भानुमति - 4
BY Anonymous25 Oct 2017 10:51 AM GMT

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Anonymous25 Oct 2017 10:51 AM GMT
हस्तिनापुर आये अब बहुत दिन हुए। केशव को ना तो पांडवों की मृत्यु के पीछे छिपे षणयंत्र की कुछ थाह लग रही है ना कोई विकल्प सूझ रहा है। हालांकि आमजन का पूर्ण विश्वास है कि उनकी हत्या में धृतराष्ट्र पुत्रों का हाथ है। क्या भरत द्वारा स्थापित और कुरु, हस्ती, प्रतीप, शांतनु जैसे महान राजाओं द्वारा शासित यह राज्य इस अधर्मी दुर्योधन के हाथ लगेगा। केशव के मन में एक विचार ये भी आया कि कुन्तीपुत्रों में से एक बचा है अभी, जो धर्मतः पांडु का पुत्र है, अतिरथी कर्ण, युधिष्ठिर की तरह ही धर्मपरायण और भीम व अर्जुन की तरह महावीर। परन्तु वह तो दुर्योधन का अनुगत है। किसी धर्मात्मा का अधर्मी का अनुगत होना, विडम्बना ही है।
सोचते-सोचते रात्रिविश्राम का समय हो आया, कि उन्हें कुछ व्यक्तियों की पदचाप सुनाई दी। मित्र उद्धव और सात्यकि तो नहीं होंगे ये, फिर इस समय? इनमें तो स्त्रीस्वर भी है। उन्होंने जब तक अपना उत्तरीय और मुकुट पहना, दुर्योधन अपनी पत्नी तथा कुछ मित्रों सहित कक्ष में प्रवेश कर गया।
प्रसन्न स्मित से बोला, "कृष्ण, आज देवी गौरीपूजा कर रही हैं, हम तुम्हें लिवाने आये हैं"।
कृष्ण अचंभित होकर पूछते हैं, "इस समय गौरी पूजा? कोई विशेष कारण युवराज?"
देवी भानुमति स्वयं उत्तर देती हैं, "नहीं कान्हा, विशेष कुछ नहीं, ये तो मैं आर्यपुत्र के लिए नित्य ही करती हूं, पर शोक अवधि के कारण नितांत व्यक्तिगत ही था ये सब। पर अब तो समय बीत चुका है। हम चाहते हैं कि इसे पूर्ण उल्लास से मनाए। नाचे-गाये, ये अपशगुनी सन्नाटा खत्म भी तो हो। चलो ना कान्हा।" यह बोलते हुए उन्होंने कृष्ण की कोहनी पकड़ ली, और साधिकार दरवाजे की तरफ पग बढ़ाये। यूँ किसी परपुरुष का स्पर्श कुरु-परम्परा में अक्षम्य अपराध था, पर कदाचित भानुमति इन परम्पराओं को तोड़ने ही हस्तिनापुर आई थी।
कृष्ण ने सस्नेह मना करते हुए कहा, "नहीं देवी, मैं क्लांत हूँ, इस मनस्थिति में नहीं कि किसी समारोह में आप लोगों का साथ दे सकूं"। भानुमति किसी बच्ची की तरह मचल गई, पैर पटकते हुए बोली कि उन्हें चलना ही होगा। उसने इतना आयोजन किया ही किसके लिए है? कृष्ण बालहठ को कब तक टालते, साथ हो लिए।
गौरीपूजा का आयोजन निकट के एक उद्यान में था। माता काली की दयालु प्रतिमा के सम्मुख कुछ दीपक रखे हुए हैं जिनमें सुगन्धित तेल जल रहा है, और सामने एक विशाल पात्र में मदिरा भरी पड़ी है। कृष्ण दुर्योधन, विकर्ण, युयुत्सु इत्यादि के साथ आरती पूजा में भाग लेते हैं। फिर दुर्योधन उन्हें अपने साथ भूमि पर बिछे मुलायम आसन पर बिठा लेता है। भानुमति पूछती है, "कान्हा, आपकी बंसी कहा है? उसे बजाइये ना। हम सभी की ये इच्छा पूर्ण करेंगे ना आप?"
राधा की याद करते हुए कृष्ण बोले, "नहीं युवराज्ञी, मेरी वह बंसी तो वहीं वृंदावन में रह गई। उसके बाद मैंने जब भी बंसी बजाई, ना उससे वो स्वर निकले ना मुझे ही कोई आनन्द आया। पर आपको इतना कुछ कैसे पता?"
"मुझे सब पता है। जब आप कालयवन और जरासंघ से बचकर द्वारका गए तो आपके कितने ही चारण हमारी काशी में नौकर हुए। उन्होंने आपकी सारी पोलपट्टी खोल दी माधव। क्या आप सच में आज बंसी नहीं बजायेंगे? बाल्यकाल से ही मेरी कितनी इच्छा थी कि आपकी बंसी सुनूँगी, आपके साथ नृत्य करूंगी। आह, कितना अच्छा होता जो मैं आपकी गोपी होती।"
कृष्ण को लगा कि कहीं ये बातें दुर्योधन को बुरी तो नहीं लग रही, "आप युवराज्ञी हैं, कभी साम्राज्ञी बनेंगी। अपनी पत्नी को सम्भालिए युवराज, ये तो इस ग्वाले की गोपी बनना चाहती हैं।"
"मैं क्या करूँ कृष्ण, तुम जबसे यहां आए हो, इसने मेरे कान खा दिए हैं। आज ये कुछ भी बोले, तुम दोनों आपस में समझो, मुझे बीच में मत घसीटो", वारुणी का एक पात्र खत्म करता हुआ दुर्योधन बोला।
भानुमति ने टोकते हुए कहा, "अब आप चुप रहिए, आज कान्हा से केवल मैं बात करूंगी। अच्छा कान्हा, आर्यपुत्र कह रहे थे कि कहीं ये मदिरा कम ना पड़ जाए, क्या आप सब पी पाएंगे?"
सत्रह वर्षीय युवती है या सात वर्षीय बालिका, कितना भोलापन है इसमें, "युवराज्ञी, हालांकि अब यादव भी सुरापान करने लगे हैं, परन्तु यदि ये दूध होता तो मैं सारा ही पी जाता"।
फिर थोड़े समय पश्चात गीत नृत्य होते रहे। भानुमति और उसकी सखियों ने बहुत ही उन्नत नृत्य किया। युवक-युवती जोड़े में भी नृत्य कर रहे थे। कुछ पद दुर्योधन और दुःशासन भी नाचे, पर मुख्यतः वे मदिरापान ही करते रहे। ज्यों-ज्यों रात्रि बीतने लगी, लोग मदिरा का पान ज्यादा करने लगे। भानुमति कभी-कभी एकाध प्याला कृष्ण के होंठों पर लगा देती, और कृष्ण कहीं बच्ची का नाजुक हृदय बुरा ना मान जाए, होंठो से उसे छूआ भर देते।
कुछ दीपक बुझा दिए गए, चषकों की आवृत्ति बढ़ती गई, नृत्य तीव्रतम होता गया और जोड़ों के बीच शारीरिक दूरी कम होती गई। कृष्ण को समझ आ गया कि अब ये दैवी अनुष्ठान नहीं, अपितु वासना का नाच हो रहा है। उन्हें ये भी समझ आ रहा है कि दुष्ट दुर्योधन ने उनकी मित्रता पाने के लिए अपनी भोली पत्नी का उपयोग किया है। भानुमति की उनके प्रति श्रद्धा का इतना छिछोरा प्रयोग। छि, जो व्यक्ति अपनी पत्नी को इस स्थिति में डाल किसी अन्य पुरुष की मित्रता का अभिलाषी हो, वो कापुरुष है।
प्रायः अंधकार हो गया है और जोड़े एकदूसरे की बाहों में झूल नशे में उन्मत्त हो इधर-उधर गिर पड़े हैं। निकट ही उन्हें दुर्योधन की फुसफुसाहट सुनाई देती हैं। आवाज से ही स्पष्ट होता है कि उसके अंक में भानुमति नहीं कोई और स्त्री है। तभी उनके ऊपर एक नारी शरीर गिरता है जो उनके होंठो की और प्याला बढ़ाते हुए कर रहा है, "कान्हा, मैं तुम्हारी गोपी हूँ कान्हा, ये प्याला लो और मेरे साथ नृत्य करो, आओ उठो ना। मुझे वृंदावन ले चलो माधव, मेरा दम घुटता है यहां। बोलो, ले चलोगे ना"। और भी कुछ अस्पष्ट शब्द बोलते हुए भानुमति मूर्छित हो जाती है।
हा, यह नारी रत्न क्या यूँही इस दुष्ट दुर्योधन के साथ नष्ट हो जाएगी। खिन्न हृदय केशव सोचते हैं कि अब यहां से चला जाये, परन्तु इन मद्यपों, व्याभिचारियों के मध्य इस बालिका को कैसे छोड़ दें। इसे इसकी सास के पास छोड़ना उचित होगा, ऐसा विचार कर वे उसे अपनी गोद में उठा आगे बढ़ते हैं। वो नशे और थकान में निरंतर कान्हा, गोपी, वृंदावन, बंसी, नृत्य बोलती है और रह-रह कर मचल जाती है। कृष्ण ने अपनी बलिष्ठ भुजाओं में उसे जकड़ रखा है। उद्यान से निकलने पर, प्रकाश मिलने पर वे उसके कपड़े ठीक करते हैं और गांधारी के दरवाजे जा पहुंचते हैं।
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अजीत प्रताप सिंह
वाराणसी
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