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भोजपुरी कहानिया

बाबूजी की वापसी

बाबूजी की वापसी
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चितरंजन शर्मा आधुनिक युग के श्रवण कुमार थे. उनकी माता जी बचपन में ही स्वर्ग सिधार गयी थी. तब वे इतने छोटे थे, कि उन्हें अपनी माँ की कोई बात याद ही नहीं. मातृहीन चितरंजन शर्मा को उनके पिता का भरपूर प्रेम मिला था.
चितरंजन बाबू पढ़-लिख गये तो उनके पिता ने जुगाड़ लगा कर उन्हें म्युनिसिपैलिटी में बाबू लगवा दिया. अब चितरंजन शर्मा चितरंजन बाबू कहे जाने लगे थे. चितरंजन बाबू की तनखाह और पिता जी की पेंशन मिला कर घर की आमदनी ठीक-ठाक हो गयी थी. समय के साथ चितरंजन बाबू का व्याह भी हुआ और बच्चे भी, लेकिन चितरंजन बाबू की दुनियां उनके पिता जी के ही इर्द-गिर्द सिमटी थी. सारी दुनियां एक तरफ, और चितरंजन बाबू के पिता जी एक तरफ. चितरंजन बाबू अपने पिता की ही नींद सोते और उन्हीं की नींद जागते थे.
आया है सो जायेगा, राजा, रंक, फ़कीर. एक दिन चितरंजन बाबू के पिता भी स्वर्ग सिधारे. चितरंजन बाबू के लिये यह बहुत बड़ा सदमा था. वैसे चितरंजन बाबू के पिताजी का निधन असामयिक नहीं था और न तो ऐसा ही हुआ कि वे अचानक साथ छोड़ गये हों। अपनी सभी जिम्मेदारियों का पूर्णरूपेण निर्वहन करने के उपरांत अठहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण करके उनके पिता जी यह दुनिया छोड़कर परलोक सिधारे थे। किन्तु चितरंजन बाबू को उनकी कमी बहुत खलती थे. पिताजी का देहवसान हुए आठ महीने पूरे होने को आये लेकिन अभी भी चितरंजन बाबू की हर बात में पिताजी की कमी का जिक्र जरूर रहता. ऐसा कभी न हुआ कि अपने पिता की बातें करते चितरंजन बाबू की आँखें दिन में दो तीन बार डबडबाई न हों या गला न भर्राया हो।
चितरंजन बाबू को यह शिकायत बनी ही रही कि ईश्वर ने उनके पिता के बेवजह इतनी जल्दी उनसे अलग कर दिया. चितरंजन बाबू एक सात्विक व्यक्ति थे और सुबह बिना पूजा किये मुंह में पानी तक नहीं डालते थे, लेकिन अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी आस्था कुछ डिग सी गयी थी. अब उनकी पूजा ईश्वर से एक शिकायत बन कर रह गयी थी.
चितरंजन बाबू का जन्मदिन था. आज उन्हें अपने पिता की बहुत याद आ रही थी. पार्टी-वार्टी तो खैर वे करते नहीं थे, किन्तु बचपन से ही उनके पिटा उनके जन्मदिन पर विष्णु-मंदिर ले जा कर दर्शन अवश्य कराते थे. चितरंजन बाबू ने आज भी अपने बचपन से चली आ रही परम्परा का निएवाह किया किन्तु ऐसे जैसे विष्णु भगवान् पर एहसान कर रहे हों कि देखो भगवान्! तुमने मेरे पिता को छीन लिया लेकिन फिर भी मैंने तुम्हारे मंदिर आना नहीं छोड़ा. मूरत के दर्शन करते समय भी उनकी मानसिकता कुछ ऐसी ही थी कि अगर इस दरबार से ऊपर भी कोई अदालत होती तो वे उस अदालत में भगवान् के खिलाफ एक मुकदमा जरूर दायर करते.
पत्नी और बच्चे खा-पी कर सो गये लेकिन चितरंजन बाबू की आँखों में नींद न थी. उन्हें अपने पिता के साथ बिताये दिन बेतरह याद आ रहे थे. अपनी यादों में वे आज एक बार फिर अपने पिता के साथ बिताये दिनों को एक – एक कर जीते जा रहे थे, और हर याद के साथ ईश्वर के साथ उनकी शिकायत बढ़ती ही जा रही थी. रह-रह कर उनकी आँखें डबडबा आती थीं और चितरंजन बाबू अपने तकिये में मुंह छुपा कर छलकते आंसुओं को तकिये की रुई में सुखा देते थे. उनकी पत्नी और बच्चे बगल में ही सोये थे और चितरंजन बाबू बार-बार उनकी और देख कर आश्वस्त हो लेते थे कि उनकी यह दशा कोई जान-समझ न ले. जाड़े की रात वैसे भी लम्बी होती है, मगर आज की रात कुछ ज्यादा ही लम्बी थी. चितरंजन बाबू ने दीवार घड़ी की और निगाह डाली. सुबह के साढ़े तीन बजने वाले थे. उनके मुंह से एक आह के साथ निकला – 'क्या भगवान्? इतनी भी क्या जल्दी थी?" चितरंजन बाबू इसी सोच में डूबे थे कि रात भर के जगे चितरंजन बाबू को एक झपकी सी आ गई.
चितरंजन बाबू को लगा कि कोई उन्हें जगा रहा है. एक व्यक्ति उन्हें हिला रहा था लेकिन उनके मुंह से कोई बोल न फूटे. उस व्यक्ति ने चितरंजन बाबू का हाथ पकड़ा और अपने होठों पर उंगली रख कर चुप रहने और उन्हें अपने साथ आने का इशारा किया. उनको यह आभास हुआ कि कोई अदृश्य सी शक्ति उनको विवश कर रही है. वे चाह कर भी कोई विरोध न कर पाये. चितरंजन बाबू चुपचाप बिल्कुल शक्तिहीन से ऐसे उसके साथ चल पड़े जैसे किसी बछड़े के पीछे-पीछे गाय.
कुछ ही देर में चिरंतन बाबू एक ऐसे लोक में पहुंच गये जहाँ का दृश्य विचित्र था. चितरंजन बाबू अभी कुछ समझ पाते कि एक दिव्य प्रकाश आलोकित हुआ. चितरंजन बाबू की आंखें चुधियाने लगीं. अभी वो कुछ समझ पाते तभी उस प्रकाश पुंज से एक आवाज़ प्रस्फुटित हुई और एक परलौकिक स्वर गूंजा "वत्स मैं आठ माह से देख रहा हूँ कि तुम अपने पिता को बहुत याद कर रहे हो. पिता का मोह तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रहा. तुम्हें ईश्वर से भी शिकायतें हैं कि तुम्हारे पिता को बेवजह इतनी जल्दी तुमसे अलग कर दिया गया. अतः मैंने तुम्हारे पिता को पुनः धरती पर भेजने का निश्चय किया है और अब वे तुम्हारे साथ तब तक रह सकेंगे जब तक तुम स्वयं उन्हें धरती से विदा करने को तैयार नहीं हो जाते. तुम अपने पिता की सेवा और सानिध्य में जब तक चाहो, रह सकते हो.
चितरंजन बाबू खुश तो बहुत हुये लेकिन उन्हें शंका अवश्य थी. चितरंजन बाबू ने चौंककर पूछा कि यह भला कैसे सम्भव है? कोई व्यक्ति दुनिया से जाने के बाद फिर दुनिया में वापस कैसे लौट सकता है?" उस दिव्य प्रकाश से उत्तर आया - वत्स! संभव और असंभव शब्द तुम्हारे लिये सृजित हैं, मेरे लिये नहीं. प्रकृति की प्रत्येक घटना पर मेरा नियंत्रण है चाहें वह तुम्हारे पिता का जीवनदान ही क्यों न हो. निर्णय लो वत्स! क्या मंशा है तुम्हारी?
चितरंजन बाबू को क्या निर्णय लेना था? वे तो तैयार बैठे थे. बोले " प्रभु! आप जो भी हों, आपकी महती कृपा होगी. मेरे लिए इससे बढ़कर क्या है कि मेरे बाबूजी मेरे साथ होंगे? यदि यह संभव है तो आप मेरे बाबूजी को फिर से धरती पर भेज दें." उस दिव्य-प्रकाश से पुनः आवाज आयी – "किन्तु यह निर्णय तुम अकेले नहीं ले सकते! यह धरती के लिये एक बहुत बड़ी घटना होगी. यदि तुम अपने बाबूजी को लेकर अचानक अपने घर पंहुच जाओ तो अपनी पत्नी और अपने बच्चों को यह विश्वास कैसे दिलाओगे की तुम्हारे बाबूजी दुबारा लौट आये हैं? अतः मैं तुम्हें चौबीस घंटे का वक्त देता हूँ कि तुम आपनी पत्नी और परिवार को विश्वास दिलाओ कि तुम्हारे बाबूजी पुनः वापस लौटने वाले हैं. कहीं ऐसा न हो कि तुम बाबूजी को घर लेकर लौटो तो कोई उन्हें देखकर न तो विश्वास ही करे और न तो स्वीकार ही कर सके. फिर वह एक विषम परिस्थिति हो जायेगी अतः इन चौबीस घंटों में तुम स्वयं को, अपने परिवार को और अपने समाज को ठीक से समझा लो. वत्स! मैं कल इसी समय तुम्हें पुनः बुलाऊंगा. अब जाओ!
चितरंजन बाबू की झपकी टूटी तो जाड़े में भी वो पसीने से लथपथ थे. धड़कने तेज थीं और उनका पूरा शरीर कांप रहा था. हल्के ज्वर से शरीर गर्म हो गया था..पूरा दृश्य अभी भी मस्तिष्क पर दौड़ रहा था। स्वप्न इतना दिव्य और स्पष्ट था कि उसे स्वप्न कहना खुद से झूठ बोलना था।

सुबह के चार बज रहे थे कमरे के भीतर चितरंजन बाबू की सांसे इतनी तीव्र थीं कि उस शान्त कक्ष में उनके श्वास चलने की तीव्र ध्वनि ने श्रीमती जी की निद्रा में व्यवधान उत्पन्न कर दिया। वो चौंक कर बिस्तर पर बैठ गयीं और घबराकर पूछीं "क्या बात है? आपकी सांसे इतनी तेज क्यों? .. कोई परेशानी है आपको! कहीं ब्लडप्रेशर तो नहीं न बढ़ गया!"
श्रीमतीजी के प्रेम मिश्रित प्रश्नों पर भी चितरंजन बाबू अपना सिर घूमाकर उनकी तरफ देखे लेकिन कंठ से शब्द एक भी न फूटे..सिर्फ़ उनसे पीने के लिए पानी मांगा वह भी इशारे से। श्रीमतीजी जी दौड़कर रसोईघर में गयीं और अविलम्ब एक गिलास पानी लेकर लौटीं। तब तक चितरंजन बाबू बिस्तर पर बैठ चुके थे। उन्होंने अपनी श्रीमतीजी के हाथों से गिलास थामा और श्रीमतीजी ने अपने दूसरे हाथ से उनका माथा स्पर्श करके अपनी चिंता और प्रेम को सूचित किया।

"मधु! एक विचित्र सा स्वप्न देखा मैंने। नहीं-नहीं वह स्वप्न बिल्कुल भी नहीं था। यदि वो स्वप्न था तो सत्य कैसा होता है। वो बिल्कुल सत्य ही था। मैं उसको सिर्फ इसलिए स्वप्न कह दूं कि मैंने उसे नींद में देखा! वो बिल्कुल सच था मधु बिल्कुल सच! स्वप्न तो छूकर नहीं था"

"क्या बड़बड़ा रहें हैं" मधु ने उनके कंधों को झकझोरते हुए तीव्र स्वर में चीखीं..

चितरंजन बाबू झकझोरने पर पूरी तरह जग गये लेकिन वो स्वप्न वाला सच अभी भी उनको मुट्ठी में कैद किये था। वो मधु का कन्धे को जोर से पकड़कर बोले "मुझे पता है कि तुम विश्वास नहीं करोगी लेकिन अभी एक घंटे पहले मैं तुम्हारे बगल में नहीं था"
"बगल में नहीं थे! क्या मतलब है आपका ?"

"मधु! मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ...जब मैं नींद में था तो कोई एक दिव्य शक्ति मेरी उंगलियों को पकड़कर किसी तीसरी दुनिया में में लेकर चली गई थी। वहाँ का दृश्य बहुत आलौकिक था और फिर चितरंजन बाबू ने एक ही सांस में पूरी घटना और वार्तालाप को श्रीमतीजी तक प्रेषित कर उनको स्वप्न का साझीदार बना लिया। अब वो पहले से कुछ हल्का महसूस कर रहे थे।

श्रीमती जी को सहसा पूरी बात पर विश्वास न हुआ लेकिन चितरंजन बाबू का व्यक्तित्व और आचरण आज तक ऐसा नहीं रहा कि उनकी इतनी गंभीर बात को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा सके। उन्होंने उनकी बात को पूरी तरह खारिज तो नहीं किया लेकिन पूरी सहजता से स्वीकार भी न कर सकीं

फिर भी श्रीमतीजी ने विस्मय भरी आवाज़ में पूछा " बताईये! यह कैसे संभव है भला"

चितरंजन बाबू धीरे से बोले "मुझे पता था कि तुम यकीन नहीं करोगी इसलिए प्रभु ने बाबूजी को मेरे साथ नहीं भेजा। प्रभु ने मुझे सिर्फ इसलिए चौबीस घंटे का वक्त दिया कि मैं कि पहले तुमको विश्वास में ले लूं तब बाबूजी को लेकर घर में प्रवेश करूँ।"

मधु को विश्वास दिलाना इतना आसान नहीं था लेकिन चितरंजन बाबू की व्यग्रता और विश्वास पर खुद को तैयार कर लीं
"मधु ने एक गहरी सांस ली और कहा.... "मुझे दो-चार घंटे वक्त दीजिए रात में आपसे बात करती हूँ"

"अरे! इसमें सोचना भी क्या यार!" चितरंजन बाबू आश्चर्य के साथ चौंके।

"ठीक है रात में विचार किया जायेगा... मधु नें उनके हथेलियों पर अपनी हथेली जमाकर कहा।

शाम से रात होने में जैसे सदियों बीत गये। आज तो जैसे बच्चे सोने का नाम ही नहीं ले रहे थे..किसी तरह सभी काम निबटाने के बाद बिस्तर पर चितरंजन बाबू ने अपनी पत्नी से पूछा-
"क्या कह रही हो?"
श्रीमती जी शाल ओढ़े बिस्तर पर बैठीं.. भारी आवाज़ में बोलीं "क्या कहें कुछ समझ में नहीं आ रहा... एक तरफ़ पापाजी के आने की खुशी दूसरी तरफ दुनियाभर की चिन्ता.."

"किस बात की चिन्ता" चितरंजन बाबू बिस्तर पर बैठते हुए बोले

"देखिए! सवाल केवल पापाजी के वापसी का ही नहीं बल्कि उसके साथ बहुत सी परेशानियाँ भी हैं... आपको तो पता ही है कि जब पापाजी गुजरे उस वक्त उनको कितनी बीमारियाँ थी.. पूरा साल खांसते ही गुजरता था.. गठिया, शुगर,ब्लड प्रेशर से तो पिछले पन्द्रह वर्षों से परेशान थे। आप तो आफिस चले जाते थे लेकिन मेरा आधा दिन उन्हीं को खाने-पीने और दवा मे खर्च हो जाता था। अब मेरी भी उमर पचास के लभगभ हो गई मेरे पास भी दुनियाभर की जिम्मेदारियां हो गयीं अब मुझसे भी पहले जैसा काम नहीं सम्हलता। वैसे इस बात की क्या गारंटी कि पापाजी बीमार वाली अवस्था में लौटेंगे या बिल्कुल स्वस्थ्य.. सोचिए! फिर उसी अवस्था में लौटे तो कितनी परेशानी होगी उनको... हम लोग का क्या...कुछ वर्ष और उनकी सेवा में गुजर जायेंगे.. पिताजी का पुण्य और आशीर्वाद मिलेगा।"

"मैं समझता हूँ मधु, कि बाबूजी का सारा जिम्मा तुम्हारे ही माथे था लेकिन सोचा कि तुम्हें बाबूजी का कितना स्नेह प्राप्त था....कितना मानते थे तुमको। घर का कोई निर्णय बिना तुम्हारे अनुमति के नहीं लेते.. अम्मा के गुजरने के बाद मुझसे ज्यादा तुमकों तरजीह देते थे बाबूजी"

"मैंने कब इस बात से इंकार किया! शायद ही ऐसा कोई दिन हो कि मैंने यह महसूस न किया हो कि पापाजी मुझे किसी काम के लिये बुला नहीं रहें। हर वक्त चौंक बनी रहती है कि पापाजी कहीं से आ रहे हैं। यह ठीक है कि आप उनके बेटे हैं लेकिन मैंने भी उनकी सेवा बिल्कुल बेटी की तरह ही की.."
"इस बात से कैसे कोई इंकार करेगा मधु" चितरंजन बाबू मधु का हाथ थामकर मधु की सेवा का सम्मान किया।

"फिर भी मैं आपसे कह रही हूँ कि आपका यह निर्णय जज्बाती है। कल को जब आप समाज में यह बात रखेंगे कि पापाजी फिर वापस आ गये तो क्या कोई विश्वास करेगा.. समाज के ही लोग हम लोगों से कटने लगगे"

अरे! छोड़ो यार, समाज कोई खाने को देता है कि समाज की चिन्ता करें। मुझे फर्क सिर्फ तुम्हारी बात का पड़ता है क्योंकि तुमने उनकी सेवा की है और तुम्हीं को आगे भी करना है। समाज से मुझे कोई लेना-देना नहीं। अब मैं समाज से पूछूँ कि पिताजी को लाऊँ या ना! तुम भी बस" चितरंजन बाबू मधु के इस तर्क पर तल्ख़ी से पेश आये।

मधु कुछ देर शान्त रहकर बोलीं"आपको तो मालूम है कि बाबूजी के कर्म में पूरे डेढ़ लाख रूपये खर्च हुए जिसमें तीस-पैंतीस हज़ार उधार, अभी बापस भी करने हैं.. और हाँ! सबसे जरूरी बात यह कि जब पापाजी वापस लौटेंगे तो उन्हें तो पता न होगा कि वह दुबारा लौटे हैं वो अपनी पुरानी चीजें ढूढेंगे... आपको तो पता है कि वो अपनी किताबों और डायरी से कितना प्रेम करते थे.. अम्मा की दी हुई सभी चीजें अपने अन्तिम वक्त तक सम्हाल कर रखे थे आज जब वापस अपने कमरे में घुसेंगे तो उन्हें कितना आघात लगेगा.. सोचा कभी ? भगवान मेरे बस का नहीं उन्हें समझा पाना.."

"मधु हम समझायें उनको...ऐसा नहीं कि बाबूजी यह समझने का प्रयास नहीं करेंगे"

"क्या- क्या समझायें बताईये? अभी आप भावना में बह रहें हैं... बाबूजी अन्तिम वक्त तक ग्यारह हजार पेंशन पाते थे। उसी से उनका दवा और ईलाज होता था। उसमें से कम से कम सात हज़ार बचाकर घर देते थे। बाबूजी के रहते शायद ही आपने कभी सब्जी खरीदी हो..महीने की आखरी तारीख में बनिया के वहाँ राशन का हिसाब पापाजी करते थे। बहुत बड़ा बल था उनका पेंशन। इस बार जब वो वापस लौटेंगे तो उनके हाथ में केवल एक कुबड़ी होगी... कभी सोचा कि पापाजी जब अपने साढ़े- तीन लाख का हिसाब मांगेंगे तो कैसे देंगे और आपको पता है कि बाबूजी पाई-पाई का हिसाब रखते थे।"
चितरंजन बाबू के चेहरे पर अब चिन्ता की लकीरें स्पष्ट पढ़ी जा सकतीं थीं... "फिर क्या करें बताओ... इस डर से बाबूजी की वापसी के लिए मना कर दें"

"मैं यह नहीं कहती लेकिन इतने बड़े निर्णय को ठंडे दिमाग से सोचना पड़ेगा... सिर्फ उनकी वापसी का ही सवाल नहीं है सवाल यह है कि बाबूजी दुबारा इस परिवार और समाज में खुद को समायोजित कर पायेंगें? क्या परिवार और समाज में जिस आत्मनिर्भरता से रहते थे.. रह पायेंगे ? अपनी दोनों बेटियों को रूपये-पैसे देने के लिये कभी हमारी तरफ नहीं देखा पापाजी ने। खुद अपनी पेंशन से उनको साड़ी-कपड़ा देते थे। आज के बाद जब उनकी इच्छा अपनी बेटियों को कुछ देने को होगी उस वक्त वह खुद को निरीह समझेंगें।"

"तो क्या दीदी और माधुरी नहीं समझेंगी उनकी मजबूरी?"

"समझेंगी! लेकिन मुझको और आपको दोषी समझेंगी। जब आप, पापाजी के स्तर का नहीं कर पायेंगे तब उन्हें लगेगा कि आज उनके बाबूजी के हाथ खाली हैं तो हमारी कीमत घट गई है।"

"आपको मालूम है कि पापाजी का कमरा, पलंग और उनकी आलमारी बच्चों ने अपने कब्ज़े में ले लिया। बच्चे उनके सामनों को अपने ढ़ंग से प्रयोग करने लगे हैं"

"तो क्या? हमारे बच्चे इतने समझदार नहीं कि वो अपने बाबा की कीमत को समझें अरे बच्चे ज्योंही जानेंगे तो खुदबखुद कमरा छोड़़ देंगें। यह सब छोटी बात है" चितरंजन बाबू ने झुंझलाये।"
"तो फिर उस किरायेदार को भी हटाना पड़ेगा वह भी पन्द्रह सौ भाड़ा देता है पन्द्रह सौ महीने का अलग नुकसान.... वैसे यदि बाबूजी की पेंशन मिलती तो बहुत परेशानी नहीं थी लेकिन अब सब खर्चे खुद आपको करने पड़ेंगे... मुझे नहीं लगता कि आपके तनख्वाह के बस में है।" मधु का लहज़ा थोड़ा सख्त था।

"हाँ! परेशानी तो अवश्य बढ़ेगी लेकिन मैं प्रयास करूंगा कुछ बचत का.. बाबूजी की वापसी पर कुछ त्याग तो करना पड़ेगा।"

"देखिए मैं एक बात कहने में संकोच कर रही हूँ"

क्या?

जब आप पिछले दस वर्ष से बाहर पापाजी के साथ उनके कमरे में सोते थे तो मुझे कभी लगा ही नहीं कि मेरा भी कोई वैवाहिक जीवन है। हमेशा अकेले सोने से ऐसा लगता है कि इस घर में मैं केवल एक नौकरानी हूँ। दिल पर हाथ रखकर कहिए कि जब से हम आप बेडरूम में एक साथ सोते हैं कुछ अलग सा नहीं लगता.. ऐसा नहीं लगता कि दिनभर की थकान स्पर्श मात्र से तितली की तरह उड़ जाती है। और दूसरी बात कि पापाजी के गुजरने के बाद जब सोने का बटवारा हुआ उसमें जो चार सोने की चूड़ी मैंने रख ली आपको भी मालूम है कि उसमें से दो चूड़ी बाबूजी दीदी को और दो माधुरी बहीनी के लिये रखे थे। उसकी जानकारी सिर्फ पापाजी को थी। सोचिए! बाबूजी को जब यह पता लगेगा कि उनके मरने के बाद हमने बेईमानी की तो वो जीते जी मर जायेंगे! मैं तो नजर नहीं मिला पाऊंगी...ननदों को क्या जबाब दूंगी.. उसमें जीजाजी तो ताना मारकर हमेशा शर्मिंदा करेंगे आप तो जानते ही हैं जीजाजी का नेचर।

चितरंजन जी ने लम्बी सांस भरी

तो क्या करें बताओ.. केवल चोरी के आरोप के डर से बाबूजी को भुला दें..

"मैंने कब कहा भूला दीजिए लेकिन दुबारा उनकी वापसी इतनी आसान नहीं.. उन्हें दुबारा उसी दुनिया में रखना नामुमकिन सा है"

चितरंजन बाबू सिर झुकाकर सोच में पड़ गये तभी मधु ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा-

देखिए! एक पुत्र के रूप में आपने अपने सभी दायित्वों को निभाया मैने भी एक पुत्रवधू से बढ़कर एक बिटिया की तरह सेवा की। जाते वक्त तक बाबूजी के चेहरे पर यह असंतोष नहीं था कि हमने उनकी सेवा में कोताही की। मैं नहीं चाहती जब दुबारा वह इस दुनिया से विदा लें तो उनके मन पर कोई बोझ हो क्योंकि आप आज भले जज्बाती हो रहें लेकिन जब आपकी जेब पर खर्च बढ़ेगा तो आप झुंझलाये.. बच्चों की कटौती होगी तो वह बाबूजी को दोषी बनायेंगे और मैं यह नहीं चाहती कि बाबूजी यह महसूस करें कि आज मेरे हाथ में पैसा नहीं तो मैं परिवार पर बोझ बना हूँ।
मैं तो कहती हूँ कि प्रभु से क्षमा मांग लिजिये इसी में भलाई और बाबूजी का सम्मान दोनों छिपा है।

तो इसका मतलब की प्रभु से मना कर दें। अरे बाप! कैसे मैं मना करूँगा तुम सोच सकती हो कि यह कितना कठिन है मधु?

मुझे पता है कि आप पापाजी को बहुत प्रेम करते हैं लेकिन आपके प्रेम का वह अर्थ और मूल्य दोनों निर्रथक हो जायेंगे जब वापसी के बाद बाबूजी अपमानित या व्यथित होंगे आप खुद अपने फैसले पर न पछताए तो कहियेगा वैसे अभी भी आपका मन है तो मैं बिल्कुल मना नहीं करती

चितरंजन जी और उनकी श्रीमती जी बातों के अन्तर्द्वन्द्व में ऐसे उलझे कि रात के दो बज गये। चितरंजन बाबू के जेहन में बाबूजी की स्मृतियाँ उनको नींद की थपकी देने लगी तभी उनको एहसास हुआ कि कोई अदृश्य सी शक्ति आज फिर उनकी उंगलियां थाम लीं लेकिन आज उन्हें मालूम था कि वो कहां जा रहे हैं। चितरंजन बाबू धीरे से अपनी अंगुलियाँ उस अदृश्य शक्ति से छुड़ाकर घुटने के बल बैठना चाह रहे थे। वो आगे के दृश्य का सामना नहीं करना नहीं चाह रहे थे। वैसे उंगली छुड़ाना बहुत कठिन था और उससे भी कठिन था आगे बढ़ना लेकिन यह सब बातें उनके वश के बाहर थीं। उनका पूरा शरीर उस अदृश्य शक्ति के नियंत्रण में था लेकिन मस्तिष्क में वही उथलपुथल थी जो श्रीमतीजी से बातचीत के दौरान थी।
कुछ दूर चलने के बाद अचानक उस अदृश्य शक्ति ने उनकी उंगलियों को मुक्त कर दिया चितरंजन बाबू उस वीरान में अकेले खड़े थे। आज को दिव्य प्रकाश नहीं दिख रहा था चारों ओर मद्धिम प्रकाश में बहुत दूर तक देखने की गुंजाइश नहीं थी। चितरंजन बाबू के मनमस्तिष्क में भय ने दस्तक देना शुरु कर दिया तभी उनके कानों नें काष्ठ की ध्वनि के साथ पैरों की आहट महसूस हुई वो चौंककर इधरउधर देखते तभी किसी ने उनके कन्धे पर अपना हाथ रखा। चितरंजन बाबू भय से अपने पीछे पलटे कि दंग रह गये कंठ बिल्कुल सूख गये। अरे यह क्या... कुबड़ी लिये बाबूजी खड़े हैं। चितरंजन बाबू कुछ बोलते समझते कि तभी बाबूजी ने पूछा-

कैसे हो बेटा! और मेरी बहु, बच्चे?
अभी चिरंजन बाबू कुछ बोल पाते कि बाबूजी के दोनों आंखों से आंसू के दो बूद ढुलक गये वो भर्राए गले से बोले बेटा मेरी चिंता मत करना मैं बिल्कुल ठीक हूँ ...अपना और अपने परिवार का ख्याल रखना।

अपने बाबूजी के गालों पर ढुलकते आंसू देखकर निरीह चितरंजन बाबू बाबूजी के चरणों पर गिरे लेकिन तब तक बाबू अन्तर्धान हो चूके थे। बाबू जी के चरणों वाले स्थान पर चितरंजन बाबू अपना सिर पटक रोने लगे बाबूजी बाबूजी

पूरे कमरे में चितरंजन बाबू की चीख कमरे के सन्नाटे को चकनाचूर कर कर.. उनकी श्रीमतीजी नींद से जगकर चितरंजन बाबू को पकड़कर चिल्लायीं क्या हुआ! आज फिर आप कोई सपना देख रहें हैं।

चितरंजन बाबू जब जगे तो उनके नेत्र आंसूओं से तर थे और रोते हुए सिर्फ इतना बोलकर अपना मुंह फेर लिए कि " मधु! बाबूजी ने मुझे चरण छूने का भी मौका नहीं दिया..... मैं दो शब्द बोल नहीं पाया उन्हें छू तक नहीं पाया अपराधी हूँ मैं....अपराधी...

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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