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जो फिल्म बना रहा है उसका जोखिम लेना तो समझ में आता है लेकिन आप क्यों लें जोखिम भला फोकट में...
BY Anonymous26 Jan 2018 1:31 AM GMT
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Anonymous26 Jan 2018 1:31 AM GMT
पिछले वर्ष जब उत्तर भारत में साप्ताहिक भूकम्प के झटके आये थे उस वक्त लोगों के भीतर भूकंप का भय इस कदर घुस गया था कि लोग भूकंप का हल्ला सुनते ही घर, मॉल, दुकान स्कूल छोड़कर मैदान में खड़े हो जाते यहाँ तक कि आपदा प्रबंधन के विशेषज्ञ भी भरी लेक्चर रूम से छलांग लगाकर खुले मैदान में खड़े हो गये...वो बिल्डिंग डोलते वक्त यह भूल गये कि वह जिस बिल्डिंग पर खड़े होकर लेक्चर दे रहें हैं वो भूकंपरोधी है।
ठीक भी है, आदमी अनावश्यक क्यों उठाये जोखिम! जब सब भागकर जान बचा रहें हैं तो आप ही क्यों तीसमारखां बनें.... सच तो यह है कि कोई भी आदमी फोकट में जोख़िम उठाने से बचता है...
ऐसा भी नहीं कि लोग अपने जीवन में जोखिम नहीं उठाते...
उठाते हैं! अपने अच्छे करियर के लिये, अपने सुनहरे भविष्य के लिये, भीड़ से निकलकर आगे बढ़ने के लिये...
जिंदगी में ऐसे बहुत से मौक़े आपके सामने आकार आपको चुनौती देते हैं कि आप तुरंत जोख़िम लेकर आगे बढ़े एवं किसी की जान बचायें.. किसी को दुर्घटना से बचायें..
किसी बिल्डिंग में आग लगी हो और वहां कोई अपना या बेबस फंसा हो तो उसे बचाने के लिए आग में कूदा जा सकता है...थोड़ा झुलसा जा सकता है...लेकिन यदि उसमें आपकी चप्पल छूट जाये तो उसके लिये क्या जोखिम लेना.. ऊफनती नदी में नाव पर चढ़कर इसलिए पार किया जा सकता है कि कोई अपना बीमार हो और उसे अस्पताल पहुंचाना हो...अब भुट्टा तोड़ने के लिये ऐसे जोखिम लेना बेवकूफी ही है..
समाज में बहुत से लोग जोखिम लेकर आगे बढ़े हैं कुछ ऐसे भी थे जो बाढ़ मे किनारे खड़े होकर सेल्फी लेने के चक्कर में बाढ़ के गिरफ्त में आ गये। मैं कहता हूँ कि एक सेल्फी के लिये इतना क्या जोखिम भला! अब चलती ट्रेन पर चढ़ने और उतरने वाले बहुत हैं लेकिन कभी-कभी पांव भी फंस जाता है... इसलिए ऐसे जोखिम से बचना चाहिए जिसमें मिले केवल बतासे जितना लेकिन फँस जायें तो जीवनभर का पछ्तावा...
एक सच्चा किस्सा सुनाता हू-
हमारे शहर में एक सर्कस लगा था सर्कस में एक भालू था भालू कलाबाज था.. उसकी कलाबाज़ी में एक खेल यह था कि सर्कस से हर शो में यह एनाउंस होता कि जो इस भालू से कुश्ती में जीत जायेगा उसे पचास हज़ार का नगद पुरस्कार.. अब कौन ले ऐसा जोख़िम भला! महीनों तक इस चुनौती को किसी ने माथे नहीं लगाया... लेकिन धरती शूरवीरों से खाली भी नहीं। एक दिन एक महाशय अपनी पत्नी का हाथ छुड़ाकर खड़े हो गये और लगे ललकारने एनाउन्सर को.. हांलाकि उनकी पत्नी दसियों बार इनका हाथ खींचकर कुर्सी पर बैठाना चाहीं लेकिन इनको तो बीबी के सामने बेताल बनने का नशा सवार था सो हाथ झटककर आगे बढ़ लिये.. पूरा दर्शकदीर्घा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगा.. जब तालियों की गड़गड़ाहट शंखनाद की तरह पत्नी के कानों में घुसी उस वक्त वह भी भावना में बहकर.. तालियाँ बजाने लगीं....लेकिन तालियाँ तभी तक बज पायीं जब तक वह भालू से दूर थे.. भालू के आगोश में आते ही जनता में चिग्घाड़ मच गई.. पत्नी को कुर्सी पर बैठे-बैठे दांत लग गया... भैया एम्बुलेंस पर बिठाकर सर्कस से निकाले गये...॥
खैर! अब जो फिल्म बना रहा है उसका जोखिम लेना तो समझ में आता है चलिए लह गया तो सौ दो सौ करोड़ अन्दर.. टॉकीज वाला भी इसलिए जोखिम उठायेगा कि एक दो हफ्ता भी तान दिये तो दो-चार लाख मुट्ठी में... पॉपकॉर्न वाला भी ढहते-ढिमलाते दस हज़ार लेकर बाहर... लेकिन आप क्यों लें जोखिम भला फोकट में... मिलना जुलना चवन्नी नहीं, अपनी जेब भी ढ़ीली और पूरे तीन घंटे खौफ़ अलग..यह भी कोई पिक्चर है भला! जिसमें एक नजर पर्दे पर और दूसरी प्रवेश द्वार पर.. घोड़े की टॉप और बाहर से आती भीड़ की आवाज़ में आप फर्क ही न कर पायें...बराबर धुकधुकी बनी रहे... ऐसी भी क्या आफत कि जलते तवे पर बैठकर पिक्चर देखी जाये... इससे तो लाख गुना बेहतर सूर्यवंशम है...
वैसे मुझे मालूम है कि कुछ लोग मनोरंजन में भी जोखिम पसंद करते हैं और ऐसे ही लोग जल्लीकट्टू में साड़ को लाल कपड़ा दिखाते हैं.. खैर जिनकों सींघों पर उड़ने का शौक है उनको क्या कहा जाये... वो तो जायेंगे ही..
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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