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भोजपुरी कहानिया

"देहाती इश्क"...............: संदीप तिवारी 'अनगढ़'

देहाती इश्क...............: संदीप तिवारी अनगढ़
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सुनो !
गर मैं ये बोलूँ कि तुम मेरी भुट्टा हो और मैं तुम्हारा चटक नमक तो मेरे इश्क की तौहीनी तो नहीं ?
नहीं नहीं ! ये ही तो इश्क है...कुछ निश्छल सा, कुछ लापरवाह सा...अरे हाँ हाँ कुछ देहाती सा ...!
मेरे बचपन के दिनों की वो गुलाबी सुगंध हो तुम जिसके पीछे न जाने कितने खेतों की मुंडेर पर धूनी रमाई है !
जेठ के दिनों में सुखी जबान को दूर कहीं दिखता मीठे पानी का भ्रम हो तुम....बरसाती धूप में तपी मिट्टी की सोंधी खुश्बू हो तुम...अरे हाँ हाँ ठंडई वाली अलाव(आग) भी तो तुम ही हो ?

तुम दूर से आती वो साइकल एवं छागल (पायल) मिश्रित आवाज़ हो जो मुझे आज भी अभाषित करता है विंधाचल काका द्वारा काकी को साइकल के पिछले सीट पर बैठाकर उनके नइहर (मायका) ले जाने की ।

अरे हम तो तुमको उस नई नौहर कनिया (बहुरिया) के गौने की गुलाबी साड़ी में ढूंढते हैं जिसके गंध भर से रमेश भइया ,भौजाई के जवानी वाला प्रेम में डूब जाते हैं ।

सोचते तो हैं कि ये सब हम भी करें...
साइकल के पिछले सीट पर बैठाकर तुमको तुम्हारे नइहर ले जाएं...., माई के लिये साड़ी किनते (खरीदते) वक्त चुपके से एक तुम्हारे लिये भी साड़ी किन लें....,जाड़े की धूप में तुम्हारे साथ बैठ के धूप कम तुमको ज्यादा सेंके...., तुम हमारे लिये छठ का निर्जला व्रत रखो और हम तुम्हारे फ़िकर में गर्म चाय बना अपने हाथों से पिलायें...., तुम लिट्टी बनाओ हम चोखा बनायें...
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पर जो हम सोचते हैं वो कहाँ होता.., अब हम शहरी जो हो गये हैं...भाग दौड़ की जिंदगी ने
सुकून छीना तो नौकरी ने समय..., धूल-धुआँ और इस वेल कल्चर्ड सोसाइटी के पानी ने कमर की माप को 32 से 28 कर दिया पर क्या करें..? मजबूरी नामक कनिया से बियाह जो कर लिया है !

खैर तुम बुझ रही हो न ?
हमारे और हमारे देहाती इश्क को ??
देखो हम आउटडेटेड हो सकते हैं पर शोबाजी नहीं हमारी मोहब्बत में...हमारी मोहबत तो हमर गंगा जी निहन शुद्ध पवित्र, निर्मल है...कोई मिलावट नहीं...!

देखो तुम समझ रही हो न ???


संदीप तिवारी 'अनगढ़'
"आरा"
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