पर पान की लालिमा। आवाज में मिठास और गीत रचने- गाने में अद्भुत प्रतिभा। आकाशवाणी गोरखपुर और वाराणसी से उनके गीतों की प्रस्तुति भी होती रहती थी। उनकी नियुक्ति बगल के प्राथमिक विद्यालय में थी लेकिन दो घंटे के लिए हमारे विद्यालय में संगीत सिखाने आ जाते थे। संयोग ऐसा हुआ कि वो जब आते तब हमारे गणित की क्लास का टाईम रहता और हम गणित से बचने के लिये संगीत के विद्यार्थी बन गए। साल में तीन चार महीनों के लिए गणित रुपी दुश्मन से पीछा छुड़ाने का यही एक ब्रह्मास्त्र था हमारे पास। हालांकि पीटते वो भी थे लेकिन संगीत का अध्यापक कभी उतनी कठोरता से नहीं मारेगा जितनी गणित वाला,वह स्वभावगत कोमलता होती है।
कहते हैं संगीत और साहित्य साधना होती है। लेकिन हमारे लिए ऐसा नहीं था हमारे लिए संगीत बस गणित से बचने का बहाना भर था। इसीलिए हम कभी संगीत के अच्छे तो क्या सामान्य विद्यार्थी भी न हो सके। हां संगीत सहगामी अन्य क्रियाओं में हम निपुण थे जैसे मास्टर साहब के लिए पान लाना वो भी बिना जर्दे के कुछ टुकड़े टेस्ट किए, छड़ी की व्यवस्था करना, मास्टर साहब के आने से पहले कौन हारमोनियम बजा रहा था या कल तबला कौन जोर से पीटा था इन सबके लिए बस एक ही सुयोग्य नाम - असितवा।नाटक प्रहसन और व्याख्यान में हम भले ही कुशल थे लेकिन गाने में तो बस तत्कालीन हनी सिंह ही ठहरे।
कुछ भी हो हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति थी राजेन्दर माट्साब की। कल तक हम अपने जिन कान्वेंटीय दोस्तों के चकाचक स्कूल ड्रेस और अंग्रेज़ी मिश्रित भोजपुरी के आगे सरेंडर कर देते थे अचानक हमें भी तन कर खड़े होने का अवसर मिला।जैसे ही हम परिषदीय स्कूल के छह रुपये फीस वाले छात्र तरकश से पहला तीर छोड़ते कि - हमारे राजेन्दर माट्साब तो रेडियो में गाते हैं तुम बताओ! तो पचास रुपए मासिक फीस देने वाले अमीर दोस्त निरुत्तर हो जाते थे। उन अमीर दोस्तों को निरुत्तर कराने के लिए हम राजेंद्र मास्टर साहब की पिटाई भी हँस कर सह सकते थे।
वो जनवरी की पांचवीं तारीख थी। छब्बीस जनवरी के कार्यक्रमों की तैयारियां जोरों पर थीं। नाटक और प्रहसन में मेरी केन्द्रीय भूमिका होती थी। रिहर्सल चल रहा था तभी राजेंद्र मास्टर साहब कमरे में घुसे और खुशी से चिल्लाते हुए बताया कि हमारे विद्यालय के टीम की प्रस्तुति आकाशवाणी गोरखपुर से होगी। बीस जनवरी को गोरखपुर चलना है रिकार्डिंग के लिए। हम अचानक स्कूल घर और गाँव में कीमती हो गए। सबको पता चल गया कि आकाशवाणी पर हमारा कार्यक्रम आएगा। कल तक हमें देखते ही क्लास की जिन दो चोटी वाली कन्याओं का मुंह मुशर्रफ़ बन जाता था वो अब रफ के पिछले पन्ने पर एक गोलाई बना कर उसमें उसमें दो टेढ़ी मेढ़ी आंखें चिपका कर नीचे 'आई लव यू असित' लिखने लगीं। दो चार दिन में ही हम विद्यालय के गौरव बन गए हमें गणित नहीं आती यह अब बहुत छोटी बात थी। डायरेक्ट 'अम्ता बच्चन' से हमारी तुलना होने लगी। इतना खुश मैंने राजेंद्र माट्साब को पहले कभी नहीं देखा था। लेकिन जिम्मेदारी भी बड़ी थी हम पूरे मनोयोग से तैयारी में लगे थे। माट्साब लगभग रोज ही मेरे अभिनय पर उत्तेजित होकर कहते थे - हरे असितवा हिला देना है एकदम। बूझ गए न!
मुझे समझना बूझना क्या था। हां इतना जानता था कि अपना बेस्ट करुंगा क्योंकि रेडियो पर आना है। लेकिन कहते हैं न किस्मत! उन्नीस जनवरी को आकाशवाणी से सूचना मिली कि हमारे कार्यक्रम को रद्द कर दिया है।अचानक वज्रपात हो गया हम पर। थोड़ा बहुत उदास होकर हम तो भूल गए लेकिन राजेंद्र माट्साब संगीत वाले कमरे में चुपचाप चले गए और दरवाजा बंद कर लिया। आधे घंटे बाद निकले। क्या हुआ मुझे बहुत नहीं पता लेकिन उतना उदास मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था। हमारे उतने दिनों की मेहनत और सपने एक झटके में बेकार हो गये थे ।
कहते हैं वक्त कैसा भी हो गुजर ही जाता है। हमने धीरे-धीरे आठवीं फिर दसवीं फिर बारहवीं पास कर ही लिया। अब हम अपने डिग्री कालेज के छात्र थे और वो भी दबंग छात्र। वो सातवीं आठवीं की बातें वो नाटक गीत गाने अब बच्चों की बातें हो चुकी थी मेरे लिए। अब हम यह तय करते थे कि कौन अध्यक्ष बनेगा और कौन महामंत्री।
उन्हीं दिनों कालेज की लाइब्रेरी में आठवीं के जमाने की एक लड़की ने रोका। हमने कहा - क्या है?
लड़की ने कहा - असित, राजेन्दर मिसिर मास्टर साहब नहीं रहे कल रात को ही...।
अचानक जैसे लगा कि कुछ टूट गया हमारे भीतर। लेकिन हमने संभाला खुद को और लड़की से कहा - ठीक है और कोई बात?
लड़की जैसे फफक पडी - कैसे इंसान हो तुम। तुम्हें कितना मानते थे और तुम्हारे अंदर कोई भावना नहीं उनके लिए...। श्रद्धांजलि के दो शब्द तक नहीं उनके लिए...।
मैंने कहा- ठीक है यार देखेंगे। और उस दिन घर चला आया। लेकिन सच कहूं तो एक बूँद आंसू नहीं गिराया उनके लिए।समय बीतता गया धीरे-धीरे कालेज की पढ़ाई भी खत्म हो गई। हां, राजेंद्र मास्टर साहब भी कभी-कभी याद आते रहे।वो लड़की भी कभी-कभी आते जाते दिखती रही लेकिन न उसने कभी कुछ कहा न मैंने।
लेकिन कब तक चुप रहता मैं। मुझे जवाब देना ही था लड़की को नहीं उस वक्त को जिसने हमारे ख्वाब तोड़े थे। हिलाना था वक्त को जिसने हमें एक मौका तक नहीं दिया। और जल्दी ही आकाशवाणी गोरखपुर ने प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता डा0 पृथ्वीश नाग के एटलस पर वार्ता के लिए मुझे आमंत्रित किया। अब वक्त भी मेरा था और चाल भी मेरी। दस मिनट के रिकार्डिंग में न कोई कंपोजिंग करनी पड़ी न आवाज का उतार चढ़ाव नियंत्रित करना पड़ा। रिकार्डिंग रुम से बाहर निकला तो आपरेटर ने मुस्कुराते हुए कहा - गजब बोलते हैं आप मुझे तो कुछ करना ही नहीं है। बस वाइस क्लिप को वैसे ही सुना देना है.. मने हिला दिए माट्साब।
वो लड़की वहां होती तो देखती कि उस दिन कितने रोए थे हम। केवल इस एक वाक्य के लिए सदियाँ तय की है हमने। आकाशवाणी से मिला चेक और आकाशवाणी पर प्रसारित होना बड़ी बात नहीं। बड़ी बात थी मेरे लिए मेरे राजेन्दर मिसिर मास्टर साहब को श्रद्धांजलि देना। एक संगीत के अध्यापक को श्रद्धांजलि देना वो भी उन्हीं की भाषा में।
माट्साब हिला ही दिया मैंने... आप सदैव मुझ में रहेंगे असित ही बनकर। गुरु पूर्णिमा पर नमन आपकी स्मृतियों को।

असित कुमार मिश्र
बलिया
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