एकता दिवश...
BY Anonymous2 Nov 2017 2:57 AM GMT

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Anonymous2 Nov 2017 2:57 AM GMT
संभव है कि आप मेरी बातों से सहमत नहीं हों, पर यह सच है कि सत्ता के षड्यंत्र अबूझ होते हैं। कई बार इतने अबूझ कि जनता युगों तक समझ नहीं पाती कि उसका किस तरह भावनात्मक शोषण हो रहा है।
आजादी के बाद देश मे नई ऊर्जा भरी थी। सन ग्यारह सौ बानबे में गुलाम हुआ देश साढ़े आठ सौ बर्षों बाद आजाद हुआ था। मासूम और सहज लोगों में जीत की खुशी और जीत के बाद की सहज सहिष्णुता भरी हुई थी। पर सत्ता की प्रणाली लोकतंत्र थी, जिसमें हर पांच साल बाद किस्मत तय होनी थी। अब सत्ता को एक ऐसा चेहरा चाहिए था, जिसकी आभा से मस्त हुई जनता लम्बे तय समय भावनात्मक रूप से जुड़ी रहे।
सत्ता को इस काम के लिए सबसे उपयुक्त चेहरा दिखा गांधी का। दुबला-पतला, लँगोटी पहने फकीर जैसा बूढ़ा, तात्कालिक भारत की दरिद्रता का प्रतिनिधित्व करता आदमी, जो उस समय के हर व्यक्ति को अपने जैसा लगता था। भारतीय जनमानस के हिसाब से सबसे उपयुक्त चेहरा। ऊपर से हत्या हो जाने के कारण पक्ष में सहानुभूति की लहर भी थी।
सत्ता ने गांधी को मोहरा बनाया। अगले पांच वर्षों में उन्हें आजादी का सारा श्रेय दे दिया गया। जनता को बताया गया कि आजादी गांधी बाबा की लाठी के दम पर ही आयी। जनता मस्त, गांधी की भक्त हो गयी। अब गांधी मने कांग्रेस, सो गांधी के नाम की फसल कटने लगी। फसल खूब कटी, बीसों साल तक कटी। इतनी कटी कि गांधी के चरित्र का खून तक सुई से खींच लिया गया। तब तक कटी, जब तक गांधी की सारी सहानुभूति समाप्त न हो गयी। बीस बर्षों में गांधी का ग्लैमर समाप्त हो गया। अब सत्ता को एक नया चेहरा चाहिए था, जो लोकप्रियता में गांधी की जगह ले सके। जिसकी आभा में मस्त हुई जनता लम्बे समय तक फंसी रहे।
सत्ता ने नजर दौड़ाई तो दलितों की बड़ी जनसंख्या दिखी। अचानक सत्ता को अम्बेडकर याद आये, लगा कि इस व्यक्ति की आभा में देश की बीस फीसदी से अधिक आबादी लम्बे समय तक फंसी रह सकती है। फिर क्या था, अम्बेडकर के चरित्र को उभारा जाने लगा। भरोषा नहीं होता तो आजादी के बाद के बीस वर्षों तक अम्बेडकर के प्रभाव और इंदिरा जी के बाद अम्बेडकर के प्रभाव की तुलना कर लीजिए। संबिधान सभा के अंदर बनी चौदह कमिटियों में से एक "प्रारूप समिति" के अध्यक्ष भीमराव को संबिधान का निर्माता घोषित किया गया। जनता तो यहां तक बताया गया कि अम्बेडकर नहीं होते तो संबिधान बनता ही नहीं। देश मे किसी अन्य के पास इतनी योग्यता ही नहीं थी कि संबिधान बना सके। लोग भूल गए कि संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र बाबू थे।
देश की कुछ जातियों को बताया गया कि तुम दलित हो, अम्बेडकर ने ही तुम्हे दले जाने से बचाया है। जनता धन्य धन्य कर उठी, भूल गई कि मुगलों द्वारा सर पर मैला ढुलवाने की प्रथा के विरोध में अम्बेडकर ने नहीं, बल्कि गांधी ने अपने सर पर मैला उठाया था,औऱ तब वह घृणित परम्परा टूटी थी। लोग विवेकानंद, स्वामी दयानंद जैसे लोगों के योगदान भूल गए।
सत्ता ने अब अम्बेडकर को कैश करना प्रारम्भ किया। खूब किया।
पर यहां पत्ता तनिक हाथ से फिसल गया। अम्बेडकर को दूसरे अपने खेमे में ले कर चले गए। दूसरे की बोई फसल दूसरे के खलिहान में चली गयी।
देश की केंद्रीय सत्ता फिर अनाथ थी।
भरोसा नहीं होता तो मायावती के उत्थान के बाद की उठापटक देखिये। छः छः महीने वाली सरकारें, अनेक दलों की साझी सरकारें। देश डोल रहा था।
फिर राष्ट्रवाद का दौर आया। अब कोई चेहरा तो नहीं था, राष्ट्र को सबसे ऊपर मानने वाली विचारधारा थी। देश दो तरफ बंट गया। एक तरफ राष्ट्रवाद था, तो दूसरी तरफ वालों ने इसकी काट निकाली- धर्मनिरपेक्षता। दोनों तरफ का द्वंद चल रहा है, पर सत्ता को तो स्थायित्व चाहिए। और स्थायित्व के लिए चाहिए एक चेहरा, जिसकी आभा में फंसी जनता लम्बे समय तक साथ खड़ी रहे।
अचानक सत्ता को पटेल याद आये। लौह पुरुष पटेल राष्ट्रवाद के खांचे में फिट होते हैं।
जनता को समझाया जा रहा है कि पटेल नहीं होते तो देशी रियासतों का भारत मे विलय नहीं होता। जनता को याद नहीं है कि पाकिस्तान के इलाके की देशी रियासतें बिना किसी पटेल के ही पाकिस्तान में विलीन हो गईं थी।
सत्ता के षड्यंत्र सचमुच अबूझ होते हैं।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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